Friday 30 August 2013

प्यार में लोकतंत्र

मेरे प्यार में
लोकतंत्र के समावेश होने से
मेरा प्यार पत्थर की तरह मजबूत होता जा रहा हैं
मेरे प्यार की थाली में
नहीं हैं कोई जाति कि घिनौनी दीवार
और मेरे प्यार के आकाश में नहीं दिखाई देता हैं
कोई उम्र की दुर्ग्रंध की सीमा। ।
मुझे अपने प्यार तक पहुँचने के लिये नहीं करना पड़ा कोई सत्याग्रह
अपने प्यार का वजूद पाने के लिए
मुझे बनना पड़ा दिया
 प्यार में लोकतंत्र के आने से
मेरा प्यार शर्माते हुए अब नहीं जीता हैं
बल्कि शेर की तरह गरजता हैं।

Friday 16 August 2013

ईश्वर ख़त्म हो जाये

यदि इस दुनियां से ईश्वर का अस्तित्व ख़त्म हो जाता हैं
तो शायद दुनियां एक पल के लिए खुबसूरत हो जाये
ईश्वर के न होने से दंगा -फसाद होना बंद हो जाये
ईश्वर के न होने से आदमी कायदे से काम करना शुरूं कर दे। .

ईश्वर ख़त्म हो जाये
उसके बाद भी बची रहेगी
आदमी में प्यार करने की सही ताकत
ईश्वर के न होने से
लड़कियां खुलकर प्यार करेंगी। .

Tuesday 2 July 2013

मैं , जब भी कभी थोड़ा उदास होता हूँ ...

मैं , जब भी कभी थोड़ा उदास होता हूँ ...
मैं, जब कभी अन्दर से थोड़ा टूटता हूँ ...
तुम्हारी हंसी की महक से
अपने को कुछ देर के लिए सजा लेता हूँ .....

जनता हूँ इस बात को कि अगर कभी बाढ़ की तरह
उत्तेजित होकर भी तुमसे मिलने की कोशिश करूँगा
तो भी एक पल के लिए नहीं मिल पाउँगा .....
क्योकि तुम एक रंग हो और मैं एक शब्द भर हूँ ....
इसलिए कभी --कभी सतह से उठकर सपनों के
धरातल पर पाँव रखता हूँ ..
यह सोचकर की सपनों में तुमसे मिलने की खबर किसी को भी भनक तक नहीं लगेगी

नीतीश मिश्र

Saturday 22 June 2013

ईश्वर असमर्थ होता हैं

तबाही के बाद ...
मंदिर का शेष होना
यह गवाही देता हैं कि
ईश्वर असमर्थ होता हैं
आदमियों की रक्षा कर पाने में ......
अब जो लोग बच गए
क्या वे मानेगें की
ईश्वर भी आदमखोर होता हैं ......
लेकिन नहीं ऐसा नहीं होगा
पंडित फिर रामायण लिखेगा
और कहेगा कि क़यामत में कुछ बचता हैं तो सिर्फ ईश्वर
और लोगों को दिखायेगा साक्ष्य मंदिर के बचे रहने का .....
और लोग फिर जायेंगें केदारनाथ ....
जबकि मैं बार --बार कहता हूँ
वहां कोई ईश्वर नहीं हैं
एक स्त्री -पुरुष का प्रेम हैं ....
जो हंसीं वादियों में एकांत में बैठकर
वर्षों से कर रहे हैं प्यार .......
अगर मेरी बात पर यकीं ना हो देख लीजिये तबाही के बाद का मंजर
कोई स्त्री पड़ी हुई मिल जाएगी अपने प्रेमी के बांहों में
और कोई बच्चा मिल जायेगा अपनी माँ की बांहों में .......

नीतीश मिश्र

Thursday 20 June 2013

बाढ़

बाढ़ आई ....
और सब कुछ
ख़त्म हो गया .....
ख़त्म हो गयी
आदमी के अन्दर की साम्प्रदायिकता ..
नहीं रहा कोई दलित अब ...
नहीं रही कोई स्त्री
जिसके साथ कोई बलात्कार कर सके .....
ख़त्म हो गयी
आदमी की राजनीति ......
बस कुछ शेष रह गया हैं
आदमी के अन्दर तो
एक प्यार
जो एक दीये की तरह टिमटिमा रहा हैं
लोगों की आँखों में
कभी लोगों की साँसों में ......

नीतीश मिश्र

Wednesday 19 June 2013

मैं, नहीं जानता था

तुम मुझे इतना मानती हो
कि कसमे भी ...
तुम्हारे विश्वाश के आगे
कुछ फीकी सी लगती हैं ....

मैं, नहीं जानता था कि
तुम मुझे इतना प्यार करती हो
जितना होंठ तुम्हारी हँसी को चाहता हैं .....

आज जब गंगा की कसम खाकर कहने लगी ...
मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ ....
तब मुझे पता चला की गंगा इंतनी पवित्र क्यों हैं .....

नीतीश मिश्र

Tuesday 18 June 2013

सूरज की आंच में

एक मजदूर के पास इंतना भी समय नहीं होता हैं
कि वह अपनी प्रेमिका से प्यार कर सके ...
शाम को डूबते सूरज की आंच में
जब अपने लिए रोटी सेकता हैं .....
रोटी को आईना समझकर
निहारता हैं ....
अपना चेहरा ....
और उसे याद आता हैं
कि वह दिन जिस दिन प्रेमिका ने गाल पर चूमा था ....
इसी याद के साथ थोड़ी देर
हँसते हुए चाँद को देखकर रोता हैं .....
उसका चेहरा अब वह चेहरा नहीं रह गया
जिस चेहरे को उसने जी भरकर चूमा था ....
फिर गंभीर होकर
रोटी को ही चूमता हैं
इस उम्मीद में की वह भी कहीं
रोटी ही तो बना रही होगी ....
और मैं भी एक रोटी के लिए ही तो प्रदेश में मर रहा हूँ ....
तबसे हर मजदूर के लिए
रोटी ही एक प्रेमिका जैसी लगती हैं ........

