Tuesday 14 June 2016

मेरा जूता बारिश को बुलाता हैं

मुझसे अधिक बारिश का इंतजार 
मेरे जूते  को हैं .... 
आत्मा को कभी कभी 
पानी नसीब हो जाता हैं 
 मेरी सजगता के चलते जूते की प्यास नहीं बुझती 
जूता तभी भींगता हैं 
जब बारिश होती हैं 
मेरा जूता इस वक्त मरने के कगार पर हैं 
इसके बाद भी 
इंद्र को हर रोज ढेंगा दिखाता हैं 
जब मेरा जूता भींगता हैं 
उसके बाद मेरी आत्मा भींगती हैं 
जूता हर रोज आसमान को देखता हैं 
और पूछता हैं इंद्र यही छुपे है॥ 

मैं रेल की तरह सभ्य होना चाहता हूँ

मैं रेल की तरह सभ्य होकर 
तुमसे प्यार करना चाहता हूँ 
मैं रेल की तरह तुम्हारे शहर में सिटी बजाते हुए 
धुंआ  उड़ाते हुए आना चाहता हूँ 
सोचो !
अगर मैं रेल की तरह तुम्हे सभ्य होकर प्यार करूँ तो 
सारा आसमान कुछ देर के लिए तुम्हारे छत पर उतर सकता हैं 
और तुम पूरी रात चाँद में दबी  हुई हरी घास बिनते  रहना 
मैं जानता  हूँ 
अगर ! 
तुम्हारे शहर में 
मैं आत्मा या भाषा बनकर आऊंगा तो कभी भी मार दिया  जाऊंगा 
अगर मैं तुम्हारे शहर में सड़क बनकर आऊंगा 
तो लोग मेरे प्यार का मजाक उड़ाएंगे 
अगर पतंग बनकर आऊंगा तो हवा में ही दफ़न हो जाऊंगा 
जब भी रेल की तरह आऊंगा तो तुम आसमान की तरह मुझसे मिलोगी और कुछ देर के बाद 
हम रोशनी में तब्दील जाएंगे 
मैं अब रेल की तरह  सभ्य होना चाहता हूँ 
तुम केवल आसमान की तरह फैलना  सीख  जाओं ॥ 
नीतीश  मिश्र 

