सुनो नर्मदा!
मैं कहीं भी होता तो ऐसा ही होता
गंगा के पास होता
तब भी मिट्टी के ढेले की तरह
गलता
और किनारे पर रख देता जो कुछ अंदर जमा रहता
आज तुम्हारे पास हूं नर्मदा
तो भी एक ढेले की तरह गल रहा हूं
यह अलग बात है कि मैं अपने गलने को गलना या पिघलना नहीं कह पाता हूं
आज भी जब तुम्हारे किनारे खड़ा होता हूं
यही लगता है कि अभी- अभी कुंऐ से निकलकर सीधे आया हूं
मैं कहीं भी होता
टूटती हुई पंतग के पीछे कोसो भागता
या सुग्गे को देखकर दौड़ जाता
या उसकी भाषा में कुछ देर के लिए खुद को रंगता
मैं कहीं भी होता नर्मदा
रात को मैं उन्हीं लोगों को देखता
जो शहर में सबसे अधिक सताए हुए लोग है।
मैं कहीं भी होता
तो मेरा होना ऐसा ही होता
जैसे तुम्हारे शहर में हवा का आना और जाना होता है।
क्या मेरे ऐसे होने को तुम होना समझ जाती हो नर्मदा।।
नीतीश मिश्र
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