Wednesday 12 June 2013

मैं, सपना नहीं बन पाया

मैं, सपना नहीं बन पाया
तुम्हारे मन का
मैं,नहीं बन पाया
तुम्हारे आंगन का कोई खाली जगह
मैं, नहीं बन पाया
तुम्हारे समय के लिए कोई भी शब्द ।
हाँ मैं बन गया हूँ .....
अपने वक्त का हथियार
हाँ ! मैं बन गया हूँ
इतिहास को झूठा करने के लिए एक शब्द

Thursday 6 June 2013

आँखे ..

मैंने अपनी संस्कृति को
संभालकर नहीं रख पाया आज तक .....
मैंने अपने ईश्वर को भी नहीं संभालकर कर रख पाया ...
यहां तक कि बाबूजी की बहुत सारी यादें भी
सपनों की तरह भूलता गया ......
लेकिन हाँ ....
मैं संभालकर कर रखा हुआ हूँ ....
अपनी आँखे ....
जो आने वाले इतिहास को कह सकती
बिना किसी खौफ के की इतिहास झूठा हैं ...
क्योकि मेरी आँखे देखी हैं ...
अयोध्या में हो रहे दंगें को
और गुजरात में जाहिद को मरते हुए ...
मेरी आँखे देखी हैं
की लाल किला पर एक उल्लू बैठकर कहता हैं ...
दुनिया बहुत सुन्दर ......

माफ़ करना भाइयों !
मैं नहीं बचा कर रख सका तुम्हारे सपनों को ..
हाँ !लेकिन माँ का हँसता हुआ चेहरा जरूर अपने पास बचा कर रखा हूँ ...
क्योकि मेरी माँ खुदा और मेरी प्रेमिका दोनों से सुन्दर लगती हैं ....

नीतीश मिश्र

प्रहलाद दास टिमनियाँ

कई  सालों  बाद फुरसत के क्षण में निर्गुण भजन सुनने का अवसर मिला । प्रख्यात निर्गुण गायक प्रहलाद दास टिमनिया की आवाज से कबीर को सुनकर फिरसे देहराग से मुक्त होने की एक सघन सी अनुभूति हुई । कबीर को सुनना या कबीर को पढ़ना दोनों का एक ही अर्थ लगता हैं । कई बार लगता हैं की इस कठिन समय में जब आपके पास अपना कुछ भी नहीं होता हैं जिस पर एक क्षण के लिए विश्वाश किया जा सके ऐसे में कबीर ही एक होते है जो आपको अपना बनाने के लिए एक बार पास बुलाते हैं ....लेकिन हम आज बाज़ार के बीच इस कदर घीर चुके हैं की सब कुछ सही ही लगता हैं । हम सोचते हैं की हम भोग भी करे और समाज के लिए कुछ करते भी रहे । यह आदमी का अपना निजी विचार नहीं हैं बल्कि वह इसे बाज़ार से सिख कर अपने लिए एक मन्त्र बनाया हैं और इसी विचार पर आज मनुष्य अपने को ज्ञानी समझता हैं । लेकिन मेरे लिए कबीर उतने ही प्यारे हैं जितना मुझे मेरा इश्क प्यारा लगता हैं । यदि सही में कहूँ तो मैंने कबीर को अपने जीवन में गुंथकर ही इश्क के मैदान में कूदा और ऐसा कूदा कि अब वहां से निकलने के सारे दरवाजे भूल चूका हूँ । आज के इस भीषण समय में मुझे कबीर ही अपने परिवार के एक सदस्य की तरह ही लगते हैं । मैं बहुत पहले अपने गाँव पहाड़ीपुर में एक सूरदास के मुहँ से कबीर को सुना था लेकिन उस समय जीवन की बहुत अच्छी समझ नहीं थी लेकिन उस समय भी यही अनुभूति हुई थी की अन्दर कुछ हैं जिसकी बात हम कभी नहीं सुनते हैं और वह अन्दर कोई और नहीं बल्कि अपनी ही विराट प्रतिमा होती हैं जो कभी बाहर तो कभी भीतर जाने का एक प्रयास करती हैं । आज टिमनिया जी के पास बैठकर कबीर को सुन रहा था और ऐसे में यही लग रहा था की मैं कबीर के साथ काशी में बैठकर अपने प्यार के लिए एक धागा बुन रहा हूँ ........घंटो बैठकर अपने आंसुओ से खुद को सीचते हुए अपने जीवन के लिए एक बेहतर रास्ता बनाने के बारे में सोचने लगा । यदि मेरा समाज मानस के साथ --साथ कबीर का भी अपने घरों में नियमित पाठ करे तो शायद आज हमारे समय में कुछ परिवर्तन होना शुरूं हो जाये ............

