Monday 21 December 2015

धूल भी दवा है

जबसे सूर्योदय हो रहा है
तभी से वह सपने पहनकर
दीवार पर लिख रहा है स्मृतियों का लेखा- जोखा
इस क्रम में कई बार वह लिख देता है अपनी हत्या की खबर
और पूरी रात शब्दों को पांव से रगड़ते हुए
आंखों से काटता रहता है अंधेरा...
सूर्योदय से ठीक पहले जब गायब हो जाते है दीवारों पर बने असंख्य चेहरे
तब अंधेरा उसके व्यक्तित्व का एक अनिवार्य हिस्सा हो जाता है
जिससे वह पहचान जाता है भाषा के मानचित्र में बने वे तमाम चेहरे
जो अखबारों और धार्मिक आयोजनों में दिखते - रहते है
ऐसे में यकीन नहीं होता है जो इतिहास है वह क्या  सही है?
इतिहास के मूल्यांकन में
रात की अदालत में सारे शब्द गवाही के लिए उतर जाते है
और एक झटके में वह सूखी रोटी की तरह अकड़ कर कहीं भीतर इस कदर सूख जाता है
उसकी हड्डियों पर उभर आती है अपने समय की रेखाएं जो ब्रशों से नहीं बल्कि अविश्वास से तैयार हुई है
यह एक समय की हत्या है या किसी के व्यक्तित्व की
इसका निर्धारण न तो भाषा के पास है और न ही रंग के पास
ऐसे में वह लिखता है परंपरा के विरूद्ध जाकर हारे हुए और खोये हुए व्यक्तित्व का इतिहास
जहां ऐसे चेहरे है जो कभी कहानी में या किसी कविता में नहीं आए थे
लेकिन वह थे इस धरती पर ही कहीं ...
क्योंकि रात की खुदाई में कुंओं के पास से/  तालाबों के पास से
और तुम्हारी महल की नींव से मिले है उनके कदमों के साक्ष्य
फिर भी तुम्हारी धरती पर उनकी हंसी की आवाज कहीं न सुनाई देती
जबकि बांसों के पोरों में आज भी बचा हुआ है उनका स्पर्श
धरती के भूगोल से गायब हो गई कई सारी नदियां
कई सारे पहाड़
और बन गए कई सारे मंदिर
वह भी ऐसे- ऐसे देवताओं के जो उनसे कहीं बहुत कमजोर थे
इसके बाद भी कहीं नहीं सुनाई देती उनकी प्रार्थनाएं
ऐसा नहीं है उनके होंठ कभी कांपे नहीं होंगे
जबकि देवताओं की मूर्तियों पर उनकी कला आज भी बची हुई है
कभी - कभी धूल भी दवा होती है
अब यह धूल उड़ रही है और दिखाई दे रहा है मुझे
असंख्य ऐसे चेहरे जो अवतारित चरित्र से कहीं ज्यादा सुंदर है
कई बार धूल का जमना भी सही होता है
अगर धरती पर धूल नहीं होती तो आज मैं  नहीं लिख पाता
खोये हुए चेहरों के बारे में
जबकि कई बार आंधियां आई लेकिन चेहरे दबे रहे
यह सोचकर कि अभी आएगी और जोर की आंधी और नदी के पानी को उड़ा ले जाएगी।
इस सदी का इतिहास अब रेत लिखेंगे
और तुम पत्थरों के बीच आइना देखते रह जाओगे ॥

Thursday 17 December 2015

लड़कियों का पहला प्यार हैं स्कूल

 स्कूल जिंदा है क्योंकि वहां लड़कियों की हंसी के गुच्छे के फूल है
धरती के किसी स्कूल के  पास कोई इतिहास नहीं है सिवाए लड़कियों की स्मृतियों के...
स्कूल तभी तक बचे रहेंगे जब- तक लड़कियों की यादे बची रहेंगी
धरती के किसी स्कूल को उसके मास्टरों से नहीं
बल्कि वहां की लड़कियों से जाना जाता है
लड़कियां स्कूल की भाषा है
जिस स्कूल में लड़किया नहीं है
वह स्कूलों का श्मशान है
वहां हर कमरे में दूर - दूर की लड़कियों की स्मृतियां जलती रहती है
देवता भी रात में पश्चाताप करते है
आखिरकार वे क्यों नहीं गए कभी स्कूल
लड़कियां स्कूल आती रहेगी
स्कूल का इतिहास और विज्ञान बचा रहेगा
बची रहेगी मास्टरों की विद्या
जिस दिन लड़किया स्कूल नहीं आती
उस दिन स्कूल की भाषा मर जाती है
दीवारे उदास होकर आसमान निहारती है
इतिहास इसीलिए जिंदा है
क्योंकि उसके पास लड़कियों की बहुत सारी मुस्कान है
स्कूल की इमारते गिर जाती है
फिर भी बची रहती है उसमें एक खुशबू जो फूलों में नहीं होती है
लड़किया खाली वक्त स्कूलों की दीवारों में भरती रहती है अपने अजीबों- गरीब सपने
शहर का स्कूल हो या कस्बे का
लड़कियां यही आकर मुक्त होती है
लड़कियों का पहला और आखिरी प्यार है स्कूल है
एक लड़की स्कूल जाते वक्त सबसे अधिक सुंदर लगती है
भले से उसके पांव में हवाई चप्पल हो और धूल की मोटी परत
लड़कियां स्कूल में सीख लेती है लड़कों के भूगोल का विस्फोट
लड़किया स्कूल में सीख लेती है अंधेरे में एक रास्ता बनाना
लड़कियां सीख लेती है अंगुलियों से हवा को मोड़ना
लड़कियां स्कूल जाते वक्त जान जाती है
उनके समय का देवता कौन है।।

Wednesday 16 December 2015

स्त्रियां धरती की वसंत हैं

स्त्रियां धरती पर दूब की तरह हैं
हम उनकी जड़े जितनी बार काटेंगे
हम जितनी बार उन्हें धमाको से डराएंगे
वह उतनी ही बार आयेगी ....
तुम धरती पर स्त्रियों को आने से नहीं रोक सकते हो
स्त्रियां धरती की वसंत हैं
स्त्रियों को मारकर तुम जीतते नहीं हो कोई युद्ध
उन्हें तुम जीतनी बार मारते हो
उतनी बार तुम इतिहास के पन्नो पर अपनी पराजय लिखते हो
स्त्रियां धरती पर चलती रहेंगी दौड़ती रहेंगी
क्योकि वे धरती की केंद्र हैं और तुम मात्र एक त्रिज्या हो ....
 स्त्रियां आएँगी
उस वक्त भी जब एक मनुष्य केवल एक मनुष्य बचा रहेगा
और सभ्यता की अंतिम सीढ़ी पर खड़ा होकर जीवन मांगेगा
स्त्रियां आएगी उस वक्त भी
जब धरती पर मनुष्य नहीं रहेगा
और रचेंगी अपनी हँसी से
सूखी दीवारों में एक गीत
और बनाएंगी कुएं को एक आइना
और दूब की तरह पूरी धरती पर लिखेंगी एक भाषा ॥

Tuesday 15 December 2015

स्त्रियां खुश हैं कि घर में नमक हैं

स्त्रियां खुश हैं यह सोचकर कि घर में अभी नमक हैं
रसोई में चुटकी भर नमक का होना
इस चुटकी भर उम्मीद से वे खोज लेती हैं
आसमान में थोड़ा सा लाल  रंग
और पेट भरकर हँसती हैं
यह सोचकर कि अब वे धरती पर फैले हुए पानी में घोल
सकती हैं अपने हिस्से का लाल रंग !
इस उम्मीद को जेवर की तरह कहीं कान में बांध लेती हैं
 और निकल पड़ती हैं किसी जंगल की और या सागर के पास
स्त्रियां जंगल के एकांत में भरती हैं
एक सिंदूरी लाल रंग
और सागर की जड़ में रोपती हैं अपना स्वर !!
और धीरे से कहती हैं
हम नहीं डरते दुनिया के किसी भी शोर से
जब तक घर में नमक हैं
स्त्रियां गाती रहेंगी ...
स्त्रियां खुश हैं यह सोचकर
अभी बचा हुआ हैं घर में चूल्हे जैसा एक सहचर
जो बचाकर रखा हुआ हैं
स्त्रियों के लिए एक संगीत
एक स्त्री के लिए एक देवता जितना ऐतिहासिक हैं
उससे कहीं ज्यादा प्राचीन एक चूल्हा हैं
एक चूल्हे के अंदर स्वर तभी फूटता हैं
जब उसे स्त्री स्पर्श करती हैं
स्त्रियां खुश हैं जबसे वे हवा के खिलाफ
आग जलाना  सीख ली हैं ....
स्त्रियां उस दिन ठहाका लगाकर हँसती हैं
जब बिना धूप के गीले कपड़ो को
सुखाने की विधि खोज लेती हैं ...
भले से ! तुम्हारे रक्त में नमक कम हो जाये
लेकिन स्त्री के रसोई ने नमक बचा रहता हैं
जैसे बची रहती हैं धरती में कहीं डुब ॥
नीतीश  मिश्र

Sunday 6 December 2015

जूते जागते रहते हैं

मैं कभी-कभी  अपने शरीर के भीतर
खोजता रहता हूँ अपनी आत्मा को
और देखना चाहता हूँ मेरा खून किस कदर आत्मा पर अपनी निशान छोड़ा हैं
बहुत भीतर उतरने के बाद भी हाथ कुछ नहीं लगता
और मैं अपनी धमनियों में बहते हुए रक्त की रफ़्तार सुनता
और विश्वास करता हूँ
मेरा रक्त मेरी आत्मा को वैसे ही उड़ाता होगा जैसे
मैं पतंग उडाता हूँ ....
कभी -कभी मैं
अपने जूतो में अपनी आत्मा को महसूस करता हूँ
और यकीन के साथ कह सकता हूँ
अगर मेरे पांव में आज जूते नहीं होते
तो मेरे शरीर के भीतर मेरी आत्मा सुरक्षित नहीं रहती
कभी -कभी मैं जूतो के सामने झूक जाता हूँ
इस उम्मीद से कि यही मेरे जीवन के मार्गदर्शक रहे हैं जो मुझे सूरज के खिलाफ खड़ा किये
जब भी मैं कुरुक्षेत्र में खुद को कमजोर पाया
ये जूते मुझे सूरज की तरह ऊष्मा से दीप्त करते रहे ...
या जब कभी मैं रास्ता भटकता हुआ कहीं बहुत दूर निकल गया हूँ
उस वक्त भी इन्हीं जूतो ने मुझे सही रास्ते पर चलने के लिए संकेत देते रहे
मैं रात के घोर अँधेरे में
बहुत ही गौर से जब जूते को देखता हूँ
उसमे मेरे पांव के निशान दिखाई देते हैं
जो बहुत ही खूबसूरत लगते हैं
कभी -कभी जब मैं निराश हो जाता हूँ
उस वक्त मैं पानी के नीचे उतरना चाहता हूँ
और देखना चाहता हूँ
पानी के निशान शहर में कहाँ -कहाँ फैले हुए हैं ....
कभी -कभी मैं जब अकेला रहता हूँ
इतना अकेला की
उम्मीद भी गले में जहर सी लगती है
उस वक्त जूता बोलता हैं चलो इस दुनिया से कहीं दूर
और मैं चला जाता हूँ जूतो की दुनिया में
जहाँ जूते संघर्ष करते हुए या हारे हुए लोगों का इतिहास बचाने की कोशिश में जुटे हुए हैं
जरुरी नहीं की हर बार जूते जीत का ही इतिहास लिखे
कई बार जूते पांव का सहचर बनकर सूरज डूबने तक या डूबने के बाद भी जगे रहते हैं
जूते कभी नहीं सोते .....
जूते जागते रहते हैं
क्योकि सही मायने में जूते ही शरीर की आत्मा जैसे होते हैं ...
मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ
जिस दिन समूची दुनिया के जूते सो जायेंगे
दुनिया एक गेंद की तरह हवा के साथ उड़ जाएगी....
इस दुनिया में कभी -कभी एक आदमी से कहीं अधिक जरुरी हैं
एक जोड़ी जूते की ॥

सड़के शहर के नदियां होती हैं

सड़के शहर के नदियां होती हैं
और आदमी का पांव शहर के लिए नांव ..... 
आदमी की आँखे मछुआरे की तरह
दिन भर सड़को पर भटकती रहती हैं
शहर में जो तालाब हैं
वह एक औरत की डबडबाई हुई आँख हैं
और शहर का जो सबसे पुराना मुहल्ला हैं
वह एक बंदरगाह हैं.....
शहर में जो चौराहा  हैं वह अपने समय का ताजमहल हैं
शहर इतने सारे किस्सों को लेकर खड़ा हैं हमारे बीच
एक शहर के पास वह सब कुछ हैं
जो एक पूरी दुनिया के पास हैं
शायद एक शहर इसीलिए नहीं जाता हैं कभी दूसरे शहर में
हम रहे या न रहे यह शहर जरूर रहेगा अपनी जगह
पहाड़ से निकलने वाली नदी मुक्ति की चाह में बहती हैं
पर शहर के नदी शहर को बनाती हैं कभी बिगाड़ती भी हैं
लेकिन कभी मुक्त नहीं होना चाहती
एक शहर में जब तक तक एक सड़क रहेगी
शहर भी दुनिया के नक्शे में चमकता रहेगा ॥

