Friday 21 October 2016

प्रश्न दीवारों में जीवित हैं .

सारे प्रश्न 
अभी भी दीवारों में 
जीवित हैं ......
रात भर मैं 
अपनी आत्मा से प्रश्नो की केंचुल उतारकर 
दीवारों पर सजाता रहता हूँ
मेरी दीवारें
मेरी आत्मकथा हैं

मैं दिन भर धरती पर 
उत्तर की खोज में साईकिल से भटकता रहता हूँ ...... 
इस क्रम में आँखों में कई बार इतिहास  चुभता हैं 
तो कई बार जख़्म  आईने में दिखाई देने लगते हैं ... 
सारी रात 
मैं अपने आत्मा के खाते में 
भागी हुई लड़कियों का रिपोर्ट दर्ज करता हूँ 
सारी रात टूटे हुए खिलौनों में एक रंग भरता रहता हूँ 
इसी बीच पता चलता हैं 
एक सांप मर गया 
जिसने पिछले साल रामअवतार  को मुक्ति का मार्ग दिखाया 
मैं सांप की मरी हुई आँखों में अपनी तस्वीर देखता हूँ 
और सोचता  मैं  इसकी आँखों से कैसे बच जाता था 
गेहुंअन सांप असंख्य बार मेरे कमरे में आता था 
और घंटो मेरी तरह गंभीर होकर 
मेरे प्रश्नों को पढता था 
फिर कुछ देर तक हँसता था 
मैं रात भर सांप के देह को देखता रहा 
और वह रात भर मुझे देखता रहा 


Friday 7 October 2016

एक बार गहरी नींद सोना चाहता हूँ

मैं युद्ध पर जाने से पहले 
एक बार गहरी नींद सोना चाहता हूँ 
और नांव के एकांत को 
अपने भीतर भरना चाहता हूँ 
मैं युद्ध पर जाने से पहले एक बार 
अपने घर की नीव में उतरना चाहता हूँ 
और वहां माँ की रखी हुई आस्था को 
एक नया अर्थ देना चाहता हूँ
मैं युद्ध पर जाने से पहले 
नींद में एक प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ 
मैं एक बार गंगा की रेत से मिलना चाहता हूँ .... 
मैं युद्ध पर जाने से पहले एक बार 
पीपल की पत्तियो पर जमी स्मृतियों को 
अपने भीतर भरना चाहता हूँ 
दीवारों पर निर्मित इतिहास को भाषा से रंगना चाहता हूँ 
मुझे मालूम हैं अगर 
मैं युद्ध से वापस नहीं लौटा 
तो कोई नहीं पूछेगा 
मेरे टूटे हुए खिलौनों का क्या अर्थ हैं 

Friday 5 August 2016

मेरा प्रेमपत्र लेकर कबूतर उड़ रहा हैं

मैं तुमको ऐसा प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ
जिसे कबूतर लेकर सरहदों के पार   उड़ सके
आसमान उसमे कुछ रंग भर सके
देवता प्रेमपत्र का वाचन कर सके
गरूण देखे तो कुछ देर तक बंद कर दे
अपनी उड़ान .....
इंद्र देखे तो उसे  भोग से घृणा हो जाए
वृहस्पति देखे तो टूट जाए उसका  अंहकार
मेनका देखे तो प्रायश्चित करने लगे......
गणेश देखे तो
मनुष्य होने के लिए
प्रार्थना में डूब जाए .....
मैं तुमको धरती से ऐसा प्रेमपत्र लिखना  चाहता हूँ
जिसे ऋषियों को यह कहना पड़े की
मुक्ति से ज्यादा कहीं पवित्र प्रेमपत्र लिखना हैं
सुनो ब्रह्मा !
मैं प्रेमपत्र में अपना प्यार भी लिखूंगा
अपनी गरीबी भी लिखूंगा
अपने खेत की हरियाली  भी लिखूंगा
अगर कुछ नहीं लिखूंगा तो केवल धर्म
जब मेरा प्रेमपत्र लक्ष्य तक पहुंचेगा
तब समझ लेना धरती पर मनुष्य हारता नहीं हैं
लेकिन मैं जानता  हूँ
तुममे से हर कोई
रोकेगा कबूतर को  ......
जब कबूतर प्रेमपत्र देकर वापस लौट रहा होगा
तब तुम लोग उसकी हत्या की नीति बना रहे होंगे
जिससे यह कबूतर दुबारा धरती से कोई अन्य प्रेमपत्र लेकर उड़ न सके
लेकिन मैंने सभी कबूतरों को दे दिया हूँ
अपना एक एक प्रेमपत्र ......
क्या ऐसे में तुम लोग आसमान में सारे कबूतरों को मार दोगे ?
बोलो देवताओं। .....


