Wednesday 13 May 2015

रात भर संभल कर रहना पड़ता है

शाम को जब अंधेरे की एक- एक बूंद
छत पर जमा होती है
जैसे लगता है
दिल में कोई नई बीमारी हो रही है
रात की पहर जब हल्की गाढ़ी होती है
दिल जोर- जोर से धड़कने लगता है
जैसे लगता है कोई दरवाजे का सांकल खींच रहा हो
ऐसे में अब
पूरी रात संभल कर गुजारनी पड़ती है
न जाने किस वक्त रात के पहरे से उठकर बाहर निकलना पड़े
ऐसे में उठता हूं
और निकलता हूं घर से बाहर
और देखता हूं गली के उन लोगों को जो शाम को मेरे साथ लौटे थे
पता नहीं क्यों अब यही लगता है कि
सारा बुरा काम लोग रात को ही करते है
मसलन एक देश की हत्या भी लोग रात को ही किए
और हत्या की बात को आजादी का नाम दे दिया गया
मैं कमरे में देखता हूं इतिहास का वीभत्स रूप
कैसे बहुरूपियों को देशभक्त के तमगे से नवाजा गया था
मैं देखता हूं
जो इतिहास लिखा था उसकी जुबान लोगों ने काट दी थी
रात का सन्नाटा
यही अहसास दिलाता है कि
मैं किसी श्मशान किनारे खड़ा हूं।
पूरी रात संभल कर रहना पड़ता है
न जाने किस घड़ी मेरे परिचितों की मौत की खबर लेकर आ जाए
मैं आज खड़ा हूं नंगे पांव
शायद इसीलिए कि मैं सुनता रहू लोगों के  मरने की खबर
बहुत बुरा वक्त है
जब मेरे अपने मर रहे है और मैं कविता लिखने की फिराक में हूं
पूरी रात
जागते हुए लगता है
मैं अपने बुरे समय पर पहरेदारी कर रह रहा हूं
और खुद को तैयार क र रहा हूं
मैं भी अब मरने वाला हूं
मेरे लिए सबसे बुरा दिन वही होता है
जिस दिन मैं सुनता हूं
मेरा कोई अपना मर गया
और मैं उसे मरने से पहले देख नहीं पाया
इसलिए सोने से पहले एक बार देश का इतिहास देखता हूं
फिर एक बार देवताओं को देखता हूं
और सोचता हूं
क्या हम आज इसीलिए जी रहे ताकि सुन सके
अपने आस- पास कौन लोग बचे हुए है।
अब मैं रात भर संभल कर रहता हूं
न जाने किस वक्त कौन सा बच्चा बस की चपेट में आकर मर जाए
या गली की लड़की को कोई उठाकर चला जाए
सिर्फ पीड़ाओं के बीच खोज रहा हूं एक रास्ता
जिससे खुद को पहचान सकू ।।
नीतीश मिश्र

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