Saturday 5 December 2015

सड़को पर अपनी नींद खोजता हूँ

हर सुबह एक बीमार ख़्वाब लिए
नंगी सड़को पर दौड़ता हूँ
जहाँ हर रोज मौते पनाह लेती हैं
कभी -कभी लगता हैं
जो सड़के मुझे मंजिल का पता बताती हैं
उन्हीं सड़को पर एक दिन मैं आखिरी नींद सो जाऊंगा
कभी -कभी मैं उन सड़को पर अपनी नींद खोजता हूँ
नींद तो नहीं मिलती हैं
लेकिन मेरे जूते के साक्ष्य जरूर मिल जाते हैं और कुछ अठन्नी भी
जो किसी भिखारी के गिरे हुए होंगे
मैं उस अठन्नी में अपनी किस्मत खोजता हूँ
और सड़क के एक किनारे सुरक्षित अठन्नी को रख देता हूँ
और कुछ देर तक मैं सड़को को प्यार की नजर से देखता हूँ
क्योकि सड़के ही मेरे समय की सभ्यता की एक साक्ष्य हैं
शहर की हर सड़क शहर की एक कुंजी होती हैं
जो बंद और खुले शहरों का पता बताती हैं
शाम को लौटते वक्त ख्वाब मर चूका होता हैं मेरी बाँहो में
कमरे का दरवाजा खोलते ही मैं दूसरा ख्वाब उठा लेता हूँ
कभी कभी मौत के बीच खुद को बचाने के लिए जरुरी होता हैं
ख्वाबों का चुराना
रात जब खामोश होकर उतरने लगाती हैं कुएं में
मैं एक बार फिर सड़क पर आता हूँ
उस समय सड़क घायल होकर कराहती रहती हैं
और सभी सरकारी फरमानों पर हंसती रहती हैं
सड़क आहिस्ते से कहती हैं
श्मशान का रास्ता भी मेरे ही सीने से होकर जाता हैं
उसके बाद भी इस सरकार को मेरा रत्ती भर भी ख्याल नहीं हैं ॥
 

Thursday 3 December 2015

आँखों में नीद की जगह एक आवाज

आँखों में सेमर की फूल की मानिंद नींद आती हैं
एक पहर के बाद राख की तरह दीवारो पर बिखर जाती हैं
मैं कई बार नींद के पार जाना चाहता हूँ
ठीक वैसे ही जैसे अँधेरा जाता हैं जंगलो में
और जाते ही जंगल के देह पर पसर जाता हैं
अँधेरा जंगल का रोशनी हैं .....
आँखों में कभी नींद कपूर की तरह आती हैं
नींद की गंध को मैं थामना चाहता हूँ
तभी हवाओं में कोई शोर तैरता हुआ आता हैं
एक बारूदी विस्फोट की तरह आवाज में तब्दील होकर अपनी कब्र मे खो जाता हैं
मैं सूर्यास्त के बाद के आसमान में रखता हूँ एक दिया
जो कुछ देर चमकने बाद बूझ जाती हैं
ठीक वैसे ही जैसे मेरे सीने में हर शाम एक उम्मीद मर जाती हैं
और मैं रात भर अपनी उम्मीद को दफ़नाने के लिए बुनता हूँ सतरंगी चादर.....
नींद के अलग -अलग रास्ते होते होंगे
मैं उन रास्तो को वर्षो से खोज रहा हूँ
जैसे वर्षो से खोज रही माँ मेरी स्मृतियों को ....
नींद के माने मुझे आज तक समझ में नहीं आया
औरो को समझ में आया होगा
तभी तो ववे लोग एक ही चाल में धरती पर चलते रहते हैं
और एक ही भाषा बोलते हैं
मानों वे आदमी नहीं कोई पेड़ हो जो सिर्फ महकते हैं
जबकि हम जैसे लोग हर रोज एक शव की शक्ल में तब्दील हो जाते हैं
दुनिया समझती हैं
अपने आसमान के निचे ही कुचलकर मर गए हैं
लेकिन अगले क्षण हम लोग अपनी धरती पर जड़ो के साथ जिन्दा हो जाते हैं
और अपनी नांव लेकर निकल पड़ते हैं
पानी की गहराई में अपने अपने सूर्य को ढूंढने
और इस खोज में भले से हमें कोई सूरज कभी न मिला हो
लेकिन हर रोज एक नया आसमान जरूर मिलता हैं
जहाँ हम खड़ा कर सकते हैं
अपनी नींद का हरा -भरा जंगल ....
अभी हम रात पर पहरा ही देने के लिए सोचते हैं
तभी आसमान से अचानक एक तारे के गायब होने की सूचना मिलती हैं
और हम निकल पड़ते हैं
सूचनाओं की दिशा में
सूचनाये की दिशाए कई बार सहीं नहीं होती हैं
इसके बाद भी हमें चलना पड़ता हैं तब -तक जब तक कोई सही दिशा न मिल जाये
जरुरी नहीं होता हैं की जो दिशा बताई जाती हैं दुबारा वह भी सही हो
कई बार मंजिल के पास जाकर हमें सिद्ध करना पड़ता हैं
सूचना भी गलत थी और दिशा सही थ.....
कई बार रात में जब हमारी दुनिया गुजरती हैं तब पूरी दुनिया
सपने को खाकर सोयी हुई दिखाई देती हैं
तभी फ़ुटपाथ से एक आवाज आती हैं
जो सपने न पहने की सजा भोगते रहते हैं ....
रात में दुनिया के देवता सो जाते हैं
दिन भर की नौकरी से शायद ऊबकर
देवता भी कभी हमारे जैसे ही लगते हैं भटके हुए जैसे
इन्हे देखकर लगता हैं
यह भी किसी सर्कस में बंद हो गए हैं
और एक तमाशा की तरह शहर में शोर किये जा रहे हैं
या अपनी मुक्ति संग्राम का क कोई गीत गए जा रहे हैं
लेकिन अजीब हैं देवताओं की कोई भाषा यहाँ समझने को तैयार नहीं
कभी कभी देवताओं को ऐसे में देखकर लगता हैं
शायद यह भी बचपन में अपने घर से अकारण गायब हो गए हैं
और गायब व्यक्ति को गायब होने की सजा भोगनी पड़ती हैं
अब मेरी आँखों में नीद की जगह एक आवाज समाई रहती हैं ॥
नीतीश मिश्र

Wednesday 21 October 2015

शहर की एक रात

हां! एक रात शहर में सभी लोग पागल हो जाते है
और चले जाते है चंद्रमा पर
हां एक रात शहर के सभी लोग योद्धा बन जाते है
और चले जाते है कुरूक्षेत्र की ओर
हां एक रात शहर के सभी लोग लेखक बन जाते है
और लिख मारते है धरती का इतिहास
हां एक रात शहर के सभी लोग भक्त हो जाते है
और मुक्त हो जाते है
एक रात शहर के सभी लोग सफाई में जुट जाते है
और शहर का कचरा साफ हो जाता है
हां एक रात शहर के सभी लोग ज्ञानी बन जाते है
और शहर की सदियों की समस्याएं मुक्त हो जाती है
हां शहर में यह कारोबार चलता रहता है
रोज लोग चांद पर जाते है
रोज लोग पागल बनते है
और अगली सुबह शहर में सभी अपनी - अपनी कब्र खोतदे है
ऐसे ही चलता है शहर का कारोबार
एक दिन आता है शेर
और सभी लोग निकल जाते है अपनी- अपनी जिंदगी को सुधारनें में
और शेर को बता देते है मुझे तम मारना
क्योंकि मुझे मालूम है किस आदमी का गोश्त बढ़िया है
शेर को यह बात सभी लोग धीरे- धीरे बता चुके है
शेर चला जाता है अपनी दुनियां में
और देखता है सभी लोग पहले की तरह चांद पर जा रहे है
कोई कविता लिख रहा है
कोई प्रेम कर रहा है
कोई राजनीति कर रहा है
कोई दंगा कर रहा है
कोई समाज सुधार रहा है
कोई मंदिर बना रहा है
शेर को लग गया कि अब यहां से कोई आवाज नहीं आएगी
क्योंकि सबकों अपना- अपना मांस प्यारा है
अब कहो साथियों शहर का शहर का हत्यारा कौन है?
नीतीश मिश्र

Saturday 3 October 2015

मैं एक भिखारी बनता

लेखक बनने से बेहतर था
मैं एक भिखारी बनता
या एक पागल बनता
कम से कम मैं मौत के आगे
अपना सर तो नहीं करता।।

दिल्ली में अमन चैन हैं

शहर में बच्चों का खामोश होना
किसी को नहीं मालूम
नहीं मालूम हैं
हवा को
नहीं मालूम हैं
धूप को
नहीं मालूम हैं
कालीमाई को
नहीं मालूम
पीर शाह को
नहीं मालूम हैं
सीताराम मास्टर को
नहीं मालूम हैं
अलीहम्मद को
नहीं मालूम हैं
वैद्य को !
शहर में बच्चों का मौन होना
यह बताता हैं
दिल्ली में अमन चैन हैं।।

यही हैं आज का सच

प्रगतिशीलता !
हाँ प्रगतिशीलता !!
बहुत अच्छा शब्द था
पर तब जब इसे बनाया गया था
यह उस समय उतना ही सुंदर था
जैसे ताजमहल!
आज प्रगतिशीलता के नाम पर
एक भ्रम
एक अहंकार
एक झूठ पहनकर
हम पक्तियों के बीच खड़े हो गए यह जताने के लिए हम ही संभालेंगे अगली पारी ।
हम लड़ सकते नहीं
हम कायरों की तरह सिर्फ दूसरों के लिए आईना बेचते हैं।
यही हैं
आज का सच
जिसे हम बदल नहीं पा रहे हैं।।

आज मैं रो दिया

आज मेरे कमरे में किताबें नहीं हैं
सिर्फ गन्दे कपड़े !
टूटे हुये मोबाइल के टुकड़े
कुछ चप्पले
कुछ बिखरी हुई मूर्तियां
कुछ टूटी हुई स्मृतियां
कुछ दीवारों पर लिखी हुई असफलताएँ
कुछ पन्द्रह अगस्त की घटनाएं
लेकिन !!
आज मैं रो दिया
जब एक बच्चे ने मुझे बताया आपका आईना गन्दा हैं।

नहीं देखना चाहता

मैं अपनी आँख
कान सब बन्द कर लिया हूँ
मैं नहीं देख पा रहा हूँ
एक इमारत की हत्या होते हुए
मैं नहीं सुनना चाहता
अब
एक बच्चा इंतजार में खड़ा हैं।
मैं नहीं देखना चाहता
लल्लू की टूटी हुई दुकान
जहां हर सुबह
सूरज से पहले हम हंसी से आग और बर्तन को रंगते थे।
मैं नहीं सुनना चाहता अब
सामरथी
अपने खेत से लौटकर कभी नहीं आएंगे।।
मैं अब नहीं सुनना चाहता
नहीं देखना चाहता।।

मैं रात भर सोचता रहा

मैं रात भर खोजता रहा
तुम्हारी मौत के कारणों को
मैं रात भर सोचता रहा
लेकिन खुद को विश्वास नहीं दिला पा रहा था
अब तुम्हारे बाद कोई नहीं मरेगा
मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ मित्र
बस मैं साँस ले रहा हूँ
और तुम्हारे शहर में
पुरानी हँसी के पास भींग रहा हूँ
तुम्हारे शहर में
तुम्हें एक बार फिरसे चाय की दुकान पर खोज रहा हूँ
कभी किताबों की दुकानों पर
कभी बस स्टैंड पर
और धीरे - धीरे तुम्हें अपने भीतर भर रहा हूँ।।

Tuesday 29 September 2015

मैं लिख रहा था प्रेमपत्र

जब पास में
हड्डिया और त्वचा थी
लेकिन पांव के पास ज़मीन नहीं थी
और मेरी नींद बरसात में भींग गई थी
उस क्षण
मैं लिख रहा था प्रेमपत्र !
जबकि तुम गहरी नींद में सो रही थी
और कुछ लोग पानी / आग को रंग रहे थे
मैं अपनी सांसो में तुम्हारे शहर का आकाश भर रहा था
और देश भूख में जाग रहा था
धरती / हवा / धूप सुरंग बना रही थी
मेरे चारो और घोड़े दौड़ रहे थे
मेरे होंठो पर एक प्रार्थना थी
जो तुम्हारी नींद की खोह में गायब हो चुकी थी
दुनियां पहाड़ों की तरह खत्म होती जा रही थी
औरते जंगलो की और भाग रही थी
और मैं
प्रेमपत्र लिख रहा था
जबकि मेरे सर पर बैठा चाँद काँप रहा था
और तुम्हारे देवता के सामने
मैं यह गुस्ताखी किये जा रहा था ॥
मैं प्रेमपत्र में खोज रहा था
कभी अपना भारत तो कभी तुम्हारा देश ।

Thursday 24 September 2015

मैं भूल जाता हूँ महाकाल को

महाकाल के प्रताप के बीच हूँ
या नर्मदा की गहराई के पास
या शहर के सबसे सुर्ख पागल की हंसी के पास रहूँ
या भीड़ के अँधेरे में
मुझे याद आती हैं तुम्हारी हंसी
मुझे याद आता हैं तुम्हारा गुस्सा
मुझे याद आती हैं
तुम्हारी उर्दू वाली जुबान
मैं महाकाल के तांडव के चाहे कितना ही पास रहु
मुझे याद आता हैं
अपने गांव का कुआँ
जहाँ पड़ी हुई हैं
सदियों से कई चीखे
मैं कितना भी विराट हो जाऊं ?
मुझे याद आती हैं
तुम्हारी लघुता
मुझे याद आती हैं
तुम्हारे शहर की  धूप
मुझे याद आती
तुम्हारे गांव की हवा
मैं महाकाल के कितना ही करीब हो जाऊं
मैं देखता हूँ
अपने भीतर एक नहीं
चार आँख
मैं देखता हूँ भीतर
चार हाथ चार पांव
मैं भूल जाता हूँ
महाकाल को
 जाता हूँ नर्मदा को ॥