Thursday 4 August 2016

इस सदी का प्रेमपत्र लिखना ही धर्म है

केवल मैं ही तुम्हें प्रेमपत्र नहीं लिखता हूं
मेरे प्रेमपत्र में मेरा शहर भी शामिल होता है
मेरे शहर की हवा भी उपस्थित रहती है
मेरे कमरे का अंधेरा भी प्रेमपत्र में शामिल हो जाता है
मैं जब खुश होता हूं या जब दुखी रहता हूूं
या जब  सुख- दुख कुछ भी नहीं होता है तब भी
मैं प्रेमपत्र लिखता हूं
शायद! इस सदी का प्रेमपत्र लिखना ही धर्म हो
धरती का सबसे बड़ा अविष्कार प्रेमपत्र लिखना ही रहा हो
जिसने भी प्रेमपत्र लिखने की कला का इजाद किया होगा
वह धरती का सबसे सभ्य मनुष्य रहा होगा
आज भी मैं उस आदमी के बारे में कल्पना करता रहता हूं
और उस लड़की के बारे में सोचता हूं
जिसके खाते में दर्ज हुई होगी सबसे पहले प्रेमपत्र के प्राप्त होने की खुशी
मैं जब भी तुम्हे प्रेमपत्र लिखकर खाली होता हूं
तब मैं दूसरे प्रेमपत्र के बारे में सोचने लगता हूं
मेरे लिए प्रेमपत्र बिल्कुल पानी की तरह है
प्रेमपत्र हर समाज का मनुष्य लिखता आया है
ऋषियों से लेकर आदिवासियों ने भी लिखा है
धरती पर रंग तभी तक बचे रहे
जब - तक हम प्रेमपत्र लिखते रहे
अगर हमे गंगा को या हिमालय को
जंगह को या अंधेरे को
आकाश को या धरती को बचाना है तो
हमे प्रेमपत्र लिखना ही होगा।।

मैं कविता नहीं लिखना चाहता

अब मैं कविता नहीं लिखना चाहता 
या कविता लिखने की मुझमे योग्यता नहीं है 
अब मैं केवल और केवल 
प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ 
प्रेमपत्र सिर्फ मैं उस लड़की को नहीं लिखना चाहता हूँ 
जो मुझसे प्रेम करने की साहस रखती थी
बल्कि उस लड़की को भी लिखना चाहता हूँ
जिससे मैं प्रेम करने का साहस रखता था
बल्कि उस लड़की को भी लिखना चाहता हूँ
जो शहर में नदी से भी अधिक खूबसूरत थी
लेकिन मैं उससे प्रेम नहीं कर पाया
मैं उस कपास के पौधे को भी प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ
जिसके धागे का वह वस्त्र पहनती थी
मैं उस घर को भी प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ
जिसमे वह रहा करती थी
मैं उस देवता को भी प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ
जिससे वह मेरे लिए सिर्फ मेरे लिए प्रार्थना करती थी
मैं उस विश्वविद्यालय को भी प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ
जहाँ वह पढ़कर सभ्य होना सिख रही थी
मैं उस बिस्तर को भी प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ
जहाँ से वह पूरी रात सिर्फ मेरे बारे में सोचती थी
मैं उस गांव को प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ
जहाँ से वह चलकर सिर्फ मेरे लिए खाली हाथ आई थी
मैं उसके विषय को प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ
जो उसे इतना अवकाश देता था की वह मेरे बारे में सोच सके
अब मैं कविता नहीं लिखना चाहता हूँ
अब मैं केवल और केवल प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ।
मैं केवल सुबह ही नहीं बल्कि भोर में जब आसमान में तारे सो चुके होते है उस वक्त भी उसे प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ
मैं केवल बसंत में ही नहीं बल्कि खड़ी दुपहरी में रेत के बीच भी प्रेमपत्र लिखना चाहता हूँ।।