Saturday 1 June 2013

ऋतुपूर्णो घोष

ऋतुपूर्णो घोष जीवन और जगत के प्रति उतने ही सजग और संकल्पधर्मी थे, जितने वे अपने कलात्मक फिल्मों के प्रति । उनकी फ़िल्में बाज़ार से समझौता किये बगैर ही एकबानगी के साथ निरंतर बाज़ार से मुठभेड़ करती   हुई   अपनी अकथ संवेदना को ताजगी से युक्त एक विशेष स्थान देती हुई ,अंतर्मन के दस्तावेज को एक व्यापक रंग से दीप्त करती हैं । एक प्रयोगधर्मी कलाकार अपने जीने के लिए और अपने साथ युग की पीड़ा से सरोकार रखते हुए मंत्रमुग्ध होकर एक सपाट व्याकरण रचता हैं । और यह अपने आप में एक ऐसा व्याकरण होता हैं जो संवेदना के स्तर पर एक फ़लसफ़ा का रूमानियत ठांचा खड़ा करता हैं,जो कभी दरकता नहीं हैं ।
समकालीन भारतीय सिनेमा के किसी भी परिदृश्य में उनको समेटकर नहीं रखा जा सकता हैं । वे बांगला फिल्मों में एक स्थायी स्तंभ थे ,लेकिन जागतिक फिल्मों की धारा में भी उनकी प्रतिभा उतनी ही जोरदार तरीके से हस्तक्षेप करती हैं जीतनी की बांग्ला फिल्मों में । एक तरफ समान्तर सिनेमा उन्होंने सत्यजीत राय की परंपरा को बिल्कुल मौलिकता के साथ अपनी कला में जीवित रखते हुए ताउम्र चलते रहे । बांग्ला फिल्मों से अलग हटकर हिंदी /उड़िया अंग्रेजी में भी एक नये विचार के साथ इन फिल्मों में लगातार एक नया प्रयोग करते रहे । मैंने सिर्फ उनकी एक ही फिल्म वो भी कलकत्ता में सन २ ० ० ६ में चोखेर बाली देखी थी, तभी से मैं उनकी प्रतिभा का कायल हो गया था । वे जैसा अपनी कला में नयेपन का प्रयोग करते थे ठीक उसी तरह वे अपने निजी जीवन में भी एक प्रयोग करते थे ।
उनकी हर तरह की फिल्मों में बंगाल की विरासत एवं कलात्मक संस्कृति का अतभुत पुट देखने को मिल जाता हैं । उनकी  बौद्धिकता और संवेदना ही उनकी शिल्प की बुनियाद थी । उनकी फिल्मों में ज्यादर संवाद रंग और मौन की भाषा के माध्यम से ही होता हैं ......


नीतीश मिश्र 

Friday 31 May 2013

बनारस में लोई

आज मैं काशी से दूर ...
फिर भी मैं अपने प्रेम के पास हूँ
मैंने काशी में लिखा था
अपने माँ के साथ
अपने जीवन का पहला प्यार ...

जबकि आज काशी में कबीर नहीं हैं
इसके बावजूद भी वहां कबीर का प्यार
लोगों के जुबान पर पान की लाली की तरह
सभी ने अपने होंठों पर सजा कर रखा हैं ....

कबीर ने लोई के लिए लिखी
बहुत सी प्रेम की कविताएं
पर लोई नहीं लिख पाई कबीर के लिए कोई भी कविता ....

लोई सिर्फ प्रेम को अपने गर्भ में पालती रही
और आज काशी इसलिए चमक रही हैं
क्योकि लोई एक ज्योति की तरह
गंगा में बह रही हैं ..........

Friday 24 May 2013

आज मैं बहुत खुश हूँ ....

आज मैं बहुत खुश हूँ ....
मेरी प्रेमिका डाक्टर हो गयी हैं ...
और मैं
अस्पताल का गंभीर मरीज
वो आज बहुत खुश हैं
क्योकि मेरी प्रेमिका रहते हुए
वो जो नहीं कर पाई थी ...
आज वह सब कुछ करने जा रही हैं ...

उसे ऐसे में देखकर
नहीं लगता हैं की आज यह मेरी प्रेमिका हैं
अब ऐसा लगता हैं की
वह कोई मेरी दादी माँ हैं ...

अब बात -बात पर
मुझे बहुत सी कहानियां सुनाती हैं
जीवन के व्याकरण के रहश्य को खोलकर
दवाइयों में घोलती हैं ....

पहले उतनी पास नहीं आती थी
जिस्मों की सरहदों पर खड़ी होकर
प्यार करते हुए शरमा जाती थी .....

पर अब मेरे जीवन को बचाने के लिए
एक नया इश्क का व्याकरण बना रही हैं ....
वह जानती हैं की
मैं उसका डूबता हुआ कोई सूरज हूँ
और मेरे अंदर जो लालिमा हैं
यह उसका अपना प्यार हैं ....
और वह अपने प्यार को अब अँधेरे में नहीं खोना चाहती हैं ...

इसलिए मेरे मृत्यु के पास बैठकर
एक संगीत की ज्योति जलती हैं ....
वह मुझे काशी में कभी नहीं मरने देगी
क्योकि वह कब तक मेरे पास रहेगी
काशी मेरे पास कभी नहीं आएगा ....
क्योकि मेरी प्रेमिका मेरी कविता भी हैं
और मेरे अंधेरें की एक रोशनी भी .....


नीतीश मिश्र 

Monday 20 May 2013

मेरी आस्था की लौ

तुम आती हो ...
और एक एहसास बनकर 
मेरे दिल की केतली में 
उबलने लगती हो ......

और मैं तुम्हें अपनी सांसों की डोरी में बांधकर 
तुम्हारे देह के आकाश पर 
अपनी अनंत संभावनाओं को 
रंगने लगता हूँ 
यह सोचकर अब तुम्हारी संगत में मेरी मुक्ति हैं ........

इसी बीच इस तरह के सपने 
धूप में सुखकर 
मुझे डूबते हुए सूरज के पास खड़ा कर देते हैं 

पता नहीं क्यों मुझे लगता हैं कि मैं 
कहीं काशी में तो नहीं मर रहा हूँ .......
तभी मेरे कदमों की आँखे बादलों का साथ पकड़कर कर 
मुझे सूने से पहाड़ पर लेकर चले जाते हैं ...
जहाँ मेरे सपने एक रंग की तरह महकते हुए 
वर्षों से मेरे इंतजार में 
एक लम्बी संगीत की श्रंखला को सजाएँ हुए हैं .....
इन्ही पहाड़ियों के झरोखों से मुझे लगातार कोई 
बुला रहा हैं .....
उसका चेहरा और उसकी आवाज बिल्कुल जानी पहचानी सी लगती हैं .....

तभी सोया हुआ तालाब जाग जाता हैं 
और कहता हैं 
मैं कबसे बुला रहा था रक्ताभ पुरुष 
कहाँ थे तुम इतने दिन 
मैं कब तक तुम्हारी हरेक संभावनाओं को 
बचाकर रखता ......
इसी बीच चाँदनी के बीच से एक 
आवाज मुझे मेरा नाम लेकर बुलाती हैं 
आओं ...मैं ही तुम्हारी संगीत हूँ 
मैं ही तुम्हारी सफ़र हूँ ....
ये आवाज सपनों से बिल्कुल मिलता --जुलता सा लगता हैं ....