भूलना

कई बार
भूलना जरुरी होता
हम भूल जाते हैं
मोहल्ले के हत्यारे को
भूल जाते हैं
कस्बे के उन सभी चेहरों को
जिनकी दुर्घटना में मौत हुई थी
हम भूल जाते हैं
उस लड़की को
जो कुछ रोज पहले मुहल्लें से चली गई
हम भूल गए हैं
उन मकानों को जिन्हें बिल्डर ने
हम सभी के सामने कब्जा किया था
हम भूल गए हैं
अपनी बस्ती के स्कूलों को
हम भूल गए हैं
उन सभी मास्टरों को
जिनसे हमने समय का व्याकरण सीखे थे
हम भूल गए हैं
अपने कस्बे के सबसे पुराने पेड़ को / सबसे पुरानी दुकान को
हम भूल गए हैं
अपने मुहल्ले के सभी बच्चों को
एक दिन हम भूल जायेंगे
संविधान को
एक दिन हम भूल जायेंगे
रामायण / महाभारत की कहानियों को
हम भूल जायेंगे
जब तक दिल्ली हंसती रहेगी
हम अपने समय में सब भूल जायेंगे
हम भूल जायेंगे
अपनी हत्या के दिन !!
नीतीश मिश्र

Sunday 20 September 2015

सपनों को कुरेदता हूँ

रेगिस्तान में
कुरेदता हूँ
सपनों को
देखता
लाल मिर्च की तरह
मेरे सपने
कहीं भीतर सूखे हुए हैं
अब लगता हैं
यह मेरे
सपने नहीं हैं
मेरे देह की सिकुड़ी हुई हड्डिया है।
और शब्द मेरी मुठ्ठी से
रेतों के मानिंद अपने अंदर से उम्मीद खोकर
मुहाने पर मुझे निहत्था छोड़ने के लिए तैयार हैं।।

पूरा कब्रिस्तान घर हैं।

मुझे लिखना हैं
प्रेमपत्र !
कब्रिस्तान में सोई हुई आत्माओं के लिए
मुझे लिखनी हैं
एक कहानी
कब्रिस्तान में सोये हुए एक बच्चे के लिए
मुझे लिखनी हैं
एक आत्मकथा
उस पागल की
जिसकी आँखों में रोशनी नहीं हैं।।

धरती का केंद्र हिल रहा हैं

आज हम मौत भी बेचकर
जीना चाहते हैं
अपने सपनों को डमरू बनाकर
अपने होने को बचाये हुए हैं
हम कहीं नहीं हैं
यदि हम कभी खुद को दीवारो में
नारो में तमाशों में देखकर खुद को खोने का मान लेते हैं
और यही से हम भटक गए हैं
हम भटके हुए लोग हैं
इसलिए खुद भटकते हैं
और सोचकर खुश होते हैं
धरती का केंद्र हिल रहा हैं।।

हम भटके हुए लोग हैं

आज हम मौत भी बेचकर
जीना चाहते हैं
अपने सपनों को डमरू बनाकर
अपने होने को बचाये हुए हैं
हम कहीं नहीं हैं
यदि हम कभी खुद को दीवारो में
नारो में तमाशों में देखकर खुद को खोने का मान लेते हैं
और यही से हम भटक गए हैं
हम भटके हुए लोग हैं
इसलिए खुद भटकते हैं
और सोचकर खुश होते हैं
धरती का केंद्र हिल रहा हैं।।

हम छिपायेगें मौत की खबर को

हम छिपाकर रखेंगे अपनी मौत की खबर को
हम छिपायेगें अपनी ईमानदारी
और बचे रहेंगे कुछ देर तक
किसी की याद बनकर
कोई देखेगा कुछ दिन तक रास्ता
हमे अपनी मौत की खबर को दबा कर रखनी होगी
जिससे बचा रहेगा चाय वाले का कुछ देर तक विश्वाश
जिससे जीवित रहेगी मेरी कमीज
जो दर्जी के यहाँ महीनो से पड़ी हुई हैं।
हमे अपनी मौत की खबर को छुपानी होगी
जिससे बची रहे
कुछ देर के लिए
उम्मीदें!

कविता मेंसब गायब हैं

कविता कैसे लिखूं
जब पास में नून नहीं
तेल नहीं
प्याज नहीं
यहाँ तक की दाल भी नहीं
कविता में जब यह सब गायब हैं
समझिये कविता घर में नहीं हैं
कविता फिर बैठी हैं
कहीं सोफे पर
हमे कविता में लाना होगा
फिर वहीं नून /तेल / तरकारी
फिर कविता हसेंगी
कविता बोलेगी
और एक हथियार की तरह
हमारे पास रहेगी ।
यदि कविता में
हम नून नहीं ला रहे हैं
तब हम खुद ही दलाल हैं
और अपनी कविता के हत्यारे भी।

हम कविता के हत्यारे बन जायेंगे
हम पर आरोप लगेगा
हमने पाठकों को भटकाया हैं।

पूरब मेंहथियारों का कारखाना हैं

मैं अक्सर देखता हूँ
एक कुत्ते को
पूरब दिशा की और मुंह करके भोंकते हुए
मैं अक्सर देखता
पूरब से
एक बच्चे को उदास लौटते हुए
मैं देखता हूँ
जो औरत पूरब गई हैं
वह अभी तक लौटकर नहीं आई हैं।
मैं अक्सर देखता हूँ
पूरब गया आदमी
सभी दिशाओं को गाली देता हैं
पूरब में सूर्य नहीं
हथियारों का कारखाना खुल गया हैं।।

मैं हिंदुस्तान का चरित् हूँ

मैं कामरेड नहीं हूँ
मैं आमरेड भी नहीं
मैं संघी भी नहीं
मैं सपाई भी नहीं
मैं दलाल भी नहीं
हरिशन्द्र भी नहीं
रावण भी नहीं
राम भी नहीं हूँ
गांधी भी नहीं
मैं केवल नमक की तरह
हिंदुस्तान का मात्र चरित्र भर हूँ।।
नीतीश मिश्र

Friday 11 September 2015

बच्चे भूल चुके है दूध का स्वाद

जहां बच्चे भूल चुके है दूध का स्वाद
बच्चे सपनों में बना रहे है
कपड़े के लिए एक प्रस्ताव....
मां अंधेरे की शिला पर बैठकर बुन रही है
स्मृतियों का एक रंग- बिरंगा स्वेटर
जिससे उसकी आत्मा कुछ - कुछ गर्म हो सके
बच्चे पेड़ों के पास खड़ा होकर पूछते है-
क्या तुम कभी फलते थे?
हम तो जबसे देख रहे है तुम ठूंठ की तरह उदास हो।
बच्चे जब भूख से खुश होते है
तब कढ़ाई में भरते है
थोड़ी सी धूप और थोड़ी सी हवा
और इस कदर खूश होते है
जैसे उन्होंने आसमान को पा लिया हो।

वो आएगा

वो आएगा
वो कभी भी
किसी भी रास्ते आ सकता हैं
हत्यारा
तुम्हारी कविता में बिंब बनकर आ सकता हैं
तुम्हारे दिमाग में तनाव बनकर आ सकता हैं
तुम्हारी थाली में अभाव बनकर आ सकता
हत्यारा अब तुम्हारे विचार में आ सकता हैं
हत्यारा खेतों में खाद और पानी के रूप में आ सकता हैं
हत्यारा बीमारी बनकर तुम्हारे देह में आ सकता हैं
हत्यारा अख़बार में एक खबर की तरह आ सकता हैं।
हत्यारे का तुम कुछ नहीं कर सकते
क्योकि हत्यारा जानता हैं
तुम जीना भी चाहते हो और भोंकना भी ।।
तुम हत्यारे से अब नहीं लड़ सकते हो ।

कल रात सेपरेशान हूँ

कल रात से ही परेशान हूँ
जबसे खबर सुना हूँ
मेरा एक दोस्त
इलाहबाद में बीमार हैं
इतना बीमार हैं
उसे पता ही नहीं
हिंदी का लेखक क्या कर रहा हैं
उसे यह भी नहीं मालूम बाजार क्या कर रही हैं
उसे यह भी नहीं मालूम
हिन्दू क्यों इतना खुश हैं
और मुसलमान क्यों इतना नाराज हैं
उसे यह भी नहीं मालूम
स्त्रियां पूंजीवाद की गुलाम हो रही हैं
उसे यह भी नहीं मालूम
अयोध्या के देवता से शक्तिशाली
अब एक विधायक हो गया है ।
वह कुछ भी नहीं जानना चाहता हैं
बस बार बार पूछता रहा
क्या नीतीश मैं बच जाऊंगा ?
मैं फोन पर चुप चाप हो गया
और दिवार पर लिखता रहा रात भर
क्या नीतीश मैं बच जाऊंगा ??

बाप डाकिए का देखता रहता हैं रास्ता

जब आसमान में सूर्योदय होता हैं
घर में बाप के साथ झाड़ू भी जागती हैं
बाप आसमान को पकड़कर
चौखट पर बैठ जाता हैं
और डाकिए का रास्ता देखता हैं
जबसे बेटी गई हैं शहर
बाप उदास होकर खड़ा हैं
बेटी की चिठ्ठी आती हैं
बाप बेटी की परेशानियां जानकर मौन हैं
फिर भी बेटी बाप की उम्मीद हैं
इसलिए बाप खुश हैं
यह सोचकर की एक दिन बेटी की ऐसी चिठ्ठी आएगी
जिसमे लिखा रहेगा
पिताजी आज आपकी बेटी बहुत खुश हैं
यही पक्ति पढ़ने के लिए
बाप इंतजार कर रहा हैं
और बेटी शहर में दौड़ रही किसी रेलगाड़ी की तरह ।।

यादों से बच्चें गायब हो रहे हैं

अब तक धरती से बच्चे गायब होते थे
या दंगे में मर जाते थे
या मार दिया जाता था
या कभी कभी बच्चे भाग भी जाया करते थे
लेकिन अब बच्चे
स्मृतियों से जाने लगे हैं
अब नहीं सुनाई देती पड़ोस के एक बच्चें की आवाज
अब नहीं सुनाई देती
बच्चों की बहादुरी भरी कहानियां
बच्चे यादो के बंदरगाह से जाने लगे हैं
और जो बच्चे गायब हो गए हैं नौकरी की तलाश में
वह अब बच्चे नहीं रहे।।
मेरी यादों से बच्चे गायब हो रहे हैं
बच्चे मंदिरो में अब नहीं आते
बच्चे भूल गए हैं
पंक्षियों के नाम
बच्चे मेरी यादो से पलायन कर रहे हैं।।

यह बच्चा अब कहाँ जायेगा

गांव में अगर कुछ बचा हैं
तो
एक बच्चा
एक मंदिर
और एक मस्जिद
और सूखे पोखरे
कब्रिस्तान
अब यह बच्चा शहर जायेगा या यहीं रहेगा
अगर यही रहेगा
तो पहले मंदिर जायेगा या मस्जिद या कब्रिस्तान।
यह बच्चा अब कहाँ जायेगा।।
जब भी शहर में
कोई मस्जिद या मंदिर बनता हैं
मुझे लगता हैं
दुनिया ने
एक नए हथियार का अविष्कार कर लिया हैं
जब भी शहर में
कोई नया पंडित
या नया मुल्ला तैयार होता हैं
लगता हैं
मेरे ही आँगन में एक नई विभाजन रेखा खींच दी गई हैं।।

तुम तो सिर्फ व्याख्यान में थे

अब तुम लड़ाई नहीं लड़ पाओगें
लड़ाई के लिए रचोगे
सिर्फ स्वांग
और आख्यान
और करोगे अपने पुराने जंग पड़ गए इतिहास का प्रचार
जबकि तुम जानते हो
जब तुम पहली बार इस दिशा में आये थे
तभी भी तुम यही तख्तियां लेकर
हवा में मुक्का मारते थे
और भूख ओढ़कर
एक क्रांतिकारी की हैसियत से
आंदोलनों में भाग लेते
आज भी तुम्हारे साथी
वही गाना दोहराते
तुम लड़ाई में थे ही कब
तुम सिर्फ अपनी आवाज और अपनी पत्रिका में थे ।
और आज भी
तुम्हारे बाद
कई साथी उन्हें मिल गए
जो तख्तियां लेकर खड़े हैं
उन्हें मालूम नही हैं
पूरब दिशा का पता ।
तुम लड़ाई में आये ही कब
तुम तो सिर्फ व्याख्यान में थे ।।

हम दूर-दूर तक लड़ाई में नहीं हैं

हम दूर-दूर तक लड़ाई में नहीं हैं
हमारे ही साथी
हथियारों के बेंट बनकर
उनके हाथों का शोभा बने हुए हैं
उसके बावजूद भी हम चिल्ला रहे हैं कि हमारी लड़ाई जारी हैं
"हमारी लड़ाई जारी हैं"
अब यह एक दृष्टि नहीं
बल्कि यह भ्रम से रंगा हुआ एक कथन भर हैं
हमारे बुजुर्ग भी
अब लाल कुर्ता पहनना शुरू कर दिए हैं
हमारे विचारक भी अब सुरक्षित
जीवन की खोज में अन्वेषण कर रहे हैं
हम मरे हुए सपने हैं
और उनकी ताबूत में बंद हैं
वो हमे जिन्दा करने के लिए
युद्ध मैदान के किनारे से एक आवाज लगाते हैं हमारी लड़ाई जारी हैं ।।

तुम कहां हो भाई!