Wednesday 3 August 2016

जूते की शिकायत

बारिश से पूरा शहर खुश था 
सबसे अधिक शहर के नाले खुश थे 
साल में कुछ ही दिन तो होते है 
जब नालों की प्यास बुझती है
प्यास बुझने के बाद
नाले शहर के विवेक को बचाने में जूट जाते है
अगर नाले शहर में न हो
तब शहर का विवेक मर जाता है
कभी कभी बहुत जरूरी होता है नालों का होना
बारिश में जहाँ पूरा शहर खुश था
वही चूल्हें उदास थे
चूल्हें खो चुके थे अपना चेहरा
अपना धर्म ......
टूटे हुए चूल्हें बगावत की मुद्रा में
आसमान से नजरें मिला रहे थे
बारिश में पेड़ भींगकर एक नई भाषा को जन्म दे रहे थे
वहीँ इस बारिश में
शहर के तमाम जूते
बादल से शिकायत कर रहे थे
जबकि जूतों ने कभी अन्य मौसम के खिलाफ
कभी शिकायत नहीं किए
लेकिन सदी में पहली
बार जूतों ने शिकायत दर्ज कराई है
जूते मोची की भी शिकायत कर रहे थे
मोची को जूता बनाने से पहले हमारे बारे में कुछ सोचना चाहिए था
बारिश में सबसे अधिक नुकसान जूता को ही उठाना पड़ता है।।

Wednesday 6 July 2016

दिल्ली केवल भाषा है

दिल्ली एक आईना है 
जहाँ हर कोई अपना चेहरा देखना चाहता है 
दिल्ली एक किताब है 
जहाँ पूरा हिंदुस्तान अपना अध्याय खोज रहा है 
दिल्ली एक जूते के समान है 
जिसे हर पाँव पहनना चाहता है 
दिल्ली एक बेल्ट है 
जिसे सभी लोग कमर में कसना चाहते है 
दिल्ली एक पर्स है 
जो किस्मत बदलने का हूनर सिखाती है 
लेकिन मेरे लिए दिल्ली केवल भाषा है 

Friday 1 July 2016

सड़क सब कुछ जानती है

तुम कहाँ हो
तुम कैसी हो
मुझे नहीं मालूम 
कई बार जानना चाहा
पर परिंदों की तरह शाम को अजान होने से पहले
खाली मुंह वापस लौट आता
लेकिन तुम्हारे बारे में मुझसे अधिक
सड़के जानती है
हर सड़क को मालूम है
तुम्हारा वजन कितना है
हर सड़क को मालूम है
तुम्हारे पाँव में जूते किस नंबर के आते है
शहर की सभी सड़के जानती है
तुम कब बालों में दो चोंटी करती थी
तुम कब डरती थी
तुम कब खुश होती थी
तुम कबसे साड़ी पहनना शुरू कर दी
शहर की सभी सड़के जानती है
तुम आखिरी बार मुझसे मिलकर कहाँ गई
लेकिन आज तक यह सड़के तुम्हारे बारे में किसी को कुछ भी नहीं बताई
मैंने सड़को से हजार बार तुम्हारे बारे में पूछा होगा
पर हर बार सड़के मौन होकर मेरी तरफ देंखती है और मुस्कुरा देती है।
तुम खुद को लाख नास्तिक कहो लेकिन
सड़के बताती है
तुम आस्तिक थी।।

Tuesday 14 June 2016

मेरा जूता बारिश को बुलाता हैं

मुझसे अधिक बारिश का इंतजार 
मेरे जूते  को हैं .... 
आत्मा को कभी कभी 
पानी नसीब हो जाता हैं 
 मेरी सजगता के चलते जूते की प्यास नहीं बुझती 
जूता तभी भींगता हैं 
जब बारिश होती हैं 
मेरा जूता इस वक्त मरने के कगार पर हैं 
इसके बाद भी 
इंद्र को हर रोज ढेंगा दिखाता हैं 
जब मेरा जूता भींगता हैं 
उसके बाद मेरी आत्मा भींगती हैं 
जूता हर रोज आसमान को देखता हैं 
और पूछता हैं इंद्र यही छुपे है॥ 

मैं रेल की तरह सभ्य होना चाहता हूँ

मैं रेल की तरह सभ्य होकर 
तुमसे प्यार करना चाहता हूँ 
मैं रेल की तरह तुम्हारे शहर में सिटी बजाते हुए 
धुंआ  उड़ाते हुए आना चाहता हूँ 
सोचो !
अगर मैं रेल की तरह तुम्हे सभ्य होकर प्यार करूँ तो 
सारा आसमान कुछ देर के लिए तुम्हारे छत पर उतर सकता हैं 
और तुम पूरी रात चाँद में दबी  हुई हरी घास बिनते  रहना 
मैं जानता  हूँ 
अगर ! 
तुम्हारे शहर में 
मैं आत्मा या भाषा बनकर आऊंगा तो कभी भी मार दिया  जाऊंगा 
अगर मैं तुम्हारे शहर में सड़क बनकर आऊंगा 
तो लोग मेरे प्यार का मजाक उड़ाएंगे 
अगर पतंग बनकर आऊंगा तो हवा में ही दफ़न हो जाऊंगा 
जब भी रेल की तरह आऊंगा तो तुम आसमान की तरह मुझसे मिलोगी और कुछ देर के बाद 
हम रोशनी में तब्दील जाएंगे 
मैं अब रेल की तरह  सभ्य होना चाहता हूँ 
तुम केवल आसमान की तरह फैलना  सीख  जाओं ॥ 
नीतीश  मिश्र 