पहाड़ मेरे हर अभव्यक्ति को बचाकर रखे हुए हैं .....
मैं आज खुश हूँ ....
मेरी आस्था की लौ 
पहाड़ों में चाँदनी की तरह चमक रही हैं ....
पहाड़ में डूबता हुआ सूरज जितना सुन्दर लगता हैं 
ठीक उसी तरह पहाड़ में मेरा प्यार भी सुन्दर लगता हैं ........




Monday 8 April 2013

एक लड़की के लिए प्रेमपत्र

एक लड़की के लिए प्रेमपत्र 
धरती के टुकड़े के बराबर होता हैं 
और लड़की प्रेमपत्र की आँच में 
बनाने लगती हैं एक ऐसी दुनिया 
जो यथार्थ से भी खुबसूरत होती हैं 
जब लड़की प्रेमपत्र पढ़ती हैं 
तभी वह लिखने लगती हैं 
अपनी मुक्ति की गीत 

एक लड़की के लिए प्रेमपत्र 
उसके समय का सबसे बड़ा सच होता हैं 
प्रेमपत्र की आवाज से 
लड़की इतिहास को भूलती हुई 
वर्तमान को अपनी हँसी से पकड़ी रहती हैं 
और एक समय के बाद प्रेमपत्र 
हथियार बन जाता हैं 
और लड़की गढ़ लेती हैं 
अपने लिए एक भाषा 
जिससे अपनी मुक्ति की कहानी लिख सके 

एक लड़की के लिए प्रेमपत्र 
किसी देवता से कम नहीं होता हैं 
वह प्रेमपत्र को बचा कर रखती हैं 
इस उम्मीद से की 
मौत के वक्त भी यह प्रेमपत्र उसके 
साथ ही जायेगा .............


नीतीश मिश्र 

Wednesday 3 April 2013

लड़कियां लिख रही हैं प्रेमपत्र।

अब कल से गुलर में भी
फूल दिखाई देगा
आकाश का रंग और
नीला हो जायेगा,
और नदियाँ फिरसे
लिखेंगी सभ्यता की कहानी
क्योकि धरती की सारी
लड़कियां लिख रही हैं प्रेमपत्र।

पहली बार अपनी मुक्ति का सफ़र
अपने प्यार के साथ ही शुरू होता हैं
जबसे लड़कियों को पता चला हैं कि
चाँद का मुंह टेढ़ा होता हैं
तबसे वे शर्माना छोड़ चुकी हैं

लड़कियां अब धूप की तरह आजाद होकर
लिख रही हैं धरती पर प्रेमपत्र
एक लड़की मेरे लिए
गंगा के किनारे पर खड़ी होकर
अपने प्रेमपत्र में लिख रही हैं
अपनी हंसी ..............


नीतीश मिश्र 

Tuesday 2 April 2013

प्रेमपत्र की आवाज

आओं चले 
और बनाए 
प्रेमपत्र की 
कुछ रंग बिरंगी 
पतंगे 
और उड़ा दे आकाश में 
ताकि सब पढ़ सके .......

या प्रेमपत्र में लिखे हुए शब्द को 
भर दे किसी बांसुरी में 
जिससे प्रेमपत्र की आवाज सब सुन सके 

या प्रेमपत्र को बना सके एक दीया 
जिससे सब अंधेरें में पा सकें अपना प्रेम 

या अपने प्रेमपत्र को बना दे एक आईना 
जहाँ सभी अपने चेहरे पर लिखे हुए 
शब्द को पढ़ सके .........
या प्रेमपत्र को कपास के साथ धुन कर 
बना सके कोई कपड़ा ......
जिसे पहन कर आदमी कम से कम एक बार प्यार कर सके 
या प्रेमपत्र को बना दे कोई मंत्र 
जिसे पढ़कर लोग मुक्त हो सके ...........

नीतीश मिश्र ..........
.

एक किसान मरता नहीं हैं

   जो अपनी मौत नहीं मरते
वो भूत बनते हैं या बैताल
तब क्या मान लिया जाये ?
हमारे सारे किसान आत्महत्या के बाद
भूत बन गए होंगें

और एक ऐसा भूत जो
धरती के बाहर भी चैन से
जी नहीं पाता हैं
और धरती के सबसे बेकार जगह ही
अपने अस्तित्व के साथ रहता हैं

धरती पर जब भी जनगणना होती हैं
किसानों की संख्या ही अधिक होती हैं

और धरती के बाहर जब जनगणना होती हैं
तब मरने वाले की संख्या भी किसानों की ही
ज्यादा होती हैं ...........

एक किसान मरता नहीं हैं
बल्कि मार दिया जाता हैं
और वह कभी अकेला नहीं मरता
बल्कि उसके साथ मर जाती हैं हमारी सभ्यता भी .........


नीतीश मिश्र

Monday 1 April 2013

एक सबसे अच्छा काम किया

एक पागल जब भी
अपने प्यार के बारे में
बात करता हैं
सागर की तरह खुश होकर
सब कुछ खोलकर रख देता हैं

अपने प्यार को याद करते हुए
वह सूरज से भी सुन्दर दिखने लगता हैं
जबकि उसके पास नहीं हैं कोई प्रेमपत्र
यदि कुछ हैं उसके पास
जो भरोसे के लायक हैं तो
....उसकी प्रेमिका का नाम
जो अभी भी
उसके ओंठों पर अंकित हैं
अगर वह नहीं भी बताये तो
भी उसके ओंठों को पढ़कर
जाना जा सकता हैं कि
क्या रहा होगा उसकी प्रेमिका का नाम ?