तुम कहां हो भाई!
अब वो लोग हिंदी में सपना देखना शुरू कर दिए
जबकि तुम हिंदी- हिंदी करते- करते मर गए
तुम तो हिंदी में उसी दिन मर गए थे
जब महानगर में प्रेमपत्र लिख रहे थे
तुम कहां हो भाई
जब हिंदी वो लोग बोलेंगे
जो हिंदी में रो नहीं सकते
जो हिंदी में गाली नहीं दे सकते
जो हिंदी में प्यार नहीं कर सकते
तुम कहां हो भाई
समाजवाद के पीछे तो नहीं भाग रहे हो,
तुम्हारे समाजवाद से भी हिंदी गायब हो चुकी है
तुम्हारे धर्म से भी हिंदी गायब हो चुकी है
तुम्हारे देवता भी नहीं सुन रहे है हिंदी में प्रार्थना
तुम बस जाने जाओंगे
वह भी तब जब तुम मर जाओंगे
या मार दिए जाओंगे
तब दिखाई देंगे
हिंदी के गिद्ध आसमान में उड़ते हुए
और लोकतंत्र के नाम पर मनाएंगे
तुम्हारे मौत का उत्सव
और फिर चले जाएंगे लोकतंत्र को बचाने
कहां हो भाई
दिल्ली के मोर्च पर
या अयोध्या के बियाबान में भटक रहे हो।।
नीतीश मिश्र

हम दुःखी थे

हम दुःखी थे
तभी यह धरती हमे विरासत में मिली
और आज भी हम दुःखी हैं
जब हमसे हमारी विरासत छीनी जा रही हैं
आज हमारे पास विरासत के नाम पर
चन्द पन्नों का इतिहास हैं
और चन्द कुछ ऐसे चेहरे हैं
जिन्हें हम अपनी परछाई बनाने में लगे हुए हैं
हम हारे हुए लोग हैं
और हारे हुए का कोई चेहरा नहीं होता ।।
नीतीश मिश्र
हम पहली बार पन्द्रह अगस्त को हारे थे
दूसरी बार इमरजेंसी के समय
तीसरी बार अयोध्या में
और चौथी बार
चौदह मई 2014 को
और पांचवी बार
दस सितंबर को
हम अब लिखेगें
सिर्फ अपने हारने की तिथि।।
नीतीश मिश्र

हम ठहरे हुए लोग हैं

हम ठहरे हुए लोग हैं
हम कभी लड़ाई में थे ही नहीं
हम लोग तो विचारों का पर्दा लेकर चलने वालों में से हैं
हम जिए कम बोलते रहे ज्यादा
उधर हत्यारा
खरगोश के साथ दौड़ रहा था
उसकी आवाज से सागर भी कांपता था
हमे यह सब मालूम था
फिर भी हम
धूप के खिलाफ खड़े नहीं हुए
हम लोग ठहरे हुए लोग हैं
इसलिए हम बस
मौत का मातम मनाना जानते हैं।
हम लोग ठहरे हुए हैं।।
नीतीश मिश्र

Monday 7 September 2015

बच्चे जब भूख से खुश होते है

जहां बच्चे भूल चुके है दूध का स्वाद
बच्चे सपनों में बना रहे है
कपड़े के लिए एक प्रस्ताव....
मां अंधेरे की शिला पर बैठकर बुन रही है
स्मृतियों का एक रंग- बिरंगा स्वेटर
जिससे उसकी आत्मा कुछ - कुछ गर्म हो सके
बच्चे पेड़ों के पास खड़ा होकर पूछते है-
क्या तुम कभी फलते थे?
हम तो जबसे देख रहे है तुम ठूंठ की तरह उदास हो।
बच्चे जब भूख से खुश होते है
तब कढ़ाई में भरते है
थोड़ी सी धूप और थोड़ी सी हवा
और इस कदर खूश होते है
जैसे उन्होंने आसमान को पा लिया हो।

नीतीश मिश्र

Monday 24 August 2015

पंद्रह अगस्त वर्ष 2015

जब कभी रुनझुन सी हवा
आकर बैठती हैं माथे पर
उसकी यादों के रंग बिरंगे फूल
अन्न की तरह लगने लगता हैं
कभी कभी उसका ऐसे आना
जैसे सूखे पौधे पर एक नई कोपल का चढ़ने जैसा लगता हैं
ऐसे में अंधेरे में कई आईने टूटते हैं
लेकिन आईने टूटकर भी आईने ही रहते हैं
और मैं बिखर जाता हूँ
पंद्रह अगस्त की तरह जैसे उस दिन हमारी धरती बिखरी थी
पंद्रह अगस्त 1947  को हिंदुस्तान की धरती खूब रोई थी
क्योकि इस दिन कुछ गधहों ने एक माँ के व्यक्तित्व को दो भागों में बाँट दिया था
वर्ष 2015  के पंद्रह अगस्त को
मेरा भी व्यक्तित्व विभाजित हो गया
उस दिन दिल्ली बहुत हंस रही थी
क्योकि कुरुक्षेत्र में इस बार फिर अभिमन्यु जब निहत्था था तभी उसपर हमला बोला गया
लेकिन शुक्र हैं
इस बार के कुरुक्षेत्र के युद्ध में अभिमन्यु मरा नहीं बल्कि घायल हुआ हैं
यह कुरुक्षेत्र का संस्कार हैं
निहत्थों पर हमला बोलना
मै पराजित होकर अपने आईने  पास हूँ
और वही से देखता हूँ
पश्चिम में लहरा रहा हैं मेरा हरा रंग
जब व्यक्तित्व घायल होता हैं
तब इतिहास भी बदलता हैं
मौसम भी बदल जाता
ईश्वर भी
आज भी जब अँधेरे में देखता हूँ अपना शव
जिसे कुत्ते लिए जा रहे हैं
श्मशान में
और एक करुणा के साथ
अपने मद्धिम स्वर में लिख रहे हैं मिटटी में मेरी तमाम अंधूरी कहानियां
 अब जबकि मैं घायल हूँ
उजाले को यह बात मालूम हैं
मैं फिर कुरुक्षेत्र में लौटकर आऊंगा
और उजाला शुरू कर दिया हैं हथियार बनाना
जबकि मैं कोई  युद्ध हथियार से नहीं   विस्वास से लड़ा हूँ
आज जब जूतो से पूछता हूँ
क्योकिं यह मेरे सफर के सबसे विश्वसनीय साथी रहे हैं
क्या मैं फिर युद्ध लड़ सकता हूँ
जूते बड़े ही विश्वास के साथ कहते
हां
और चाँद छुप  जाता हैं
मेरे अँधेरे का जासूस कोई और नहीं बल्कि यह चाँद हैं
जो अक्सर मेरे साथ विश्वासघात करता आया हैं ॥


Saturday 15 August 2015

आईना ही बताएगा आगे का रास्ता

 जब हम नहीं होंगे
कहीं नहीं होंगे …
न तो कविताओं में और न ही कहानियों में
जब कहीं कुछ नहीं बचा होगा
तब धरती पर जीवाश्म की तरह
आईने बचे होंगे
तब हमारे समय का सबसे बड़ा ग्रन्थ
आईना  होगा
और लोग आईनों से पूछ कर
हरेक जख्मों का इतिहास लिखेंगें
उस समय का सबसे बड़ा धर्म आईना होगा
आईना जो बोलेगा
लोग वही लिखेंगे
आईना: बोलेगा इंसान और देवता में कोई फासला नहीं होता
आईना बताएगा उजाले और अँधेरे में कोई अंतर नहीं होता
आईना बताएगा गरीब के पेट की सुंदरता कैसी होती हैं
आईना बताएगा एक औरत की आँख में कितना आंसू हैं
आईना बताएगा दिल्ली में यमराज रहता हैं
आईना  ही तय करेगा की
इस सदी में कौन ताजमहल बनवायेगा
आईना  ही बताएगा की किन लोगों ने भ्रूणों की हत्या की हैं
आईना यह भी बताएगा की रात में चीटियाँ कैसे गाती हैं
आईना  ही बताएगा
नदी कितनी भूखी  कर्जदार हैं
तुम क्या सोचते हो
हमेशा तुम ही रहोगे
नहीं धरती पर दो ही लोग जीवित रहेंगे
एक आईना
दूसरा पेड़
दोनों तुम्हारे साथ चलते नहीं हैं
इसलिए हम उन्हें कमजोर मानकर दरकिनार कर देते हैं
लेकिन यह चलते तो नहीं हैं पर इनकी नजर बहुत दूर तक रहती हैं
यह बैठे -बैठे ही देख लेते हैं
कब किसकी हत्या होने वाली हैं
कब किसका रंग बदलने वाला हैं
आईनो को यह भी मालूम रहता हैं
चन्द्रमा आज कितना उदास हैं
आईना ही इस सदी का संत हैं
जो सब जानता हैं मगर चुप रहता हैं ॥
अब आईना ही बताएगा आगे का क्या रास्ता हैं

Monday 10 August 2015

पेड़ नहीं देवता हैं

कल जब अँधेरा इतना घना हो जायेगा
और तुम्हें नहीं दिखाई देगी अपनी स्मृतियाँ
तुम्हें नजर नहीं आएगा कोई ऐसा अभिलेख
जहाँ से तुम देख सको अपने गौरव का स्रोत
तो समझ लेना
आने वाली सदी में
इतिहास यदि किसी का लिखा जायेगा तो
वह मात्र पेड़ होगा !
क्योकि धरती पर यदि किसी ने अपनी ईमानदारी बचा कर रखा हैं तो
वह हैं केवल पेड़ !!
ऐसे में अब तुम्हे स्वीकारना होगा
की तुम्हारे समय का सबसे न्यायप्रिय शासक कोई और नहीं बल्कि वह पेड़ हैं
जिसकी जड़े आज भी माँ के गर्भ में ही जीवित हैं
पेड़ सिर्फ पेड़ नहीं हैं
वह तुम्हारे समय का सबसे बुढ्ढा देवता हैं
देवता तो तुम्हारी प्रार्थना सुनकर कभी कभी हँसता भी हैं
लेकिन पेड़ो ने कभी भी नहीं हंसा
बल्कि तुम्हारे दुःख में वे सदियों से रोते आये हैं
पेड़ो ने तुम्हें उस वक्त भी समझाया जब तुम उनकी बाँहो में झूलकर मरते थे
तुम तो मर गए लेकिन पेड़ पर एक दाग लग गया
जिसे वह आज भी धो रहा हैं
पेड़ अपने समय का सबसे खूबसूरत देवता हैं
अँधेरे से अंतिम समय तक वही लड़ता हैं ॥
जब तुम नहीं रहते हो अपनी किला में
उसके बाद भी वह तुम्हारे किला को संभालकर आज तक रखा हुआ हैं
आने वाली सदी में जब धर्म की किताबे लिखी जाएगी तो
उसमे मनुष्य का कहीं नाम नहीं होगा
आने वाली सदी को पेड़ ही रास्ते बताएँगे ॥

नीतीश मिश्र

Saturday 8 August 2015

मैं अंधेरे में बनाता हूं अपना अक्स

 शाम आती है
आहिस्ते- आहिस्ते एक उदासी देकर चली जाती है
मैं अंधेरे का एक टुकड़ा लेकर बनाने लगता हूं
एक पंतग.... 
जो अंधेरे में उड़ सके
और मैं सुनता रहूं भीतर ही भीतर एक बच्चे की हंसी
जो दिन भर खुली हवा में
किताबों से दूर रहा
दौड़ता रहा अपनी हथेलियां उठाए
कभी इस गली में कभी उस गली में
और भूल गया खेलना...
मैं अंधेरे का एक टुकड़ा लेकर बनाता हूं
एक लट्टू
जिसे एक बच्चा धरती पर कहीं भी नचा सके
और उम्मीद भर सके अपने हाथों में
कि उसमें अभी भी वह हुनर है
जिसके दम पर वह आगे दुनिया को नचा सकता है
मैं अंधेरे के एक टुकड़े से बनाता हूं
एक चित्र
जिसे एक बच्चा अपनी मां समझ सके
और लड़ सके
अंधेरे से!
 मैं अंधेरे का एक टुकड़ा लेकर
बनाता हूं एक इमारत
जहां एक बच्चा आए और सो सके
और एक ख्वाब बुन सके
मैं रात भर लड़ता हूं अंधेरे से
जिससे एक बच्चा अपने अंदर
महसूस कर सके उसे कुरूक्षेत्र में जाना है
मैं अंधेरे में बनाता हूं अपना अक्स
जिससे मैं रह सकू अपनी दीवारों के साथ।।
नीतीश मिश्र


Friday 7 August 2015

रात भर दीवारे जागती है

एक रात मैं देखता हूं
खुदा सोते हुए ख्वाब देख रहा है
और अंधेरा हिंसा करता जा रहा है
दीवारे सिमटती जा रही है
कमरे का आइना सदियों से मौन होकर
छत के रंग को घूरे जा रहा है
ऐसा लगता है जैसे अंधेरा अब किसी की हत्या करने वाला है
लेकिन कमरे में मेरे अलावा दीवारे है/ जूते है/ झाड़ू है/ किताबे है/ कुछ गंदे कपड़े
सभी खामोश है
सभी की आंखों में कभी अतीत का सम्मोहन
कभी नीला सा भय
कभी आंखों में एक मद्धिम सी रोशनी के बीच
विज्ञान के भरोसे खोजती है जिंदगी में सुराख
और अंधेरा फैलाता रहता है अपना सीना इस कदर की
दीवारे चादरों में सिमटने लगती है
आइना टूटने लगता है
जिंदगी अपने ख्वाब जूते में रखने लगती है
और घना होता है अंधेरा
कमरे में रखी कुछ पाषाण मूर्तियां बोलने लगती है
यह अपने समय की हिंसा है
किताबे बोलती है यह अपने समय की राजनीति है
जूतो बोलता है
यह अपने समय का हत्यारा है
आईना बोलता है
यह देश का सौदागर है
दिवारे बोलती है
यह अपने समय का उस्ताद है
क्या ये सब अपने- अपने समय के हथियार से ही मारे जाएंगे?
यह एक दिन की बात नहीं है
जबसे वह सत्तासीन हुए है
तभी से कमरे में अंधेरा बढ़ता जा रहा है
दीवारे जाग रही है
जूते आखिरी सांस ले रहे है
कहीं अगर थोड़ी सी उम्मीद बची है तो वह रेगिस्तान में छिपी हुई है।