Saturday 4 June 2016

मेरे शहर में हर रोज एक नया कारवां आता है


मेरे शहर में हर रोज एक नया कारवां आता है
पूरा शहर शाम को उत्सव में तब्दील हो जाता है
सड़के बेजान होकर अपने अर्थ को परिभाषित करती रहती है
दीवारे मूक होकर अपने इतिहास पर मंथन करती है
पेड़ एक बार फिर भविष्य बचाने की खातिर  जद्दोजहद करता है
आदमी वर्तमान की आग में सुलगता हुआ राख होता जा रहा है
मंदिरों से रह - रह कर पुरानी खुशबुए आ रही है
जमीन पर नए- नए नक्शे बन रहे है
हर रोज एक नई इमारत की नींव गहरी होती जा रही है
शहर में हर रोज कुछ न कुछ नया होता जा रहा है
और मैं अभी भी पुराने चांद को लेकर बैठा हूं
जहां से मैं तुम्हारे शहर के रास्ते को देख रहा हूं।
तुम भूख को पहनकर नंगे पाव रूई की तरह हवा में दौड़ लगा रही हो
और मैं यहां उदासी की पंतग उड़ा रहा हूूं।
एक सपने रह रह कर अपना अर्थ खो रहे है
इसके बाद भी मैं हर रोज एक नया सपना अपने भीतर जिंदा कर रहा हूं
शायद सपनों के  साथ जीने की आदत हो गई हो मेरी
सही भी है जब विश्वास टूटते है तब सपनों को कई बार पालना जरूरी हो जाता है
सपने धीरे- धीरे मौत की तरफ ले जाते है
और मैं  अपनी मौत के सन्नाटे से देखता हूं
तुम्हारा होंठ जिस पर मेरा खून चिपका हुआ
तुम्हारा यह चेहरा मुझे मानचित्र सा लगता है
जहां मैं अपने अतीत का नक्श देखता हूं
मैं देखता हूं कि मैं तुम्हारे भीतर धूप की तरह पसर रहा हूं
और तुम कपास की तरह खिल रही हो
इस क्रम में बनता है हमारे बीच रेत में एक सेतु
जिस पर पांव तो नहीं पड़ते है लेकिन एक कारवां जो मेरे भीतर जन्म लेता है वह पूरा का पूरा गुजर जाता है
सब कुछ छूटता जाता है
और मेरे शहर में एक अंधेरा फैलने लगता है
मैं उस अंधेरे से बाहर जाना चाहता हूं
लेकिन जैसे ही मैं बाहर जाने की कोशिश करता हूं
वैसे ही एक नदी आकर खड़ी हो जाती है
जहां तुम हाथ बांधे बैठी हुई दिखाई देती हो
मुझे लगता है यह कोई सपना है
इतने में जैसे ही मैं नदी के भीतर उतरता हूं
वैसे ही आसमान का एक टुकड़ा बर्फ की तरह मेरे बदन पर गिरता है
और में दोहरा होकर तुम्हारे साथ एक सपना देखता हूं
जिसे इतिहास बनाने की कोशिश करता हूं
आज इसी सपने को लेकर तुम्हारे शहर में एक रास्ता देख रहा हूं
जिस पर एक बच्ची तुम्हारे जैसे चलती हुई दिखाई दे रही है
मुझे लगता है यह तुम्हारा पुर्नजन्म तो नहीं है।