Saturday 4 June 2016

मेरे शहर में हर रोज एक नया कारवां आता है


मेरे शहर में हर रोज एक नया कारवां आता है
पूरा शहर शाम को उत्सव में तब्दील हो जाता है
सड़के बेजान होकर अपने अर्थ को परिभाषित करती रहती है
दीवारे मूक होकर अपने इतिहास पर मंथन करती है
पेड़ एक बार फिर भविष्य बचाने की खातिर  जद्दोजहद करता है
आदमी वर्तमान की आग में सुलगता हुआ राख होता जा रहा है
मंदिरों से रह - रह कर पुरानी खुशबुए आ रही है
जमीन पर नए- नए नक्शे बन रहे है
हर रोज एक नई इमारत की नींव गहरी होती जा रही है
शहर में हर रोज कुछ न कुछ नया होता जा रहा है
और मैं अभी भी पुराने चांद को लेकर बैठा हूं
जहां से मैं तुम्हारे शहर के रास्ते को देख रहा हूं।
तुम भूख को पहनकर नंगे पाव रूई की तरह हवा में दौड़ लगा रही हो
और मैं यहां उदासी की पंतग उड़ा रहा हूूं।
एक सपने रह रह कर अपना अर्थ खो रहे है
इसके बाद भी मैं हर रोज एक नया सपना अपने भीतर जिंदा कर रहा हूं
शायद सपनों के  साथ जीने की आदत हो गई हो मेरी
सही भी है जब विश्वास टूटते है तब सपनों को कई बार पालना जरूरी हो जाता है
सपने धीरे- धीरे मौत की तरफ ले जाते है
और मैं  अपनी मौत के सन्नाटे से देखता हूं
तुम्हारा होंठ जिस पर मेरा खून चिपका हुआ
तुम्हारा यह चेहरा मुझे मानचित्र सा लगता है
जहां मैं अपने अतीत का नक्श देखता हूं
मैं देखता हूं कि मैं तुम्हारे भीतर धूप की तरह पसर रहा हूं
और तुम कपास की तरह खिल रही हो
इस क्रम में बनता है हमारे बीच रेत में एक सेतु
जिस पर पांव तो नहीं पड़ते है लेकिन एक कारवां जो मेरे भीतर जन्म लेता है वह पूरा का पूरा गुजर जाता है
सब कुछ छूटता जाता है
और मेरे शहर में एक अंधेरा फैलने लगता है
मैं उस अंधेरे से बाहर जाना चाहता हूं
लेकिन जैसे ही मैं बाहर जाने की कोशिश करता हूं
वैसे ही एक नदी आकर खड़ी हो जाती है
जहां तुम हाथ बांधे बैठी हुई दिखाई देती हो
मुझे लगता है यह कोई सपना है
इतने में जैसे ही मैं नदी के भीतर उतरता हूं
वैसे ही आसमान का एक टुकड़ा बर्फ की तरह मेरे बदन पर गिरता है
और में दोहरा होकर तुम्हारे साथ एक सपना देखता हूं
जिसे इतिहास बनाने की कोशिश करता हूं
आज इसी सपने को लेकर तुम्हारे शहर में एक रास्ता देख रहा हूं
जिस पर एक बच्ची तुम्हारे जैसे चलती हुई दिखाई दे रही है
मुझे लगता है यह तुम्हारा पुर्नजन्म तो नहीं है।

Friday 3 June 2016

सब कुछ पीछे छूटता जा रहा हैं

सब कुछ पीछे छूटता जा रहा हैं
यहाँ तक की आसमान में खिलता हुआ चाँद 
जिसे मैं तुम्हारे कहने पर रोटी समझकर घूरता था 
आज भी जब कहीं से पतली सी धूप दीवार पर गिरती हैं 
तब तुम्हारा चेहरा दीवार में चाँद की तरह चमकने लगता हैं 
पर मैं इस  बार रोटी समझने का भ्रम छोड़ देता हूँ 
और अपनी हिचकियो को सँभालते हुए 
अँधेरे के वृत्त में फकत रंगता हूँ 
तुम्हारे हाथ को 
जहाँ मेरा खून कभी रिसता  रहता था 
और तुम इसे ख्वाब समझकर हँसती  थी 
जब कभी खिड़की से अँधेरी रात को देखता हूँ 
एक भयानक आवाज सुनाई देती हैं 
और मैं लौट आता हूँ बिस्तर पर 
जहाँ से केवल मुझे भूख दिखाई देती हैं 
इतने में मेरी नजर 
कमरे में बिखरे हुए अख़बार पर पड़ती हैं 
जिस पर मोटे अक्षरों से लिखा हुआ हैं 
दुनिया बदल रही हैं और ख्वाब पुराने हो रहे हैं 
इतने में मेरी सांसे जोर जोर से चलने लगाती हैं 
मुझे लगता हैं मेरा शहर इलाहाबाद कहीं बगदाद तो नहीं हो रहा हैं 
मैं बिस्तर से उठकर 
चाय की पतीली खोजता हूँ 
और दियासलाई की डिबिया से एक तिल्ली निकालता हूँ 
एक पिली चिंगारी के बीच तुम्हारा चेहरा चूल्हे के बीच अड़हुल के फूल की मानिंद खिल उठता हैं 
चाय खौलने लगती  हैं 
और मैं लौट जाता हूँ 
इलाहाबाद  की गलियों में 
और बटोरता हूँ स्मृतियों के संगम से तुम्हारी  टूटी हुई यादें 
इतने में कानो में सुनाई देती हैं तुम्हारी हँसी 
मैं हँसी  की आवाज में खोजता हूँ अपना इतिहास ॥