नीतीश मिश्र

Sunday 12 July 2015

पहाड़ बोलेंगे

जब कोई नहीं बोलेगा
अपने समय का सच
तब पहाड़ बोलेंगे …
क्या तब तुम सुनोगें
पहाड़ की बाते
जब पहाड़ कहेगा की
एक दिन तुमने
एक लड़की के साथ प्यार का ढोंग किया था
और उस समय मैंने सिखाया था तुम्हें प्यार करना
क्या पहाड़ की यह बात कोई सुनेगा
जब पहाड़ कहेगा की
तुम अपने समय की और दूसरे के जीवन की हत्या करके पहाड़ में आराम करने के लिए आते थे
अब हमें जो भी लिखना हैं
वह पहाड़ से पूछकर लिखना होगा
क्योकि जब कवि चुप हैं
और संपादक बहुरुपिया हो गया हो
और बुद्धिजीवी सुविधाजीवी हो गया हो
तो दुनिया का इतिहास कैसे लिखा जायेगा
क्या आजाद होने  मतलब हैं
हम जैसे चाहे वैसे सपने देखे
हम जैसे चाहे वैसे अपने समय को परिभाषित करे
यदि हमें कुछ लिखना हैं
या कुछ तय करना हैं
तो हमें लौटना होगा फिरसे पहाड़ो पर
पहाड़ो पर देवता भी लौटकर आते हैं
और पहाड़ो पर चाँद भी लौटता हैं
जब भी प्रेम पर कोई कविता लिखनी हो
तो पहाड़ ही अब बताएगा प्रेम क्या होता हैं
काश ! हम मंदिरो से जितना प्यार करते हैं
उसका आधा भी हम पहाड़ से प्रेम करते
तो बचा होता हमारा रंग और समय ॥

Friday 10 July 2015

मुझे केवल भिखारी पहचानता हैं

इस शहर में
मैं सुबह -शाम की तरह जिन्दा हूँ
इसके बावजूद भी
तुम्हारे शहर में
मुझे केवल भिखारी पहचानते हैं…
कभी -कभी तुम्हारे शहर के
कुछ कुत्ते भी पहचानने की कोशिश किये
इस कोशिश में कुत्तो ने
अपनी बहुत सारी  ऊर्जा भी ख़त्म कर चुके हैं
लेकिन कुत्ते नहीं पहचान सके मुझे
कुत्तो ने मुझे उतना ही पहचाना
जिससे उनको मुझसे नुकसान न हो !
कभी -कभी सोचता हूँ
यदि मैं यहाँ नहीं आया होता
तो  क्या तेरा शहर दूसरो के साथ ऐसा ही व्यवहार करता ?
तुम्हारे शहर के देवता भी
नहीं सुनते मेरी प्रार्थना
और न ही हवा भी
इस तरह मैं तुम्हारे शहर में
एक लोटे की तरह किसी अँधेरे में डूबा हुआ हूँ ....
कभी -कभी मैंने यह जानना चाहा की
क्या मैं तुम्हारे शहर में खुद को कितना पहचानता हूँ
 मेरे धरातल से एक ही आवाज उठता हैं
यह समय खुद को पहचानने का नहीं हैं
यह समय अँधेरे का हैं
और मुझे बचाना हैं अपने समय को जिससे
मेरा समय बच सके तुम्हारे रंग से
कभी कभी सोचता हूँ
लौट जाऊं अपने शहर
लेकिन वहां भी तो कोई नहीं हैं जो मुझे पहचान सके
मेरे समय के सभी दोस्त
अपने -अपने समय के रंग को नाले में छोड़कर
अपनी भूख पर कलई करने में लगे हुए हैं
मेरे शहर में
न तो अब वह हवा हैं
और न ही वह धूप
और न ही वह पेड़ जो मुझे कभी पहचानते थे
मैं तुम्हारे शहर में जिन्दा हूँ
एक मशीन की तरह
और एक समय के बाद
मशीन की तरह कबाड़ख़ाने का विषय हो जाऊंगा
यह समय का
शायद कबाड़ख़ाने होने का हैं ॥
नीतीश मिश्र

Tuesday 7 July 2015

प्रधानमंत्री कुछ भी कर सकता हैं

देश का प्रधानमंत्री कुछ भी कर सकता हैं
इसलिए प्रधानमंत्री की आवाज सुनकर बच्चे डरने लगे हैं
बच्चे अपने डर को छुपाने के लिए
प्रधानमंत्री की आवाज सुनने के बजाएं
फ़िल्मी गाने सुनने लगे हैं .......
देश का प्रधानमंत्री कुछ भी कर सकता हैं
इसलिए उसके खिलाफ कोई भी आवाज नहीं उठाता
प्रधानमंत्री आपसे छीन सकता हैं
आपकी डिग्री !
प्रधानमंत्री
घोषित कर सकता हैं
कि आपका प्यार झूठा हैं
वह घोषित कर सकता हैं
आपको : हत्यारा
देश का प्रधानमंत्री कुछ भी कर सकता हैं
वह चुरा सकता हैं आपके सपनो को
वह चुरा सकता हैं आपके देवता को
प्रधानमंत्री बदल सकता हैं आपका धर्म
प्रधानमंत्री एक मिनट में हथिया सकता हैं आपका घर
प्रधानमंत्री घोषित कर सकता हैं आपको संक्रामक बीमारी हुई हैं
इसलिए आप देश में नहीं रह सकते हैं
प्रधानमंत्री से पंडित और मुल्ला दोनों डरते हैं
इसलिए प्रधानमंत्री को न तो पंडित बुरा कह सकता हैं और न ही मुसलमान ॥
नीतीश  मिश्र

Thursday 25 June 2015

कहीं मेरा गांव खत्म तो नहीं हो रहा हैं

कहीं मेरा गांव खत्म तो नहीं हो रहा हैं
जैसे ही यह विचार मन के सतह से उठता हैं
मैं अँधेरे में उठकर दीवारो को टटोलने लगता हूँ
और अपने अंदर महसूस करता हूँ
गांव वह गांव खत्म हो रहा है
और को ……
जिसने मुझे सींचकर शहर में एक बरगद की तरह खड़ा किया हैं
आज मैं अपने गांव के बचे होने की संभावना तलाश रहा हूँ
वह भी उस शहर में जहाँ का आसमान
केसरिया रंग का हैं ……
मैं आधी रात को उठता हूँ
और कमरे से बाहर देखता हूँ
सुनी सी सड़के
ठहरी हुई हवाएँ
और नालियो में गन्दगी का एक संगीत की तरह बजना सुनता हूँ
और लौट जाता हूँ
अगली सुबह की गाड़ी से अपने गांव पहुंचता हूँ
देखता हूँ गांव बीमार हैं
गांव में नहीं हैं
बच्चो की कोई टोली
गांव में कुछ अगर बचा हुआ हैं
वह हैं खंडहरों का साम्राज्य
गांव में अब नहीं सुनाई देता
पेड़ो पर से टपकते हुए पके आम की आवाज
या किसी खोते से किसी सुग्गा की आवाज …
अब नहीं सुनाई देती हैं
बांसों के झुरमुटों से किसी औरत की आवाज
अब गांव में नहीं बचा हुआ कहीं ऐसा एकांत
जहाँ प्रेम खड़ा हो सके …
अब गांव में अगर कुछ दिखाई देता हैं तो वह हैं
टूटी हुई हवाएं
और बीमार सी धूप
और कुछ बदबूदार कहानियाँ
गांव इसी तरह ख़त्म हो जाएंगे
और एक दिन हम भी ॥

Thursday 21 May 2015

मुझे देखने दो स्वप्न

इतिहास फिर बदलने वाला है
नये आसमान में फिर सूर्योदय होने वाला है
ऐसे में मुझे देखने दो स्वप्न
क्योंकि अखबार भी अब झूठ बोलना शुरू कर दिए
सिर्फ एक सपने ही ऐसे सफेद रोशनी की तरह बचे हुए है
जहां से पहुंचा जा सकता है
शब्दों की दुनिया  में।
मुझे देखने दो स्वप्न
क्योंकि अब नहीं रहने वाली है यह दुनिया
अपनी दुनिया के रंग को मैं आखिरी बार सपनों में देखना चाहता हूं
मैं सपनों में देखना चाहता हूं
एक बच्चा खोज रहा है अपनी खोई हुई गेंद
इस उम्मीद से कि अगर गेंद मिल गई तो एक बार वह पृथ्वी को अपने हाथ में घुमा सकता है
मैं देखता हूुं  के  झूंड   झूंड लड़कियां हंसी क स्वर को सफर में रंगती हुई
घर की दीवारों में एक फूल उगा रही है
एक मां देहरी पर खुश है जबकि सूरज डूब चुका है
यह सोचकर उसका बेटा सही रास्ते पर है
मैं सपने में देखता हूं
एक मजदूर आखिरी बार जब सूरज अस्त होने वाला होता है
उठाता है मुक्का और आसमान में टंगा हुआ गुब्बारा फट जाता है।
मैं देखता हूं एक घर जो इस उम्मीद में खुश है
क्योंकि घर में रहने वाले सदस्य अपने चेहरें पर हंसी की रेखा को बनाए हुए है।
मैं देखता हूं एक स्वप्न
देश के और मनुष्यों के जीवन को मिटाया जा रहा है
और उन्हें लग रहा है वह संविधान का संशोधन कर रहे है।
मैं आखिरी बार स्वप्न देखता हूं एक चिड़िया धरती से आजाद हो गई है।।
नीतीश मिश्र

Monday 18 May 2015

क्या तुम जानते हो शहर कराह रहा है

क्या तुम्हें मालूम है
जिस शहर में  तुम रहते हो
वह रात भर कराहता है
जब तुम वर्तमान से थकरकर सो जाते हो
जलकुंभी की तरह
उस समय शहर जागता है
और अपने घायल चेहरें को तुम्हारे आईने में देखता है।
और सोचता है तुम उसे किस हथियार से मारे हो कि जख्म आज- तक नहीं भर पा रहा है
यहां तक शहर के सबसे पुराने और बुर्जुग देवता भी शहर के जख्म को आज - तक नहीं भर पाए
ऐसे में अब ये शहर तुमसे डरने लगा है।
जानते हो !
शहर तुमसे पहली बार कब डरा था
जब तुम हाथ में पत्थर उठाकर तालाब में फेंके थे
उसी दिन शहर को आभास हो गया था कि जिसे मैंने अपने छांव में रखा है वहीं एक दिन मेरी हत्या करेगा।
अब शहर रात भर बांसुरी की तरह बजता रहता है
लेकिन यह अलग बात है कि शहर का बजना किसी को सुनाई नहीं देता है
क्या हम शहर को कभी लौटा सकते है उसका पुराना वह चेहरा जिसमे शहर सबसे खूबसूरत दिखाई देता था?
 शहर धीरे- धीरे हमे छोड़कर जा रहा है
क्या तुम्हे पता है
जब तुम रहोगे और शहर नहीं रहेगा।
शहर एक दिन चला जाएगा
ठीक उसी तरह जिस तरह शहर से चली गई कई सारी लड़किया।।
नीतीश मिश्र

Saturday 16 May 2015

बुरे- बुरे ख्वाब आते है

जबसे दिल्ली के आसमान में
लाल -लाल रंग के गुब्बारे हवा में उड़ने लगे
उस दिन से रात में बुरे- बुरे ख्वाब आने लगे
अब मैं पूरी रात जागते हुए कभी अपने देह पर तो कभी अपनी स्मृतियों पर
लगातार पहरा देता हूं
अपने हिस्से के आसमान में
मैं नहीं देखना चाहता हूं
कोई लाल रंग
इसलिए मैं अपने आसमान को बचाने की खातिर
अपने हिस्से के आसमान को और गंदा करता हूं
इस उम्मीद से कि उन्हें गंदी चीजें अच्छी नहीं लगती है
लेकिन वे राजा है
उन्हें कुछ भी पसंद आ सकता है।
जैसे उन्हें इन दिनों पंसद आ रहा है
किसानों की जमीन
इसलिए किसानों की जमीनों को वे लाल रंग से रंगने में इन दिनों लगे हुए है
मुझे भी अब बहुत डर लगता है
यह सोचकर कि कहीं वे
मेरे दोस्तों को भी लाल रंग से न रंग दे।
ऐसे में मैं अब पूरी रात जागता हूं
और बार- बार कमरे से उठकर बाहर झांकता हूं
और देखता हूं अपने पड़ोसी के छत को
तब कहीं जाकर थोड़ी सी तसल्ली मिलती है।
 लेकिन मेरी यह तसल्ली अब बहुत दिन तक मेरे साथ नहीं रहने वाली है
क्योंकि दिल्ली में सुल्तान बैठता है
और उसकी निगाह में पूरी दुनिया उल्लूं है
इसलिए वह लिखवा रहा है अपना पंसदीदा इतिहास
ऐसे में अब मैं
नहीं सोच पाता हूं
अपने मोहल्ले की कहानियों के बारे में
नहीं सोच पाता हूं
जो मेरे दोस्त है वह ताउम्र ऐसे ही रहेंगे।
ऐसे मेंं मैं एक दिन खत्म हो जाउंगा
जैसे खत्म हो रही है
आंगन से धूप।
ऐसे में अब मुझे बुरे- बुरे ख्वाब आते है।
नीतीश मिश्र