Friday 3 June 2016

सब कुछ पीछे छूटता जा रहा हैं

सब कुछ पीछे छूटता जा रहा हैं
यहाँ तक की आसमान में खिलता हुआ चाँद 
जिसे मैं तुम्हारे कहने पर रोटी समझकर घूरता था 
आज भी जब कहीं से पतली सी धूप दीवार पर गिरती हैं 
तब तुम्हारा चेहरा दीवार में चाँद की तरह चमकने लगता हैं 
पर मैं इस  बार रोटी समझने का भ्रम छोड़ देता हूँ 
और अपनी हिचकियो को सँभालते हुए 
अँधेरे के वृत्त में फकत रंगता हूँ 
तुम्हारे हाथ को 
जहाँ मेरा खून कभी रिसता  रहता था 
और तुम इसे ख्वाब समझकर हँसती  थी 
जब कभी खिड़की से अँधेरी रात को देखता हूँ 
एक भयानक आवाज सुनाई देती हैं 
और मैं लौट आता हूँ बिस्तर पर 
जहाँ से केवल मुझे भूख दिखाई देती हैं 
इतने में मेरी नजर 
कमरे में बिखरे हुए अख़बार पर पड़ती हैं 
जिस पर मोटे अक्षरों से लिखा हुआ हैं 
दुनिया बदल रही हैं और ख्वाब पुराने हो रहे हैं 
इतने में मेरी सांसे जोर जोर से चलने लगाती हैं 
मुझे लगता हैं मेरा शहर इलाहाबाद कहीं बगदाद तो नहीं हो रहा हैं 
मैं बिस्तर से उठकर 
चाय की पतीली खोजता हूँ 
और दियासलाई की डिबिया से एक तिल्ली निकालता हूँ 
एक पिली चिंगारी के बीच तुम्हारा चेहरा चूल्हे के बीच अड़हुल के फूल की मानिंद खिल उठता हैं 
चाय खौलने लगती  हैं 
और मैं लौट जाता हूँ 
इलाहाबाद  की गलियों में 
और बटोरता हूँ स्मृतियों के संगम से तुम्हारी  टूटी हुई यादें 
इतने में कानो में सुनाई देती हैं तुम्हारी हँसी 
मैं हँसी  की आवाज में खोजता हूँ अपना इतिहास ॥ 

Monday 30 May 2016

श्मशान

शाम को 
मेरे कमरे में 
तमाम चेहरे और पांव आकर ठहर जाते है 
यहाँ से मैं देखता हूँ 
कांपते हुए जंगल को 
रोती हुई नदी को
पहाड़ के जख्म को
मैं यहां से देखता हूँ
कुरुक्षेत्र को
कभी कभी लगता है
मेरा कमरा श्मशान सरीखा हो जाता है।।
नीतीश मिश्र

लिफाफे में कुछ नहीं था

जिंदगी के लिफाफे में कुछ नहीं था 
सिवाय सवाल के 
और मैं एक संदेह की तरह 
बिजली के तार में उलझा हुआ था 
मेरे शहर में रोज दर्जनों ट्रेनें उम्मीद लेकर आती थी 
और हर रोज दर्जनों ट्रेनें मेरे शहर से लोगों का भय लेकर एक अंतहीन सफर में लेकर जा रही थी
इस बीच जब भी लिफाफा खोलता था
हाथ में एक सन्नाटे के सिवाय कुछ नहीं
जिंदगी के आयतन बढ़ते गए
पर सवाल का क्षेत्रफल वही था
जितना बन्द लिफाफे का।।

मेले में प्रेमपत्र खो गया

बहुत पहले
किसी मेले में
एक प्रेमपत्र खो गया था
तभी से हर मेले में
वह पत्र खोज रहा हूँ 
वह हाथ खोज रहा हूँ
वह आँख खोज रहा हूँ
वह होंठ खोज रहा हूँ
वह चेहरा खोज रहा हूँ
लेकिन आज तक किसी मेले में
कोई भी ऐसा साक्ष्य नहीं मिला
कि मैं दावा कर सकूँ की
मेरा पत्र किसी को मिला होगा ।।
नीतीश मिश्र

मेरे शहर की सड़के

जब भी तुम्हारें शहर से
कोई ट्रेन आती है
मुझे लगता है एक खुशबू आ रही है
और मैं बादलों की तरह
अपने शहर की मिट्टी में उमड़ने लगता हूँ 
जब ट्रेन आती है
स्टेशन पर असंख्य उदास चेहरे
असंख्य उदास पांव
ढ़ेरो बेरोजगार हाथ
मेरे शहर की सड़कों पर अपना अर्थ खोजने लगते है
मैं उदास होकर अपने ही भीतर अस्त हो जाता हूँ
एक नई सुबह चौराहे पर
सभी सड़के उदास दिखाई देती है
सड़को से उनकी उदासी पूछता
तब सड़क धीरे से कहती है
चौराहे पर रखा हुआ लेटर बॉक्स
वर्षो से उदास है
जब तक मेरे शहर का लेटर बॉक्स उदास रहेगा
मेरे शहर की सड़के कभी किसी को
मंजिल तक नहीं लेकर जाएगी।।
नीतीश मिश्र

औरते रंग का केंद्र बनना चाहती है

सुबह सुबह 
एक औरत को पतंग की तरह
आसमान में उड़ते हुए देखता हूँ 
एक औरत को दोपहर में 
धूप में अपनी त्वचा को रंगते हुए देखता हूँ 
शाम को एक औरत को दरवाजे में तब्दील होते हुए देखता हूँ
रात में तीनों औरतों को
पसीनें में डूबते हुए देखता हूँ
औरते पसीने की परिधि से बाहर आकर
अपने रंग का केंद्र बनना चाहती है।।