उसे ख़ुशी हैं की
वह नहीं बना सका
प्यार के छोटे ---छोटे ताजमहल

वह अपने प्यार में
अगर कुछ बना सका तो
थोड़ी बहुत कविता
और कुछ गीत
और कुछ हद्द तक अपने
चेहरे पर न मिटने वाली एक हंसी

आज पागल को यह भी नहीं याद हैं कि
वह कहाँ रहती थी
और कहाँ अंत में चली गयी
ऐसे प्रश्नों का उत्तर नहीं हैं उसके पास

बस अगर कुछ हैं उसके पास तो
सिर्फ कुछ शब्द हैं
जिसका आसरा लेकर कहता हैं कि
वह बारिश से भी खुबसूरत थी
और भूख से भी ज्यादा मुलायम थी

एक पागल आज खुश हैं
क्योकि वह अपनी जिंदगी में
सबसे सही काम किया हैं
किसी से प्यार करके

पागल कहता हैं
क्या हुआ मैंने नहीं बनाया अपने लिए कोई घर
या नहीं देख पाया प्यार के अलावा कोई दूसरा सपना

नहीं गया तीर्थ करने

लेकिन प्यार करने के लिए जरूर
कई बार धरती के चक्कर लगाया ।


एक पागल आज खुश हैं
यह सोचकर की
धरती पर आकर उसने
एक सबसे अच्छा काम किया
किसी से प्यार कर के



नीतीश मिश्र 

Wednesday 27 March 2013

कब्रिस्तान में आत्माएं आजाद रहती हैं

कब्रिस्तान में
आत्माओं का
कोई माँ/बाप
या भाई -बहन नहीं होता,
इसीलिए
आत्माओं के अन्दर
कोई डर भय नहीं होता।

कब्रिस्तान की आत्माएं
इंद्र की अप्सराओं से
कहीं अधिक स्वतंत्र हैं
इंद्र के यहाँ श्राप और अपहरण
का भय बराबर बना रहता हैं ।

कब्रिस्तान में आदमी
खाना नहीं खाता हैं
और बच्चे भी नहीं पैदा करता हैं,
कुरान की आयते वहाँ राख हो चुकी होती हैं,

कब्रिस्तान में आत्माएं आजाद रहती हैं
और बीमार भी कभी नहीं पड़ती हैं
और पढ़ती भी कभी नहीं हैं
और तो और वहाँ
काले --गोरे का भी कोई भय नहीं होता हैं
कब्रिस्तान में आत्माएं बस प्यार करती हैं
धरती पर कब्रिस्तान ही एक ऐसी जगह हैं
जहाँ आदमी आज़ाद होकर
सिर्फ प्यार कर सकता हैं ..........


नीतीश मिश्र 

Sunday 24 March 2013

तेरी यादों के साथ

तेरी यादों के साथ 
रात का गुजरना 
कुछ और ही होता हैं 
मेरी कविताये 
बिस्तर पर मुझसे 
नाराज होकर 
करवट बदलती रहती हैं 
और हवा का हर झोंका 
मेरे बदन पर 
तुम्हारी अनकही बातों को 
लिखती --रहती हैं 
थिड़कियों  से झांकता पेड़ 
तुम्हें आईना समझकर 
देखता रहता हैं 
खुदा के फरिस्तों को 
वहम हो जाता हैं 
कहिं कोई दूसरी दुनियां तो 
नहीं बनने जा रही हैं 
तेरी यादों के साथ रात गुजारना 
कुछ और ही होता हैं ।।

नीतीश मिश्र 

तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद
कुछ भी फर्क़ नहीं पड़ा
नाखूनों का बढ़ना उसी तरह जारी रहा
और बालों का हवा में उड़ना भी
शाम का सूरज
जब चला जाता था
झाड़ियों में किसी से मिलने
अपने ही घर में
डर की बारिश में भींगता रहा देर तक
मेरी आत्मा में ही
सूर्यग्रहण होना शुरू हो गया ।

तुम्हारे जाने के बाद
पेट में पहले की तरह ही
एक गुदगुदी होती थी
तुम्हारे जाने के बाद
आँखों में नींद नहीं आती हैं रात भर
क्योकि आँखों ने
सजा के रखा हैं
तुम्हारे बहुत सारे सामान को । ।


नीतीश मिश्र 

लड़की खुश हैं

आज कुरान के पन्ने
हवा में उड़ने लगे
और बहुत से पैगम्बर
जिन्दा हो गए
मस्जिद की दीवारे
दरकने लगी
और खुदा भी क्रूर हो गया
और हवा की रुख भी
बदलने लगी।
क्योकि आज एक लड़की ने
प्यार करना शुरू कर दिया
इस्लाम खतरे में हैं का हवाला देकर
लड़की को
मारने की तैयारी हो रही हैं
और लड़की भी
आज बहुत खुश हैं
क्योकि वह आज प्यार करते हुए मर रही हैं।।


नीतीश मिश्र 

अपना आईना बना रहा हैं

नैनीताल के पहाड़ो से
नीचे उतरते हुए
बस्तियां ऐसी लग रही थी
जैसे --जमीन पर खुदा ने
जलेबी छान कर रख दी हो ।

कुछ नीचे उतरते हुए
देखा ,एक पागल हवा में
अपना आईना बना रहा हैं
कभी अपनी हँसी का रंग -बिरंगा फूल
आसमान में गुँथ रहा हैं ।
और अपनी आँखों में
दुनिया की तकलीफ़ लेकर
फरिस्तों से तकरीर कर रहा हैं
उसे ऐसे में देखकर लगा कि
मैं रात में इसलिए ख्वाब देख पाता हूँ
क्योकि कोई मेरा दर्द
लेकर दिन -रात चलता हैं
अब धरती पर एक पागल ही बचा हैं
जो अपने सूरज को कभी डूबने नहीं देता हैं ।।


नीतीश मिश्र

Thursday 21 March 2013

कहीं कुछ हुआ हैं

मेरी हर साँस कहती हैं 
कि कहीं कुछ गलत हुआ हैं 
क्योकि अब नहीं सुनाई देती हैं 
गलियों में बच्चों की आवाज 
और न ही 
पुकारती हुई बच्चों की 
माँ की कोई आवाज ।
कहीं कुछ हुआ हैं 
क्योकि आसमान में 
परिंदे अब सहमे --सहमे से 
नज़र आते हैं 

