Tuesday 28 January 2014

मैंने दिशाओं की हत्या की हैं


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जब मेरे पास चेहरा ढकने के लिए
कुछ नहीं था
तब मैं दिशाओं को पहनकर
सृष्टि के हर कोने में पहरा देता था
और अपनी दुनिया और अपनी भाषा से एक संवाद का अटूट रिश्ता बनाया हुआ था
जब कमरे में दीवारे नहीं थी
तब दुनिया बहुत सुन्दर लगती थी
दीवारो के न होने पर दिशाएं कमरे में
मेरे साथ बैठती थी
और सोती थी ।
जब आज कमरे में दीवारे हैं
और दुनिया सिमट गई हैं
आलमारियों में
ऐसे में मुझे लगता हैं की
मैंने अपने आस - पास सभी दिशाओं की एक साथ हत्या करके
अपने कमरे में बैठा हुआ हूँ
अब मुझे दिशाओं की कोई विशेष पहचान नहीं रह गई हैं। .

मैं अब दो दिशाओं को ही
वह भी कुछ देर के लिए ही पहचानता हूँ
एक पूरब और दूसरा पश्चिम को
मैं दीवारो के साथ रहते हुए हत्या कर चुका हूँ दिशाओं का ।

सुबह का सूरज

सुबह का सूरज
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सुबह का सूरज मुझे देवता कम
डॉक्टर कुछ ज्यादा लगता हैं
मरीजों के बिस्तर पर बैठकर
त्वचा की नोटबुक पर लिखता रहता हैं ढेर सारी दवाईयां ।

सुबह का सूरज मुझे देवता कम
मास्टर कुछ ज्यादा लगता हैं 
और लोगों की चेहरों की किताबों को खोलकर
उन्हें दिनभर नेक सलाह देता रहता हैं ।
सुबह का सूरज देवता कम
मेहतर कुछ ज्यादा सा लगता हैं
वह भी इतना कुशल मेहतर की एक ही झटके में
घर से लेकर खलियान तक साफ कर देता हैं
सुबह का सूरज देवता कम
धोबी कुछ ज्यादा लगता हैं
और हर आदमी का कपड़ा एक सा धोता हैं

सुबह का सूरज देवता कम
मुझे अपने कमरे की टेबल घड़ी सा लगता हैं
जो दिन भर मेरे लिए एक दिनचर्या बनाता हैं

Monday 20 January 2014

प्यार में हाथ का होना जरूरी हैं
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जब मेरे पास
प्यार और प्रेमिकाएं दोनों थी.....
और दिमाग में बहुतेरे ख्वाब
इतने ख्वाब कि …
अगर सपनों के मामले में
तुलना की जाती तो
सपना देखने वालों के इतिहास में
कहीं मेरे नाम की भी ………
कोई सभ्यता और संस्कृति होती
लेकिन अफ़सोस !
हमारे यहाँ के निकम्मे इतिहासकार
अपने इतिहास में
बिस्तर से लेकर सिंहासन तक की खबर लिख दिये
लेकिन मनुष्यों के सपनों की दुनिया के बारे कुछ नहीं लिख पाये।

जब मेरे पास प्यार और प्रेमिकाएं दोनों थी
तब मेरी पतंग आकाश में न उड़कर
जमीन पर उड़ती थी ……
जब प्रेमिकाएं बहुत पास में होती थी
तब मैं पूरी तरह से नास्तिक हो जाता था
और मुझे मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस से भी नहीं डर लगता था
और न ही अज्ञेय का केशकम्बली रहस्यमयी लगता था
जब प्रेमिकाएं मुझे अपने प्यार के रंग से रंगती थी
तब मेरे पास बुद्ध या महात्मा गांधी बनने ख्याल भी नहीं आता था
और न ही कोई दुःख सालते थे
जबकि दुःखो कि मेरे पास कोई कमी नही थी।

जब प्यार और प्रेमिकाएं दोनों पास में थी
तब किसानी भी बढ़िया से हो जाती थी
और सिर्फ मछली ---भात खाकर
ऐसा लगता था की मैं ही वह आदिपुरुष हूँ
जो कैलाश पर्वत छोड़कर
फिरसे एक नई सभ्यता यहाँ लिखने आया हूँ।
जब प्यार और प्रेमिकाएं दोनों पास में थी
तब अपना टुटा हुआ घर भी
किसी किले कम नहीं लगता था
तब मैं अपने पूर्वजों से संवाद करते हुए कहता था
मैं तुम्हें ऐसा पिंडदान दूंगा
कि तुम श्मशान और प्रेतलोक से बाहर आकर
शहर की कोई मुख्यधारा बन जाओगे।

लेकिन जैसे ही प्रेमिकाओं का जिंदगी से जाना हुआ
शरीर से अकेलेपन के मवाद रिसकर बाहर आने लगे
तब अपनी ही जिंदगी मुझे किसी कि उधार दी हुई कमीज के सलीके सी लगती
जिसे पहनना मेरी मज़बूरी हो गई थी
क्योकि नंगा चेहरा लेकर जिंदगी से लड़ा जा सकता हैं
लेकिन नंगी देह लेकर अपनी जिंदगी से नहीं लड़ा जा सकता हैं
फिर भी मैं जी रहा था
क्योकि मेरे पास यादो का घना बोझ जो था
लेकिन एक हादसे के बाद मैं अपना दोनों हाथ गँवा बैठा था
जब हादसे के बाद मुझे होश आया तो मैं दोनों हाथो के साथ
अपना प्यार भी गँवा बैठा था
यह अहसास तब हुआ !
जब मेरे पास अपने दोनों हाथ नहीं थे
और मेरे सामने खड़ी थी मेरी प्रेमिकाएं
और समुद्र में लगातार सुराख़ किये जा रही थी
और मैं अपनी प्रेमिकाओं के कारनामे को कागज में दर्ज नहीं कर प् रहा था
तब याद आया प्यार में दोनों हाथो का होना कितना आवश्यक होता हैं
अब मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ
प्यार में सबसे ज्यादा दुःखी इंसान वही होता हैं
जिसके पास अपने दोनों हाथ नहीं होते
आज मैं इस अभाव को खड़ाऊं की तरह अपने पैरो में पहनकर
अपनी प्रेमिका के शहर में चौराहे की किसी प्रतिमा की तरह खड़ा हूँ
और हर रोज
सुबह --शाम मेरी प्रेमिका चौराहे पर रुकती हैं
और हरे सिंग्नल होने का इंतजार करती हैं
और मैं चौराहे पर किसी प्रतिमा की तरह खड़ा होकर
अपने लिए जीवित हूँ
पर दूसरों के लिए मरा हुआ हूँ। . . ।

नीतीश  मिश्र

Saturday 18 January 2014

नींद रात भर नहीं आती
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रात भर नींद अब नहीं आती
मैं जागते -जागते
कुछ अपने तो कुछ तुम्हारे दर्द को
पहचानने की एक कोशिश करता हूँ
इसलिए शाम होते ही
आसमान की ओर मुँह करके
भोंकने लगता हूँ
और इसी तरह भोँकते भोँकते
मैं दर्द को पहचान लिया हूँ
मेरे दर्द का नाम सुक्खु हैं
और कबीर हैं और त्रिलोकिया हैं ...
मैं अपने दर्द को पहचानते --पहचानते
समाज के सीने मे एक सुराख कर दिया हूँ
और आदमी होने के नकाब को उतारकर
एक आवारा कुत्ता बन गया हूँ ||

नीतीश मिश्र