बूढी औरतों ने नकार दिया है

बूढी औरतों के पास 
आसमान का कोई टुकड़ा भी नहीं है 
अपनी आँखों में वे अब चाँद भी नहीं देख पाती 
बूढी हो रही औरतों के पांव के नीचे की जमीन 
भी बूढी हो चुकी है 
बूढी औरतों ने नकार दिया है
तुम्हारे लोकतंत्र को और तुम्हारी विचारधारा को
बूढी औरतों के लिए अगर कुछ सच है
तो उनका हाथ और उनका चूल्हा
अब लाल किले से कभी मत कहना की
हम आज़ाद है ।

पहाड़ जाग रहा है

जब तुम चूल्हे की हत्या करके 
अपने निर्दोष होने का प्रमाण दोंगे 
तब तक शहर से भाग चुकी होंगी लड़किया 
सूर्योदय में तुम खोजोगे 
और धूप / हवा को गाली दोंगे 
तब तक सभी लड़किया पहाड़ पर जा चूँकि होंगी 
आज तक लड़कियो की प्रतिक्षा में 
पहाड़ जाग रहा है।।

मैं आऊंगा

मैं आऊंगा धरती पर 
रेत की दूब बनकर 
और इंतजार करता रहूँगा 
तुम्हारें पवित्र स्पर्श का।
मैं आऊंगा 
तुम्हारें पास 
आईना बनकर 
और तुम मुझे 
स्थिर होने की अनिवार्य सजा सुना देना।।

हम दोनों के बीच

मैंने तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया 
सिवाय चौराहे पर तुम्हारा नाम लिखा 
अपने आईने में तुम्हारी तस्वीर उतारी 
नदी के कान में कुछ कहा था 
जो आज भी गूंजती है 
एक तट पर मैं अपने लाल रंग के साथ
दूसरे तट पर तुम हरे रंग को लेकर
और बीच में हम दोनों के उज्ज्वल नदी गुजर रही।।

मेरी खबर में


आज एक बच्चे की गेंद गायब हो गई
एक क्षण के लिए मुझे लगा की धरती गायब हो गई 
आज उसी बच्चे के पांव से जूता गायब हो गया 
मुझे लगा की मेरे दोनों पांव गायब हो गए
आज एक बच्चे का चेहरा गायब हो गया
मुझे लगा की अब शहर की नैतिकता मर चुकी है
आज एक बच्चे का बस्ता गायब हो गया
मुझे लगा की आज किसी ने मेरा दिल चुरा लिया
आज एक बच्चे का खिलौना गायब हो गया
मुझे लगा की मेरा विस्थापन हो गया।
आज मैं खबर लिख रहा था बचपन की
शहर में इसी बीच कोई मेरा प्रेमपत्र चुरा रहा था।।

मैं नहीं हूँ

मैं अपने शरीर में नहीं हूँ 
मैं जब भी अपना चेहरा खोजता हूँ 
मुझे अपने शरीर में 
इतिहास की कलाकृतियां मिलती है
जब सचेत होकर खोजता हूँ
तब मुझे नींद मिलती है
तब मुझे कुछ सपने मिलते है
कुछ दुःख मिलता है
कुछ असफलताएँ मिलती है
कुछ संभावनाएं मिलती है
लेकिन अपने शरीर में मुझे अपना चेहरा नहीं मिलता
बहुत मेहनत करता हूँ
तब थक कर यही कहता हूँ
मैं मुस्कान में भी हूँ
मैं दुःख में भी हूँ
मैं अतीत और भविष्य में हूँ
कभी कभी अपनी हार में भी अपनी ही विजय लिखनी होती है
शायद यह पहली हार थी धरती पर एक मनुष्य की।।

मैं नहीं हूँ

मैं अपने शरीर में नहीं हूँ 
मैं जब भी अपना चेहरा खोजता हूँ
मुझे अपने शरीर में 
इतिहास की कलाकृतियां मिलती है
जब सचेत होकर खोजता हूँ
तब मुझे नींद मिलती है
तब मुझे कुछ सपने मिलते है
कुछ दुःख मिलता है
कुछ असफलताएँ मिलती है
कुछ संभावनाएं मिलती है
लेकिन अपने शरीर में मुझे अपना चेहरा नहीं मिलता
बहुत मेहनत करता हूँ
तब थक कर यही कहता हूँ
मैं मुस्कान में भी हूँ
मैं दुःख में भी हूँ
मैं अतीत और भविष्य में हूँ
कभी कभी अपनी हार में भी अपनी ही विजय लिखनी होती है
शायद यह पहली हार थी धरती पर एक मनुष्य की।।
नीतीश मिश्र