कहीं कुछ हुआ हैं 
क्योकि अब कोई नहीं 
लिखता प्रेमपत्र 
कहीं कुछ ऐसा हुआ हैं 
हर राहगीर को बताना पड़ता हैं 
अपना नाम और अपनी जाति 
फिर भी उसे अपना ठिकाना नहीं मिलता हैं ।

कहीं कुछ ऐसा हुआ हैं 
धरती पर अब नहीं दिखाई देती हैं 
लड़कियों के पाँव के निशान 
कहीं कुछ ऐसा हो गया हैं कि 
अब हर पल सुनाई देता हैं 
कभी किसी जंगल के रोने की आवाज तो 
कभी किसी नदी के चिल्लाने की आवाज 
कभी पहाड़ के पागलपन की आवाज 
कहीं कुछ हुआ हैं 
कोई नहीं लिख रहा हैं कविता कि 
लोग जाग जाये 
कहीं कुछ हुआ हैं 
कि लोग सो रहे हैं 
और कब्रिस्तान जाग रहा हैं ।।

नीतीश मिश्र 

रंग

शाम की रंग 
आकर 
बैठ जाती हैं 
मेरी यादों के 
संग 
जहाँ मैं 
आसमान के 
कैनवास पर 
कुछ देर के 
लिए 
रंगना चाहता हूँ
तुम्हारा एक क्षण का प्यार
जिससे मेरे हिस्से का
आसमान मुस्कुराता रहे ।।

नीतीश मिश्र

साँसे


आज समंदर 
भी कुछ उदास हैं 
और थोड़ा बहुत 
आसमान भी 
क्योकि 
आज तुम नहीं आयी 
मेरी मजार पर 
लेकिन ये 
साँसे  उदास नहीं हैं 
क्योकि तुमने 
बांध लिया हैं मेरी साँसों को 
अपनी साँसों से ।।

नीतीश मिश्र 

Wednesday 20 March 2013

आदते

पागल:
अपनी आदतों
से ...
गंभीर
ज़िमेदार तरीके से
प्यार करता हैं।
प्यार करना उसने कहाँ से सीखा?
किससे सीखा ?
मैं आज तक नहीं जान पाया
गाली देना सीखा
पूरी जिंदगी
गाली!सिर्फ़ गाली देता
बिना किसी परवाह के । 


नीतीश मिश्र .....


क्या कल तुम अओगी?

क्या कल तुम अओगी?
जब मैं सूरज से लड़ता हुआ,
अपनी सांसों की आयतों में
अपनी अनगिनत मृत्यु का
साक्षी भर रहूँगा |
या जब, मैं अपनी हथेलियों में
सूरज को रखकर,
सीने में,दिन को थाम के
खड़ा रहूँगा ........
क्या तुम ऐसे में आकर
मेरी देह से टपक रहे लहूँ
को रंगकर
मेरी मौत को एक ....
उत्सव बना सकती हो,
यदि ऐसा कर सकती हो
तब जरूर आओं.....[नीतीश मिश्र ]

कब्रिस्तान में लोकतंत्र

कब्रिस्तान में आत्माएं
भीख नहीं माँगती हैं
और न ही किसी
पीर -फकीर को पूजती हैं।

क्योकि आत्माएं
जानती हैं
सारी बुराइयाँ
संचित धन से ही आती हैं,

कब्रिस्तान में
लोकतंत्र की जड़े
बहुत मजबूत होती हैं
इसीलिए
आत्माओं का" मैं"
वहाँ मर जाता हैं
और कब्रिस्तान में
कोई बड़ा या छोटा नहीं होता हैं । । '

मेरी माँ की बुद्धि

मेरी माँ के हाथों में

कुछ ऐसा हूनर था कि

वह ख़राब से ख़राब चीज़ को भी

बहुत ही सुन्दर बना देती थी ,

जीतनी सुन्दर मेरी कल्पना होती थी

उससे भी कहीं ज्यादा खुबसूरत

मेरी माँ की बुद्धि थी |

जबकि वह बहुत ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी

अगर कोई उससे डिग्री के बारे में

नहीं पूछता तो

वह कभी नहीं समझ सकता था की

माँ कभी स्कुल नहीं गयी हैं ||

जब मैं खुद से खेलते -खेलते थक जाता था

और मेरे देखें हुए सपने जब पुरे नहीं होते थे

उस कठिन समय की .....

सबसे अच्छी दोस्त माँ थी

मैं यह सोचकर खुश हो जाता था की

अब तो मेरी सारी परेशानियाँ

माँ चुटकी बजाकर हल कर देगी

और सपनों को पूरा करने का ढेर सारा

व्याकरण बता देगी

माँ अनुभव की एक प्रतिमा थी

जीतनी खुबसूरत वो थी

उतना ही खुबसूरत उसका अनुभव था

ऐसे में वह

धीरे से मुझे अपनी गोदी में खींचकर

मेरे पाकेट में कुछ पैसा रख देती

और मेरें गंदें नाख़ून को काटती,

बालों में तेल लगाती,

बाबूजी की कई सारी बात बताती ,

और मुझे किसी प्रिय सामान का लालच देकर

मुझसे वचन लेती -----

[की तुम एक दिन मेरा सबसे अच्छा बेटा बनेगा ]

मैं उसकी तरफ देखकर

धीरे से सर हिला देता ,

वह मेरें फटे हुए कपड़ों की तुरपाई करके

मेरी फटी हुई आत्मा को नई कर देती

मेरी माँ मेरे लिए एक रोशनी हैं

आज जब मैं कभी खुद को टटोलता हूँ

तो हर जगह मैं अपनी माँ को ही पाता हूँ

आज भी यह लगता हैं की

मेरी मुस्कुराहटों को माँ ही दिन रात सजाती हैं ||

मेरें गाँव में एक सड़क होती

अगर मेरें गाँव में

एक सड़क होती

तो आज मेरें बच्चें के पांव की

तकदीर कुछ और ही होती,

और मेरें लिए भी

कुछ कम सुविधाजनक नहीं होती

मैं भी सडकों पर

चलने का व्याकरण सीख लेता |

शहर में जाकर दावा करता की

मैं भी एक सभ्य आदमी हूँ

क्योकि मैं शहर की भीड़ में

चलना सीख लिया हूँ

लेकिन मैं जानता हूँ की

मेरा यह सपना कभी पूरा होने वाला नहीं हैं

क्योकि सरकार के पास गरीबों के

लिए समय नहीं हैं .......