Friday 15 May 2015

जिन्दा सपने भी पाए जाते हैं

गौर से देखो !
जरूरी नहीं हैं कि
हर मरा हुआ आदमी मरा  ही हो
कई बार मरे हुए आदमी के पास
जिन्दा सपने भी पाए जाते हैं
इसलिए मैं मरे हुए हरेक आदमी को बहुत गौर से देखता हूँ
और पहचानने की कोशिश करता हूँ
उसके सपनो का रंग
क्योकिं सपनो के रंग में छुपा रहता हैं
देश का इतिहास ।
गौर से देखो जरूरी नहीं हैं कि सभी आदमी मरते ही हो
कई बार मरे हुए आदमी की आँखे बची रहती हैं
जहाँ से हमें मिल सकता हैं
कल के लिए कोई बेहतर रास्ता ॥
नीतीश  मिश्र

Wednesday 13 May 2015

रात भर संभल कर रहना पड़ता है

शाम को जब अंधेरे की एक- एक बूंद
छत पर जमा होती है
जैसे लगता है
दिल में कोई नई बीमारी हो रही है
रात की पहर जब हल्की गाढ़ी होती है
दिल जोर- जोर से धड़कने लगता है
जैसे लगता है कोई दरवाजे का सांकल खींच रहा हो
ऐसे में अब
पूरी रात संभल कर गुजारनी पड़ती है
न जाने किस वक्त रात के पहरे से उठकर बाहर निकलना पड़े
ऐसे में उठता हूं
और निकलता हूं घर से बाहर
और देखता हूं गली के उन लोगों को जो शाम को मेरे साथ लौटे थे
पता नहीं क्यों अब यही लगता है कि
सारा बुरा काम लोग रात को ही करते है
मसलन एक देश की हत्या भी लोग रात को ही किए
और हत्या की बात को आजादी का नाम दे दिया गया
मैं कमरे में देखता हूं इतिहास का वीभत्स रूप
कैसे बहुरूपियों को देशभक्त के तमगे से नवाजा गया था
मैं देखता हूं
जो इतिहास लिखा था उसकी जुबान लोगों ने काट दी थी
रात का सन्नाटा
यही अहसास दिलाता है कि
मैं किसी श्मशान किनारे खड़ा हूं।
पूरी रात संभल कर रहना पड़ता है
न जाने किस घड़ी मेरे परिचितों की मौत की खबर लेकर आ जाए
मैं आज खड़ा हूं नंगे पांव
शायद इसीलिए कि मैं सुनता रहू लोगों के  मरने की खबर
बहुत बुरा वक्त है
जब मेरे अपने मर रहे है और मैं कविता लिखने की फिराक में हूं
पूरी रात
जागते हुए लगता है
मैं अपने बुरे समय पर पहरेदारी कर रह रहा हूं
और खुद को तैयार क र रहा हूं
मैं भी अब मरने वाला हूं
मेरे लिए सबसे बुरा दिन वही होता है
जिस दिन मैं सुनता हूं
मेरा कोई अपना मर गया
और मैं उसे मरने से पहले देख नहीं पाया
इसलिए सोने से पहले एक बार देश का इतिहास देखता हूं
फिर एक बार देवताओं को देखता हूं
और सोचता हूं
क्या हम आज इसीलिए जी रहे ताकि सुन सके
अपने आस- पास कौन लोग बचे हुए है।
अब मैं रात भर संभल कर रहता हूं
न जाने किस वक्त कौन सा बच्चा बस की चपेट में आकर मर जाए
या गली की लड़की को कोई उठाकर चला जाए
सिर्फ पीड़ाओं के बीच खोज रहा हूं एक रास्ता
जिससे खुद को पहचान सकू ।।
नीतीश मिश्र

Monday 11 May 2015

पतंग के पास एक कहानी है

जब भी किसी पंतग को हवा से लड़ते हुए देखता हूं
मुझे लगता है
अभी जमाने में लड़ाई जारी है
भले से इंसान हाथ पर हाथ रख कर बैठ गया हो
लेकिन पंतग अभी भी लड़ रही है
बिजली के तारों से तो कभी लोगों की निगाहों से
पंतग ने
सबसे बड़ा सफर तय किया है
लेकिन  क्या किसी को इस बारे में कु छ मालूम है
कि झूलती हुई पंतग के पास भी एक
कहानी है।
बिजली के तारों में जो पंतग उलझी है
वह आसमान की और धरती की सबसे खूबसूरत पंतग है
क्योंकि इस पंतग  में
अभी तक सुरक्षित है
जमाने की सबसे मुलायम एक प्रेम कहानी
पंतग और उसमें लिपटी प्रेम कहानी
एक साथ हवा के खिलाफ और आसमान के खिलाफ
आवाज उठाती है।
जबकि इस कहानी के सूत्रधार जमाने में नहीं है
लेकिन उनकी प्रेम कहानी जमाने से बाते कर रही है।
जब पूरी दुनिया इतिहास के खाते में
अपना नाम दर्ज कराने के लिए मशगूल थी
उस वक्त केशवनगर गली का एक लड़का
रेहानपुरी मोहल्ले की लड़की इतिहास को छोड़कर
अपने समय का एक और अपने देह राग के इतिहास की खातिर
तोड़ रहे थे परंपराए
और लिख रहे थे हवा में अपनी प्रेम कहानी
उस दौरान पंतग इस कहानी को एक रंग दे रही थी।
जब इतिहास को वे लिए दिए अपने रंग से
और जमाना एक बार फिर देखना चाह रहा था कि धरती पर अभी कहां दाग रह गया है जो साफ नहीं हुआ है
तभी किसी ने बताया कि जमाने के इतिहास पर एक नया दाग लगने वाला है
उसी के बाद इतिहास को रंगने वालों ने
मार दिया केशवनगर को रेहानपुरी मोहल्लें को
उसी दिन से पंतग जमाने के खिलाफ जिंदगी लड़ रही है।
जब भी इस पंतग को हवा के खिलाफ लड़ते हुए देखता हूं
मुझे यह दुनिया की सबसे बेहतर कृति दिखाई देती है।

नीतीश मिश्र

Sunday 10 May 2015

हम कहीं भी होते तो ऐसे ही होते


सुनो नर्मदा!
मैं कहीं भी होता तो ऐसा ही होता
गंगा के पास होता
तब भी मिट्टी के ढेले की तरह
गलता
और किनारे पर रख देता जो कुछ अंदर जमा रहता
आज तुम्हारे पास हूं नर्मदा
तो भी एक ढेले की तरह गल रहा हूं
यह अलग बात है कि मैं अपने गलने को गलना या पिघलना नहीं कह पाता हूं
आज भी जब तुम्हारे किनारे खड़ा होता हूं
यही लगता है कि अभी- अभी कुंऐ से निकलकर सीधे आया हूं
मैं कहीं भी होता
टूटती हुई पंतग के पीछे कोसो भागता
या सुग्गे को देखकर दौड़ जाता
या उसकी भाषा में कुछ देर के लिए खुद को रंगता
मैं कहीं भी होता नर्मदा
रात को मैं उन्हीं लोगों को देखता
जो शहर में सबसे अधिक सताए हुए लोग है।
मैं कहीं भी होता
तो मेरा होना ऐसा ही होता
जैसे तुम्हारे शहर में हवा का आना और जाना होता है।
क्या मेरे ऐसे होने को तुम होना समझ जाती हो नर्मदा।।
नीतीश मिश्र

मैं सपनों के साथ जागता हूं

जब पूरी दुनिया सपनों के साथ सोती है
तब मैं अपने सपनों के साथ जागता हूं
कुछ इस तरह से जैसे मेरे अंदर सोये हुए शब्द जाग गए हो
शाम को जब भी आसमान में सूरज डूबता है
आकाश का रंग अंहकार से भर जाता है
जब भी कोई चिड़िया आकाश के खिलाफ उड़ान भरती है
कुछ देर के लिए आकाश सिमट जाता है
ऐसे में रंगती है
ढेबरी कुछ देर के लिए ही सही अंधूरे आकाश को
फक़त कुछ इस तरह
जैसे नमक रंगता है अंदर ही अंदर दाल को
शाम को जब रंगों का कारोबार सिमट जाता है जिंदगी के बज्म से
सब लोग दौड़ पड़ते है
अपने- अपने हिस्से के अंधेरे की ओर
ऐसे में कहीं दूर से एक आवाज आती है
और आवाज खो जाती है किसी बियाबान में
चारों ओर एक घुप्प अंधेरा सा
ऊपर से एक मुलायम ख्वाब
दुबुक जाता है कहीं ठंड की मार से
धीरे- धीरे सपने जब आंख खोलते है
ऐसे लगता है
जैसे सपनों ने छेड़ दिया हो अंधेरे के खिलाफ जंग
धीरे- धीरे मैं पहाड़ियों से नीचे उतरता हूं
और पहुंच जाता हूं सुनने के लिए कराहती हुई नदी की आवाज को
बहुत देर तक नदी के पास बैठा रहता हूं
और सुनता हूं नदी की पीड़ा
ऐसे में कहीं दूर से एक पत्ते की आवाज आती है
नहीं रहने वाली है
ये मुश्किले!
और मैं चल देता हूं सड़क के पास
जिसे अभी जागना है।।
नीतीश मिश्र

औरत अभी जीवित है

वह औरत
जिसे अभी- अभी ट्रक ने कुचल दिया है
लोगों के लिए वह मर चुकी है
लेकिन कहीं न कहीं सड़क पर जो औरत मरी है
वह अभी जीवित है।
जीने और मरने के बीच
औरत छोड़ चुकी है देह से अपनी आत्मा
लेकिन अभी भी फूलों के बीच उसकी उपस्थिति बरकरार है
अपनी अंधूरी इच्छाओं के बीच
आज भी औरत को
मैं हंसते हुए पाता हूं
मरी हुई औरत की उपस्थिति
उसके बच्चों के बीच ठीक उसी तरह से है
जिस तरह फूलों के बीच रंग की उपस्थिती रहती है।
शहर में खबर फैल गई कि
श्यामनगर की वह औरत मर गई
जो फूलों को पानी देती थी
लेकिन जब मैं फूलों के बीच जाता हूं
तो मरी हुई औरत फूलों के रंगों के बीच हंसती हुई दिखाई देती है।
कई बार लोगों का मरना
मरना ही नहीं होता है।।
उस औरत की उपस्थिति दर्ज की जाएगी
चूल्हों के बीच
अनाजों के बीच
जिसकों उसने एक नया आकार दिया है।
मैं देख रहा हूं
मरी हुई औरत की उपस्थिति धूपों के बीच।।
नीतीश मिश्र

मैं नहीं जा पाता हूं मां के पास

मैं नहीं जा पाता हूं
अपनी मां के पास
जब भी किसी रास्ते पर पांव रखता हूं
गुजरात पहुंच जाता हूं या फिर अयोध्या
हर बार लगता था कि
मैं किसी गलत रास्ते पर आ गया हूं
लेकिन जब दूसरे के साथ जाता हूं
गुजरात या बनारस पहुंच जाता हूं
दुनिया में कोई ऐसा रास्ता अब शायद नहीं है
जिस पर चलते हुए मैं अपने घर पहुंच सकूं
क्योंकि अब सारे रास्ते उन्हीं के घर की ओर जाते है।
मैं यहां से देख रहा हूं
या तो पुरी दुनिया गुजरात हो रही है
या फिर अयोध्या या फिर काशी
मैं सपनों में भी नहीं देख पाता हूं अपने घर का रास्ता
क्या अब दुनिया ऐसे ही लोग रहेंगे
जो केवल अपने घर के लिए रास्ते बनाएगें।
मैं यहां से देखता हूं
अब सारी हवाएं गुजरात में बहती है
अब सारी धूप बनारस में खिलती है
सारा वसंत दिल्ली मेंं चमकता है
सारी बरसात अब मथुरा में होती है।
मैं नहीं जा पाता हूं
अपने घर
जहां से मैं देख सकूं
कि मैं जिंदा हूं या मेरे सपने।।

नीतीश मिश्र

Tuesday 28 April 2015

औरत जब नींद से जागती हैं

मेरे लिए
या शहर के लिए या घर के लिए
सूर्योदय तभी होता हैं
जब गांव या शहर की आखिरी महिला नींद से जागती हैं
एक स्त्री का नींद से जागना इतिहास की एक बड़ी घटना हैं
लेकिन सबसे अधिक शर्मनाक बात यह हैं की
इस घटना का जिक्र हमारे इतिहास के पन्नो में कहीं नहीं हैं
आखिरी स्त्री जब नींद  जागती हैं
तभी आसमान से साफ होता हैं धूल
तभी हवाओं में सुनाई देती हैं
अपनी हर आवाज
जब आखिरी औरत जागकर हसंती
तभी रंगरेज घोलता हैं
शब्दों में रंग
और रंग में शब्द
आखिरी औरत का नींद से जागना
सूचित करता हैं
अभी भी हम कुएं में ही हैं ॥
औरत जब नींद से जागती हैं
और बैठ जाती हैं रंगने
चूल्हे को
पुराने बर्तनो को जो अक्सर खो देते हैं अपना अर्थ
औरत जब नींद से जागती हैं
और सोचती हैं रोटी के बारे में
और बनाती हैं तवा पर रोटी
और सोचती हैं उस किसान के बारे में
जिसका चेहरा रोटी में दिखता हैं। ।