मैंने महाकाल को रोते हुए देखा है

मैंने महाकाल को रोते हुए देखा है 
मैंने क्षिप्रा को प्रेमपत्र लिखते हुए देखा है 
मैंने उज्जैन को श्मशान में तब्दील होते हुए देखा है 
मैंने कालभैरव को देवदास बनते हुए देखा है 
मैंने चिंतामणि गणेश को कमजोर होते हुए देखा है 
मैंने भूखी माता को आमरण अनशन करते हुए देखा है
मैंने चौबीस खम्बा देवी को कैद होते हुए देखा है
मैंने गढ़ कालिका को पत्थर में शरण लेते हुए देखा है।
क्योंकि उज्जैन से हर समय रोते हुए स्त्रियां ही गई है
स्त्रियों के जाने के बाद
उनके लौटने की गरणा भी यही से शुरू हुई
लेकिन अफ़सोस वह स्त्रियां कभी नही लौटी।।

एक औरत बीज बो रही है

आज फिर एक औरत 
आँखों में उदासी लिए जा रही थी 
आज फिर एक बच्चा 
उम्मीद के गर्त में गिर गया 
और तुम चाँद को देखकर हँस रही थी 
मैं आसमान में टूटे हुए ख्वाबों को दफना रहा था।

एक औरत अपनी मरी हुई आत्मा के साथ 
नदी में बीज बो रही है 
एक बच्चा पतंग की तरह अपनी आत्मा को उड़ा रहा हैं 
एक भिखारी बिना आत्मा के हवा में हस्ताक्षर कर रहा है 
एक वैश्या लोगों की आत्मा को अनवरत पढ़ रही है 
एक मैं हूँ जो तुम्हारी आत्मा को लेकर
अपनी आत्मा की हत्या कर रहा हूँ।

सिग्रेट की डीबिया

सिग्रेट की डीबिया पर 
शाम को तुम्हारा नाम लिखा था 
रात को धुएं के साथ 
तुम्हारा नाम 
आसमान में अपना वजूद खोज रहा था 
अँधेरे में 
सिग्रेट की डीबिया पर 
रात भर तुम्हारा स्केच बनाता रहा 
सुबह जब नींद खुली 
तब सभी ख्वाब राख हो चुके थे 
और तुम्हारा स्केच भी गायब हो चूका था
ठीक वैसे ही जैसे तुम बिना बताएं
नदी के रास्ते चली गई थी।

पेड़ खड़ा है

पेड़ प्रेमिका की प्रतिक्षा में खड़ा है 
पत्तियो के आसरे सदियों से लिख रहा है 
प्रेमपत्र 
एक दिन जब पेड़ गिर जाएगा 
तब तुम्हें पता चलेगा 
की एक पेड़ धरती के अंदर भी ताजमहल बनाता था।।
नीतीश मिश्र

Wednesday 24 February 2016

चोर नहीं चुराता हैं कायरता

अगर कहीं सिद्धांत बचा हैं
अगर कहीं मूल्य फूल की तरह महक रहा हैं
अगर कहीं आत्मा में रोशनी बची हैं
तो वह कोई धर्म की किताब नहीं हैं
वह कोई देवता भी नहीं हैं
वह कोई स्कूल  भी नहीं हैं
वह कोई मंदिर भी नहीं हैं
बल्कि वह चोर की आत्मा हैं !
जहाँ बची हुई हैं खिड़की
जहाँ बची हुई हैं समय की सभ्यता हैं
चोर कभी हिन्दू नहीं होते
चोर कभी मुसलमान भी नहीं होते
चोर कभी राजनीतिज्ञ भी नहीं होते
चोर केवल भूख से उबरने के लिए रास्ता बनाते हैं
चोर घर में रखा हुआ सारा सामान चुरा लेता हैं
लेकिन नहीं चुराता हैं आपकी कायरता
चुराता हैं आपकी क्षमता
नहीं चुराता हैं आपकी ईमानदारी
नहीं चुराता हैं घर में पसरा हुआ अँधेरा
नहीं चुराता हैं आपका धर्म
चोर केवल भूख के बचत खाते पर डालता हैं हाथ
सबसे प्यारी आत्मा के साथ चोर चोरी करता हैं
और अपने अँधेरे से रास्ता बनाता हुआ पार निकल जाता हैं
अगर चोर घरो का अँधेरा भी चुराने लगते तो
ख़त्म  जाती दुनियां ॥