इसलिए मैं अपना नंगा चेहरा पहनकर

और सीना तानकर कहता हूँ

अब यह बोझ हम नहीं उठाएंगे

और नींद में भी चिल्लायेगें

यह खेत --खलियान हमारा हैं

क्योकि हमारे बच्चें सीख लियें हैं क़ि

एक जंगल में रास्ता कैसे बनाया जाता हैं ||

माँ से अलग हो कर

जब हम माँ से अलग हो कर

परदेश जाते थे ,

आँखों में दर्द की लहरें उमड़ने लगती|

उस वक्त यही लगता की हमने

ऐसा कौन सा गुनाह किया हैं

जिसकी यह सजा मिल रही हैं

कि एक बच्चा अपनी माँ से अलग हो रहा हैं

लेकिन परदेश में पढाई के लिए जाना जरूरी था

और मुझे सभ्य बनाने के लिए

माँ हर क़ुरबानी देने के लिए तैयार थी

मैं अपने सपनों को .....

माँ के पास सुरक्षित रख देता

और खामोश आकाश में छुपने के लिए

एक जगह तलाशता था

कि इतने में माँ धीरे से आवाज देकर बुलाती

और अपने कलेजे से लगाकर कहती ----

कि तुम परदेश में भी बहुत ही खुश रहोगें

वहां भी मेरी दुआ साथ रहेगी

इतना सुनते ही मैं भी हंसते हुए कहता

कि परदेश क्या चीज हैं ?

जब तक तुम्हारी दुआएं हैं तब तक ही यह जहाँ हैं

जब इतनी सी बात हो जाती तो

कान के पास आकर कहती कि

वहां अगर मेरी कितनी भी याद आये

तो एक मिनट के लिए भी मत रोना

नहीं तो लोग क्या कहेगे कि .....

एक माँ का बेटा कितना कमजोर दिल का हैं ?||

अपनी माँ से

मैंने अपनी माँ से

जीवन से लड़ने का कई

व्याकरण सीखा,

जो बात मैं महीनो में

नहीं सीख पाता था,

माँ के साथ खेलते हुए

पलक झपकते ही सीख लेता था |

माँ मेरी आत्मा पर हाथ रखकर

मुझे धुप /बरसात

ठण्ड /गर्मी से बराबर बचाती रही

उसकी हर सांसों में

मेरें खुश रहने की बातें छिपी रहती थी,

दूसरों से :

वह जब भी बातें करती

तो मुझे राजदुलारा घोषित कर

अपनी प्रतिभा पर

थोड़ी देर के लिए खिलखिलाकर हंसती

मेरें ऊपर अगर कोई दुःख पड़ता

वह ऐसे में .....

भगवान से भी लड़ने के लिए तैयार रहती

और आँगन में बैठकर

आकाश को घूरती

और पेट भरकर भगवान को गरियाती थी

फिर शांत होती

और क्षमा मांगती

ऐसे में मैं उसे देखकर

मैं जब कहता की ....

तू मेरे लिए कहाँ --कहाँ लड़ती फिरोगी ?

वह मुस्कुराती हुई कहती थी की

मैं :तो बहुत -ज्यादा पढ़ी -लिखी नहीं हूँ

हाँ !लेकिन इतना जरूर जानती हूँ

तुम्हारें सुख के लिए

मैं जीवन भर किसी से भी लड़ने के लिए तैयार हूँ ||

मैं अब बहुत खुश हूँ

मैं अब बहुत खुश हूँ

क्योकि मेरें आँगन में

अब थोड़ी सी मीठी धूप भी आती हैं,

और रोशनी की तरह प्रेयसी की ठेर सारी यादें |

मैं अब बहुत ही खुश हूँ

क्योकि मेरें पास अब एक मौन का धरातल भी हैं

जहाँ से मैं सुनता हूँ

औरों के रोने की आवाज

और उसे अपने हिस्से का दर्द मानकर

लड़ने के लिए

सुबह --सुबह प्रतिबद्ध हो कर

अपने घर से निकलता हूँ

क्योकि यह मेरें समय का मुहावरा हैं

कि दूसरों के दुःख के लिए लड़ना

मुक्ति का एक पथ बनाने के बराबर हैं ||

माँ को जी भर कर देख सकूँ

अगर मेरी मौत भी हो तो

माँ की आँखों के घने

साये के छाँव में हों,

कम से कम मैं मरने से पहले

माँ को जी भर कर देख सकूँ |

क्योकि उसी ने मुझे रात--दिन

गढ़कर एक आदम बनाया हैं

मरने से पहले

उसके हाथों को छू लूँ

जिसकी अँगुलियों ने हमेशा

मुझे एक रास्ता दिखाया हैं ||

जब कभी वतन से बाहर जाता हूँ

मेरी हर साँस की लय में

उसकी ही यादें बरसती हैं

मुझे अपने वतन के सरहद का एहसास

तब होता हैं .....

