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जब मेरे पास चेहरा ढकने के लिए
कुछ नहीं था
तब मैं दिशाओं को पहनकर
सृष्टि के हर कोने में पहरा देता था
और अपनी दुनिया और अपनी भाषा से एक संवाद का अटूट रिश्ता बनाया हुआ था
जब कमरे में दीवारे नहीं थी
तब दुनिया बहुत सुन्दर लगती थी
दीवारो के न होने पर दिशाएं कमरे में
मेरे साथ बैठती थी
और सोती थी ।
जब आज कमरे में दीवारे हैं
और दुनिया सिमट गई हैं
आलमारियों में
ऐसे में मुझे लगता हैं की
मैंने अपने आस - पास सभी दिशाओं की एक साथ हत्या करके
अपने कमरे में बैठा हुआ हूँ
अब मुझे दिशाओं की कोई विशेष पहचान नहीं रह गई हैं। .
मैं अब दो दिशाओं को ही
वह भी कुछ देर के लिए ही पहचानता हूँ
एक पूरब और दूसरा पश्चिम को
मैं दीवारो के साथ रहते हुए हत्या कर चुका हूँ दिशाओं का ।