Sunday 7 February 2016

तुम बोलती हो
तब मेरा अँधेरा भी बोलता है
और मेरे देह का आयतन भी बढ़ जाता
तुम बोलती हो
तब मेरी दीवार भी बोलती
और मेरे दिमाग का क्षेत्रफल भी बढ़ जाता
जब तुम खामोश होती हो
तब मेरा रंग धूसर हो जाता है
तुम्हारी आवाज मेडिकल स्टोर के मानिंद है
जहाँ मेरी जरूरतमन्द सभी दवाइयाँ मौजूद रहती है।।

Friday 5 February 2016

एकांत के रंग से
अपने वृत्त का
एकांतर आकाश रंगता हूँ
और खोजता हूँ
धरती पर सोये हुए रंगो को
क्योंकि मैं रंगो का सेतु बनाना चाहता हूँ।।
नीतीश मिश्र
धरती के पास खून नहीं नमक हैं
इसलिए कभी वह तुमसे
सौतेला व्यवहार नहीं करती
धरती के पास अपना कोई सपना नहीं हैं
इसलिए वह अपनी हत्या का तुमसे बदला नहीं लेती ||
धरती के पास आँख हैं
इसलिए अभी तक तुम बचे हुए हो||
नीतीश मिश्र

Thursday 4 February 2016

सबसे बड़ी कविता पागल लेकर घूमते है

 अपने समय की
सबसे बड़ी कविता पागल लेकर घूमते है
अतीत / भविष्य को दफनाकर
चांद को बाजरे की रोटी जैसी संज्ञा देते है
एक दुर्लभ भूख लिए
भाषा को मुस्कान में बदलने का जोखिम उठाते है
रद्दी कागजों को एक अर्थ देते है।
पागलों के पास नहीं होती अपनी परछाइयां
बल्कि टूटती हुई शहर की शक्ले
खत्म होती हुई नदी की यादों को लेकर
ईश्वर को देता है दिन- रात चुनौती
अपने समय का देवता भी
पागलों से डरता है
इसलिए  देवता हर रोज रचता है अपनी बहादुरी की कहानी
जबकि पागलों के पास कोई कहानी नहीं होती है
शहर के सभी पागल एक साथ
अंधेरे में बनाते है घर
और इतिहास को नकारते हुए घोषित करते है
हम अपने समय के सबसे सुंदर कृति रचते है।।
जब शहर डूब जाता है अपनी रोशनाई में
तब एक पागल जागता है
और रेलवे लाइन की पटरियों पर लिखता है
मैं अपने समय का सबसे कुरूप आदमी हूं
लेकिन अपने समय के सबसे खूबसूरत पौधे कपास से मैं प्यार करता हूं।।
एक पागल से होकर गुजरना
गोया अपनी त्वचा से होकर गुजरने जैसा होता है।।

Monday 25 January 2016

सबसे अच्छी प्रार्थना सुअर के पास

समय के दुष्चर्क में दिल्ली हो या उज्जैन
सुबह- शाम होती रहती है प्रार्थनाएं
कभी यह प्रार्थनाएं संविधान की हत्या के लिए कभी
नजीर, कबीर/ मोहित- मोहन जैसे लोगोंं को मारने के लिए
सभ्यता की पहली सीढ़ी से लेकर आखिरी सीढ़ी तक आदमी
बिस्तर से लेकर संसद तक करता रहता प्रार्थनाएं
आदमी की सुबह से लेकर रात तक की प्रार्थनाओं में सिर्फ सुविधा के मंत्र की आवाज आती है
यहां तक कि दुनिया का सबसे बड़ा उस्ताद अस्पताल में भी सुविधा के मौत को ही मांगता है
लेकिन दुनिया की परिधि में सबसे अच्छा प्रार्थना कोई करता है
तो वह है सुअर!!
सुअर अपनी प्रार्थना में जगल में भी पानी मांगता है और पानी में भी जंगल
सुअर अपनी प्रार्थना में कभी अपने हाथ को साफ करने की सुविधा नहीं मांगती है
इसलिए गौर से देखे तो धरती पर सबसे खूबसूरत अगर कोई है तो वह है सुअर
सुअर दिल्ली से लेकर दौलताबाद तक एक आवाज में बात करती है
जबकि आदमी दिल्ली से लेकर बनारस के बीच अपनी आवाज और शक्ल भी बदल लेता है
सुअर कभी किसी देवालय में नहीं
सुअर तुमकों देखकर प्रार्थनांए करती है ।।