नीतीश  मिश्र

Wednesday 22 April 2015

दंगे के बाद की सुबह


दंगे के बाद की सुबह
बहुत बदबुद्दार थी
आज सुबह -सुबह ही पता चला
आदमी सबसे ख़तरनाक होता हैं
क्योकि वह उठा लेता हैं एक समय के बाद
अपनो के खिलाफ हथियार .....
ऐसा नहीं की इस शहर मे
मेरा पहली बार आना हो रहा हैं
इसके पहले मैं जब यहाँ आया
हर बार यही लगा की
इस शहर की सबसे अधिक खूबसूरत होने की वजह एक ही हैं
क्योकि इस शहर मे बचे हुए हैं
प्रेमी -प्रेमिका !
इस शहर के पास हैं
बहुत सारी कहानियाँ हैं
लेकिन आज सुबह यही लग रहा था की
मर गया शहर और जिंदा हो गई मंदिर
और जिंदा हो गई एक मस्जिद
अब शहर मे जब कभी आउँगा
तो नहीं दिखाई देगी
चाय की कोई दुकान
जहाँ से मैं देख सकूँ
की तुम्हारा ईश्वर कैसा हैं ||

नीतीश मिश्र

अब खबर नहीं आती

सूरज के जागने से पहले
मुर्गा के होंश संभालने से पहले
नदी के सुंदर होने से पहले
हम लोगो के पास खबर होती थी
त्रिलोकी की!
और त्रिलोकी के पास खबर होती थी दुनियाँ जहाँ की
त्रिलोकी ने एक दिन
पूरे गाँव के सामने डंके की चोट पर कहा था -
कि इस दुनिया का सबसे कायर आदमी पढ़ा -लिखा व्यक्ति ही होगा !
उस दिन पूरे गाँव ने कहा था की
त्रिलोकिया पागल हो गया हैं ....
लेकिन ! मैने त्रिलोकी की आँखो मे देखा था
इतिहास को घूमते हुए ....
धरती को रोते हुए ....
पेड़ो को इंतजार करते हुए ....
बाँसुरी को मौन होते हुए ||
त्रिलोकी आख़िरी बार बोला था मुझसे
जब यह दुनिया बन रही थी
तब मैं बनती हुई दुनिया का साक्षी था
और अब ये दुनिया मर रही हैं
और तुम मरती हुई दुनिया के अवशेष हो ||
त्रिलोकी और मेरे बीच का यही संवाद आख़िरी था
शायद यह हम लोगो के बीच का एक सेतु था
जो अब टूट गया हैं या बिखर गया हैं
लेकिन इतना तो तय हैं
मेरे पास अब वैसी ख़बरे नहीं आती हैं
जैसी ख़बरे त्रिलोकी मुझे सुनाया करता था
त्रिलोकी के चलते ही मैं यह बात जान सका
की दिल्ली देवताओ का कबाड़खाना हैं ||

नीतीश मिश्र

मैं डरता हूँ

अब मैं डरने लगा हूँ
सपने मे भी ....
क्योकि मैं जान गया हूँ
कभी भी मेरा चूल्हा
मेरी सायकिल
मुझे छोड़कर जा सकते हैं
अब मैं सपने मे देखता हूँ
मेरी कुर्सी टूट रही हैं
मेरी कितबे फटनी शुरू हो गई हैं
मेरी विचारधारा को दीमक चाटना शुरू कर दिया हैं
अब मैं डरने लगा हूँ
जिस लड़की के लिए कल तक मैं सपने देखता था
वह कहीं और मूर्त हो रही हैं
शायद ! अब अंत की शुरूवात हो गई हैं ||

नीतीश मिश्र

किताबों की दुनिया

जब एक बार सब कुछ खत्म हो गया था
यहां तक की एक मुलायम संभावना भी
और मैं नहीं देख पा रहा था
आसमान के दरिया में कोई अपने लिए कोई हरा रंग
इसके बावजूद भी मैं चल रहा था......
और मेरे पास बची थी सिर्फ एक किताब.....
जिसमें न तो मेरा कोई इतिहास था और न ही मेरे नाम का कोई उल्लेख
इसके बावजूद भी मैं अपने साथ किताब को ढो रहा था
कभी- कभी हवा के झोंकों के बीच मैं और मेरी किताब अदृश्य भी हो जाती थी
लेकिन! दूसरे ही पल हम दोनों की मौजूदगी ऐसे होती थी
जैसे हम रेल की पटरियां है जो शुरू से लेकर अंत तक साथ चलते रहेंगे
भले ! से मंजिल का रास्ता बदलता ही क्यों न हो?
मुझे लगता है
समय के अंतिम छोर पर सब कुछ खत्म होने के कगार पर होगा
उस समय भी एक किताब बची रहेगी
जिसके माध्यम से मनु लिखेंगे
समय चक्र का इतिहास।
मुझे लगता है जब किताबे बची रहेगी
तो सब कुछ बचा रहेगा
मसलन इन किताबों तक आऐंगे दीमक
और जहां दीमक आते है
वहां संगीत का हस्तक्षेप खद -प खुद बढ़ जाता है
जब संगीत होगी
तब किताबों में उतरेगा नीला सा आसमान
और बहुत सारे रंग।
जब ये किताबे बची रहेंगी तो
आऐंगे पेड़ और खोजेगें इसमें अपना पुराना अस्त्वि का विरल सा कोई राग
किताबों का बचना समय के बचने का एक सच है।।
नीतीश मिश्र

ये दुनिया कहीं तुम्हारी तो नहीं है


जिस तरह से मेरे सामने
तुम मेरी दुनिया को बदल रहे हो
उससे लगने लगा है कि
अब ये दुनिया पूरी तरह से तुम्हारी हो चुकी है
तुम कुरूक्षेत्र में भी इस बात पर जोर देते थे
जिस दिन मैं लोकतंत्र में युद्व जीतना शुरू करूंगा
उसी दिन से दुनिया को अपने रंग में रंगना शुरू कर दूंगा
तुम्हारे ईश्वर का जितनी बार अवतार नहीं हुआ
उससे ज्यादा तुम उनका विस्तार कर दिए
शायद! इसी के चलते अब नहीं होता तुम्हारे यहां किसी देवता या देवी का अवतार
तुमसे बेहतर भला कौन जानता है?
देश में जितनी बड़ी संसद है
उससे कहीं बड़ा तुम्हारे देवताओं का मंदिर है
और तो और अब हर रोज एक नया मंदिर बन रहा है
तुम खुद सोचों
जब थोक के भाव इस तरह से मंदिर और देवता बनेंगे
तो मस्जिद और गिरजाघर में रहने वाले लोग तो तुमसे डरने लगेंगे।
अब तो आलम यह है कि
आसमान में उड़ता हुआ परिंदा भी सांस लेने के लिए
किसी साख पर नहीं बैठता
वह तब तक उड़ता है जब तक उड़ते हुए वह मर न जाए।
गिरजाघर और मस्जिदों में चलने वाली सांसे
इस कदर सहम गई है कि वह जिंदा रहने के लिए
अब तुमसे भीख मांगती है।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये दुनिया अब तुम्हारी हो गई है
इसलिए तुम लोगोंको घर वापसी करने में लगे हुए हो।
चारों ओर जिस तेजी से तुम्हारा लाल रंग फैल रहा है
उससे अन्य रंगों का आयतन और घनत्व दोनों कम होता जा रहा है
यह तुम्हारा समय है और रंगो के खत्म होने का भी यही समय है।।

नीतीश मिश्र

वे मेरे रंग की हत्या कर रहे है


मैं बहुत खुश था
जितना आसमान अपने नीले रंग के साथ
उतना ही खुश मैं अपने हरे रंग के साथ था,
मैंने, कभी आसमान से उसका हरा रंग नहीं मांगा
और न ही कभी ललक हुई कि
अरसमान से मैं कुछ रंग चुरा लूं
क्योंकि मुझे यह सिखाया गया था
हर व्यक्ति अपने- अपने रंग के साथ खुश रहता है
और अपने रंग में ही खोज लेता है
अपनी मुक्ति
लेकिन मेरा विश्वास टूट गया
जब उन्होंने मेरे सामने खड़ी हरे रंग की इमारत को
लाल रंग से रंग दिए
यह कहते हुए कि तुम अभी देश का इतिहास नहीं जानते हो
उसी दिन से मैं अपने रंग के साथ आसमान से दूर
और धरती के किसी कोने में सिमटा हुआ हूं
क्योंकि मेरे चारो ओर एक ही हवा बहती है
जिसमें सुनता रहता हूं
कि वे लोग कभी भी मेरे जिस्म के हरे रंग को
लाल रंग से रंग देंगे।
क्योंकि उनके पास लाखों हाथ है
और रंग बनाने वाली कई सारी मशीन है
जबकि मेरे पास एक ही रंग है हरा
वह भी तबका जब मैं पैदा हुआ था।
मुझे डर लग रहा है कि वे कभी भी मुझये मेरा हरा रंग छीन लेंगे
और घोषित कर देंगे
देखों मैंने हरे रंग को डर में मिलाकर गाढ़ा लाल रंग तैयार किया है।
क्योंकि अब धरती और पानी भी लाल रंग का होता जा रहा है।
मै अपने जिस्म पर पड़े हरे रंग से हर रोज माफी मांगता हूं
क्योंकि मैं इस रंग को अब बचा नहीं पा रहा हूं
क्योंकि आज की दिल्ली रंगों को बदलने वाली हो चुकी है।।

नीतीश मिश्र

कविता में नहीं रचता हूँ ईश्वर

अब मैं कविता में
नहीं रचता हूँ
कोई ईसा ईश्वर
जो कभी कविता मे सखा बना हो
अब मैं नहीं सोचता हूँ किसी ऐसे ईश्वर को
जिसके नाम से एक विशेष युग रहा हो
अब मैं जब भी ईश्वर के बारे मे
सोचता हूँ
वह मेरे सामने गुनहगारो की तरह खड़ा हो जाता हैं
अब मैं नहीं सोचता हूँ उस ईश्वर के बारे मे
जिसकी दया पर लोग कविता लिखना सिख लिए ||

नीतीश मिश्र

हमे सोचना होगा

अब हमे सोचना होगा
गाँव के बुडे बरगद के बारे में
आमो के पेड़ो के बारे में
घर में खाली चारपाइयो के बारे में
बगीचो के बीच बनती हुई दरार के बारे में
हमे सोचना होगा
अब गाँव मे कोई ऐसा बुजुर्ग नहीं बचा हैं जिसे
बच्चे दादा कह सके
हमे सोचना होगा
गाँव के धूप के बारे मे
घर के आँगन के बारे में
अब हमे सोचना होगा
नहीं तो ख़त्म हो जाएगा गाँव
हमे सोचना होगा
की अब क्यों नहीं कोई गौरेया हमारे घर मे
अब क्यों नहीं आता कोई भिखमंगा घर पर
अब हमे सोचना होगा
गाँव मे ऐसी कोई जगह नहीं हैं
जहाँ भूत रहते हो
अब हमे सोचना होगा गाँव की लड़कियो के उदासी के बारे मे ||

नीतीश मिश्र

रात अब चुप -चाप आती हैं

रात अब चुप -चाप आती हैं
और सिरहाने बैठ जाती हैं
और सुनने लगती हैं मेरे जिस्म से निकलती हुई आवाज़ को
चाँद पूरी रात
अपनी रोशनी पर पहरेदारी करता हैं
और मेरी आँखो से सपने निकलकर
दूधिया रोशनी मे जुगनू की तरह आँखमिचोली करने लगते हैं
ऐसे मे सुनाई देती हैं
बकरियो की मिमियाती हुई आवाज़
जो बताती हैं
दिन भर की दास्तां की किस झाड़ी में कब किस बच्चे की पतंग फँस गई थी
तभी नीले गुंबद से आसमान को देता हैं कोई आवाज़
मानो धरती से कोई बुला रहा हैं
बादलो मे छुपे हुए चेहरो को
ऐसे में कब आँगन मे एक हल्की सी धूप उतर जाती हैं
और मैं आसमान से लेकर एक ख्वाब चल पड़ता हूँ मैदान की और ||

नीतीश मिश्र

समय क्या तुम बता सकते हो

समय क्या तुम बता सकते हो
आज मेरे जूते पहले की तरह क्यो नहीं सुंदर हैं?
जबकि जूता लेते वक्त समय ही साक्षी था
समय क्या तुम बता सकते हो
आज नदियाँ क्यो नहीं सुंदर हैं
जबकि मैं नदी से जब पहली बार मिला था
तब नदी ने ही कहा था
मैं तुम्हारे अंत से के बाद ही मरूँगी
जबकि आज मैं जिंदा हूँ
और नदी बीमार ....
समय क्या तुम बता सकते हो
एक घर समय रहते ही खंडहर मे बदल जाता हैं जबकि एक मूर्ति समय के बाद भी जिंदा रहती हैं ||

समय अब तुम्हे बताना होगा
मेरे जूते आज क्यो नहीं सुंदर हैं ||
नीतीश मिश्र

बचे हुए दिनो में देखने को मिल सकता हैं प्यार

क्या इन बचे हुए दिनो में
देखने को मिल सकता हैं
एक भिखमंगे को मिल गई अपनी मंज़िल
या एक बौने ने
धरती के किसी कोने मे लिख दिया हैं अपना प्यार
क्या बचे हुए दिनो मे सुना जा सकता हैं
दादी की वह आवाज़
जिसे घर के दरवाजे भी सुनकर डरते थे
क्या बचे हुए दिनो में कभी लौटकर आएगा डाकिया
और सुनाएगा बाबूजी का अब वेतन बढ़ गया हैं
क्या बचे हुए दिनो मे देखने को मिलेगा
गाँव मे कोई नया बगीचा तैयार हो रहा हैं
क्या बचे हुए दिनो में हम केवल अयोध्या की डरावनी कहानी सुनेंगे ||
क्या हमने इसलिए अपने दिन हिफ़ाज़त से बचाकर रखे हुए थे ||

नीतीश मिश्र

आज शहर बहुत उदास हैं


आज शहर बहुत उदास हैं
शहर की गलियों में फैल चुकी हैं गंदगी
मकानों पर बन रहा हैं गुंबद जालो का
शहर खो रहा हैं
धीरे धीरे अपना स्वाद ....
और मैला हो रहा हैं
शहर का इतिहास ....
शहर की आत्मा धीरे धीरे फटने लगी हैं कई जगह से ...
शहर के होशियार लोग हो रहे हैं नपुंसक....
बच्चे बनते जा रहे हैं बहुरुपिया
धीरे -धीरे शहर के उपर का चमकता हुआ सूरज डूब रहा हैं
शहर के देवता मंदिरों से कर रहे हैं पलायन ....
लड़कियो ने बंद कर दिया हैं जाना स्कूल
नदियो मे नहीं उतरती हैं अब नाँव
आसमान मे कोई नहीं देख रहा हैं इंद्रधनुष
शहर से जा रहे हैं एक एक करके सब फ़क़ीर ....
शहर से ख़त्म होती जा रही हैं प्रेम कहानियाँ ....
अब दूसरे शहर से नहीं आते हैं यहाँ पर जानवर
अब शहर के देह पर नहीं उतरता हैं कोई अंधेरा ....
क्योकि शहर मे रो रही हैं लड़कियाँ ....
लड़कियाँ बंद हैं सदियो से हुकूमत के रंग में
शहर उदास हैं ....
क्योकि शहर मे रहने वाली लड़कियाँ
वर्षो से उदास हैं
इसलिए शहर अब मर रहा हैं
क्या किसी को मालूम हैं
यह शहर अब बीमार हो चुका हैं ||

नीतीश मिश्र

सड़्क पर आदमी सोया हैं

सड़्क पर एक आदमी ऐसे सोया हैं
जैसे वह सोते _सोते आकाश में कुछ खोज रहा हैं
वह खोज सकता हैं कुछ चिल्लर पैसे
या पतंग
या घायलो का पता
सड़्क पर सोया आदमी घंटो से करवट नहीं लिया हैं
वह आकाश को बताना चाहता हैं
इंसानो के फिदरत मे नहीं होता हैं करवट बदलना
वह सोए -सोए एक दिन ऐसे गुम हो जाएगा
जैसे गुम हो जाते हैं
हमारे जेहन मे रखे हुए शब्द
सड़्क पर सोए हुए आदमी को नहीं चिंता हैं
कि उसे ऐसे मे देखकर लोग क्या सोचेंगे
या हवा या धूप क्या सोचेगी
सड़्क पर सोया हुआ आदमी कभी -कभी आँखे उठाकर देखता ज़रूर हैं
पर उसकी आँखो मे नहीं बनती किसी की तस्वीर
गोया आदमी के साथ -साथ आदमी की आँखे भी अब विश्वास करना छोड़ दी हैं
सड़्क पर सोया आदमी एक दिन खो जाएगा
और वहाँ पर रहेगी कुछ रिक्तता जिसे
समय भी नहीं भर पाएगा
बहुत होगा तो कभी एक बच्चा इस जगह से गुजरेगा
और उसे सुनाई देगी सोए हुए आदमी की आवाज़
और बच्चा एक बार फिर खड़ा होगा सोए हुए आदमी को खोजने के लिए
बच्चा जब खोजकर थक जाएगा
और नहीं पाएगा कहीं सोए हुए आदमी को
तब बच्चा लिखेगा एक कविता ||

नीतीश मिश्र

वह बना रही है अपने लिए जगह


उसे मालूम है
भले से वह खिड़कियों के बीच से
देख रही रंगों को
उसे मिलना है एक बार कम से कम एक बार
धूले हुए आकाश से
रंगी हुई हवा से
आस्था से युक्त मंदिरों की मूर्तियों से
इसलिए वह बना रही है अपने लिए एक जगह
और साफ कर रही है आसमान को
हवा को
फूलों को
दरिया को
वह उड़ना चाहती है
और फर्क महशूस करना चाहती है
खुली हवाओं और कमरों के बीच बंद हवाओं के बीच
वह फर्क महशूस करना चाहती है
घर के पानी और नदी के पानी के बीच
वह देखना चाहती है
अयोध्या और गुजरात की मिट्टियों को
वह देखना चाहती है अलीगढ़ और बनारस की रात में भला क्या फ र्क होता है।
वह देखना चाहती है
क्या सचमुच में रात को दिल्ली का रंग डाइनों की तरह हो जाती है
वह देखना चाहती है
खादी के भीतर आत्मा रहती है या किसी का शरीर
इसलिए वह जगह बना रही है
जिससे वह उड़ सके
और बता सके
कि सागर के किनारे जो धरती खाली है वह भी सागर के विरूद्ध जेहाद करना चाहती है।।
नीतीश मिश्र

अभी बचा हुआ हैं शहर


अभी बचा हुआ हैं शहर
और आगे भी बचा रहेगा ....
क्योंकि अभी -अभी
मैंने शहर मे देखा हैं
छत पर एक लड़की को हँसते हुए ...
एक लड़की का हँसना बहुत ही शगुन भरा होता हैं
वह भी उस समय जब शहर की दीवारो पर अंधेरे का कब्जा हो
और शिकारी निकल पड़े हैं शिकार करने
ऐसे मे जब शहर मे तमाम कवि
अपनी कायरता को ओढकर लिख रहे हैं कविता
पंडित भविष्य के नाम पर लूट रहे हैं
डॉक्टर बीमारी का बहाना बनाकर
कर रहा हैं आत्मा की हत्या ....
ऐसे मे जब एक लड़की हँसती हैं
तो यही लगता हैं की अभी शहर मे फिरसे जलेगा एक चूल्हा
और
तैयार होगा एक मोची
और बनाएगा आदमी के पाँव के नाप का जूता ||

नीतीश मिश्र

Tuesday 24 March 2015

सबसे बुरी खबर

संसार की
सबसे  बुरी खबर
आज मेरे सामने खड़ी थी ……
एक प्रेमपत्र का खो जाना
जैसे ही यह खबर मेरे पास आई
और मैं अंदर ही अंदर हंसने लगा
यह सोचकर
कि वह व्यक्ति तो मर गया होगा
जब उसे मालूम हुआ होगा
की चोरी में किसी ने प्रेमपत्र को भी चुरा लिया। ।
प्रेमी रात भर शहर के सभी प्रमुख चौराहों पर घूमता रहा
और देखता रहा
सड़क पर पड़े हुए
तमाम कागजो के टुकड़े को
इस उम्मीद से कहीं मिल जाये उसे अपना प्रेमपत्र
लेकिन नहीं मिला !
थक हारकर वह रोने लगा
और कहने लगा
की जब इस दुनिया का इतिहास लिखा जायेगा तो
क्या कहीं दर्ज किया जायेगा इस घटना को ?
एका -एक वह अँधेरे की दीवार को उठाता हुआ मेरे पास आया
और कहने लगा
मैं बहुत बीमार हूँ
बहुत पूछने पर बताया
की खो गया हैं प्रेमपत्र
मुझे लगा आज के समय की यह सबसे  बुरी खबर हैं ॥

Saturday 21 March 2015

आभासी दुनिया में रहते हुए हम भूल रहे हैं प्यार करने की ताकत

आभासी दुनिया में रहते हुए
हम सिर्फ आभासी बनकर रह जाएंगे
और एक दिन ……
हमारे पास नहीं बचेगी
प्यार करने की ताक़त
एक दिन ख़त्म हो जाएगी
प्रेमपत्र लिखने की आदत.…
एक दिन छीन लेंगें वे
हमसे रोने की प्रवृत्ति ....
बुनी  जा रही हैं हमारे चारो और ऐसी साजिश
की हम भूल जाएँ
अपने पड़ोस में रहने वाले अब्दुल चाचा को
हम भूल जाये
दीनानाथ दर्जी  को
हम भूल जाये गांव के मजदूरो को
हम आभासी दुनिया में
बचे रहेंगे
सिर्फ आभासी संवाद करने लायक
और वे हमारे यहाँ आएंगे
और छीन लेंगे हमसे
हमारा कुंवा
हमसे हमारा त्यौहार
और हुनर
और घोषित कर देंगे
हिंदुस्तान फिर गुलाम हो गया ....
यदि हमको बचाना हैं कुछ
तो हमें मिटटी के दर्द को पहचानना होगा ।
और हर आदमी के चेहरे में अपना चेहरा खोजना पड़ेगा
और लिखना होगा प्रेमपत्र
नहीं तो
हम अपनी आत्मा की कोठरी में बैठकर
जलाएंगे एक दिया
और खोजेंगे अंधेरें में एक संभावना
और लिखेगें मृत्यु पर शोक गीत ॥

नीतीश मिश्र

Tuesday 17 March 2015

हम पहरेदार नहीं हैं

हम सदी के शुरू लेकर
अंत तक …
लिखते आ रहे हैं
या सुना रहें हैं
प्रेम की दास्ताँ
या अपनी आत्मकथा
और एक समय के बाद घोषित कर देते हैं
हम सदी के पहरेदार हैं ।
यदि सही में हम पहरेदार होते
तो आज हम कुरुक्षेत्र में पराजित नहीं होते
या उसके दुष्चर्क के पीछे -पीछे नहीं भागते
लेकिन ! हम पहरेदार नहीं हैं
एक पिजड़े में बंद एक सुग्गा भर हैं ॥
हमारे बीच पहरेदार तो वह हैं
जो अपनी आवाज को पहचानता हैं
या जो सदी का एक सेतु हैं ॥

नीतीश  मिश्र
 …

मैंने सीखा हैं

मैंने चींटियों से
कभी दीमकों से
सीखा हैं…
एक घर के अंदर एक घर बनाना
जिससे बचा रहे ……
दंगें में
हमारा एकांत का सेतु
हम सब कुछ गँवा कर
एक बार
सिर्फ एक बार
पानी की तरह हँस सके
क्योकि हमने सीख लिया हैं
बचाना
अपना एकांत
जहाँ महकता हैं हमारा स्पर्श ॥
नीतीश  मिश्र

Monday 23 February 2015

बुनकरों ने घोषित किया हैं

बुनकरों को पहले ही मालूम हो गया था
आने वाली सदी में
नहीं दिखाई देंगे
कहीं फूल....
कहीं पत्तियां....
कहीं झरने
कहीं हिरन तो कही जंगल ....
बुनकरों को अंदाजा हो गया था
मनुष्य ही करेगा अपनी सभ्यता की हत्या !
इसलिए उन्होंने कपास के धागे में रफू किया था
कोई फूल , कोई झरना ,  कोई पेड़
बुनकरों ने बुना था धागे में हमारे लिए एक विशेषण
हत्यारे का ! हत्यारे का !
आज हमें एहसास   न हो लेकिन बुनकरों ने पहले ही घोषित का दिया था
हम इस सभ्यता के एक हत्यारे हैं !
आज मैं जब भी अपनी कमीज पर कोई रफू किया हुआ फूल देखता हूँ
मुझे फूल में बुनकरों की आँख दिखाई देती हैं
जो कहती हैं तुम कमीज नहीं
प्रकृति की हत्या करके उसकी आत्मा पहने हो ॥

नीतीश मिश्र

Monday 12 January 2015

माँ के बाद

माँ के बाद ....
मेरा कोई कुशल क्षेम चाहता हैं
या मेरे भविष्य के लिए चिंतन करता हैं
तो वह हैं ----
मेरे कमरे की दीवारे
खिड़कियां ……
और मेरे जूते -चप्पल
मेरी तौलियां …।
मेरी माँ के बाद कोई मेरा रास्ता देखता हैं
तो वह हैं ……
वह हैं मेरे कमरे में रखी कुर्सियां
दीवारो पर रखा  हुआ आईना
और ताखे पर रखी हुई लालटेन ।
माँ के बाद कोई मुझसे बात करता हैं
तो वह हैं …
झाड़ू
चूल्हा …
बर्तन
माँ के बाद कोई मेरा बोझ ढोता हैं
तो वह हैं कमरे में रखा हुआ मेज ॥

नीतीश  मिश्र

Wednesday 7 January 2015

मैं आज सुन्दर इसलिए हूँ

अब मैं सपना बहुत खूबसूरत देखता हूँ ....
जंगलों में भी एक नया रास्ता बना लेता हूँ
अजनबी शहरों में भी
अपना कोई न कोई परिचय निकाल  लेता हूँ....
हामिद और मकालू में भी
अपना चेहरा ढूंड लेता हूँ
मंदिर / मस्जिद से अलग होकर
अपना एक मकान  बना लेता हूँ …
क्योकि मेरी माँ बुढडी हो गई हैं ।
मैं अब गहरे पानी में तैर लेता हूँ
क्योकि माँ के चेहरे पर अब पसीने नहीं आते
अब मैं हँसना भी सीख लिया हूँ
अब मुझे कोई बीमारी भी नहीं होती
क्योंकि माँ के शरीर में
जगह -जगह जख्मों ने सुरक्षित स्थान बना लिया हैं
मेरी माँ उम्र के अंतिम सीढ़ियों पर खड़ी हैं
और मैं सुन्दर हो गया हूँ ……

एक दिन शहर के बीचो बीच
मुझे एक डॉक्टर ने रोक लिया
और धिक्कारते हुए मुझसे कहता हैं
तुम होशियार और सुन्दर इसलिए बने हो
क्योंकि कहीं बहुत दूर खटिये पर तुम्हारी माँ खांस रही हैं ॥

नीतीश  मिश्र