जब माँ मुझे गले से लगाकर कहती हैं

तूँ: एक दिन

अँधेरें की रोशनी जरूर बनेगा ||

जागीर

बाबूजी के शोहबत की

जागीर कुछ कम न थी,

लेकिन माँ की दुआ के आगे

उसकी रौनक कुछ भी नहीं थी |

बाबूजी की कमाई से घर में

एक चिराग जलता था,

और माँ की मेहनत की लगन से

घर के कोने --कोने में,

चांदनी फैली रहती थी ||

बाबूजी की आँखों में

गुस्से का घना कोहरा छाया रहता था

और माँ की आँखों में

अक्सर बेला की खुसबू झरती थी

बाबूजी जब हम पर खुश होते

तो मेला दिखाने की बात करते

और एक माँ थी

जो चुटकी भर समय में ही

घर को एक मेले में तब्दील कर देती ||

आकाश को देखता हूँ

जब कभी आँगन में

खड़ा होकर

आकाश को देखता हूँ

सुने से आसमान में

माँ ही मुस्कुराती हुई दीखती हैं |

यह मेरी नज़रों का फेर नहीं हैं,

क्योकि मैं सबसे पहले माँ

की ही चेहरा देखा था इस दुनियां में |

मेरें गाँव में मेरा घर था

मेरें गाँव में मेरा घर था

वहां पर मेरे भाई --बहन थे,

माँ-बाबूजी वहां ....

एक फरिस्ते की तरह

दिन -रात ग़ज़ल गाते थे |

घर में एक सुग्गा था

जो मेरा सबसे प्यारा दोस्त था

और जो पेड़ थे

वो कुछ हमजुबां जैसे हो गए थे

और जो गलिया थी

वहां हम सबसे छुपाकर

अपनी जिंदगानी की

की कहानी लिखते थे ||

मेरी जिंदगी रोज मुझसे कुछ ना कुछ मागंती हैं

मेरी जिंदगी रोज मुझसे कुछ ना कुछ मागंती हैं
कभी किसी दूसरे के दर्द का हिसाब तो कभी
किसी के खोये हुए ख्वाब का अर्थ ......
कभी किसी के मंजिल का पता मांगती हैं
मैं अपनी जिंदगी से जितना ही दूर जाना चाहता हूँ
वह मेरे उतने ही पास आ जाती हैं
और एक आईने की तरह खड़ी होकर
मेरी नजरो में दुनियां की एक ऐसी तस्वीर पेस
करती हैं
जिसको देखकर मैं कुछ देर के लिए सिहर जाता हूँ
जब एक बच्चा आ कर अपनी माँ का पता पूछता हैं
या कोई मजदुर अपनी भूख कारण जानना चाहता हैं
मैं कुछ देर के लिए खामोश होकर
सोचने लगता हूँ की आखिर कार कब तक लोग बाग
अपने को दिलासा दिलाते रहेंगे
एक दिन कोई यूँ ही अपने हाथों में बन्दुक उठा लेगा
और अधिकार के साथ मागेंगा अपना खेत ....जमीन

मेरे पास जितना मेरा सच हैं

मेरे पास जितना मेरा सच हैं
जिसे मैंने जिया हैं
आज वही मेरी कविता हैं
और वही मेरी कहानी भी
मेरा जो बचपन हैं .....
वही मेरे जीवन का सबसे बेहतरीन जेवर हैं
जिसे मेरी माँ ने सीचा हैं और सजाया हैं
शायद आज बहुत कुछ इसी के चलते
मुझे हर बच्चे में अपना ही चेहरा दिखता हैं |
और मेरी जवानी लोहे की तरह
लोगो का एक सहारा बनकर चलती रही
इसीलिए मैं भीड़ को भी अपना एक परिवार ही मानता हूँ
जिंदगी में दर्द और लाचारी फुल की तरह खिले हुए मिले
इसीलिए तब मेरे अन्दर दुनियां को समझने के लिए
एक बेहतरीन हुनर मिला
मेरे सपने ठीक वैसे ही टूटते रहे
जिस तरह से मेरे घर का खपरैल टूटता रहा
इसीलिए मैं घर के होने की कीमत को समझता हूँ
रोज पेट की भूख को मजबूरियों से रंगता आ रहा हूँ
इसी गुण के चलते आज लेखक बनने की एक जिद कर बैठा हूँ
मेरे जीवन का सच उस छेनी के जैसा हैं
जो रोज मार खाने ने बावजूद भी अपना धर्म
कभी नहीं भूलती हैं

मैं कभी --कभी किताब पढ़ते हुए

मैं कभी --कभी किताब पढ़ते हुए

पन्नों में /शब्दों के बिच में ....

तुम्हें देखने लगता हूँ

इस तरह से तुम्हें देखने में

कुछ देर के लिए एक तसल्ली तो मिलती हैं

पर दूसरे पल ही ....यादों के रंग --बिरंगी चादरों में से

एक बदबू की महक आने लगती हैं

तब यह एहसास होता हैं की ....

मैं तुम्हे नहीं देखता हूँ

बल्कि अपनी कब्र खोदकर खुद को देखता हूँ

इस तरह से यादों के दुश्चक्र में मैं खुद को

हर तरफ घिरा हुआ पता हूँ |

इसलिए आज से मैंने यह तय किया हैं कि

तुम्हें अब देखने के लिए

तुम्हारी ही एक तस्वीर बनकर ही

तुम्हें देखने की एक कोशिश करूँगा

मेरी आँख और नींद में

मेरी आँख और नींद में हर रात

एक गुफ्तगू होती हैं ....

आँख हर पल नींद को अपने पास बुलाती हैं

नींद आँख से तकरीर करती हुई कपूर की तरह

उड़कर किसी बियाबान में विलुप्त हो जाती हैं

आँख बार --बार मुझसे कहती हैं

मरना तो एक दिन तय हैं |

फिर रोज़ --रोज़ जागकर यह तड़प क्यों सहा जाये

शायद !मेरी आँखों को अभी और भी कुछ देखना बाकि हैं

शायद वह इसीलिए अब एक पल के लिए भी आलस नहीं करती हैं

मैंने जो क्रांति का एक सपना आँखों में बुना था

उसी के इंतजार में मेरी आँख नहीं झपकती हैं

आँख की इस उम्मीद पर

मैं भी पूरी रात हँसता रहता हूँ

यह सोचकर की कल कोई मेरे मरते हुए

चहरे को देखकर यह न कह सके की

इसका सपना पूरा नहीं हुआ

और यह उदास होकर मर गया

मेरे हंसते हुए चहरे को जो शख्श एक बार देखेगा

तो एक क्षण के लिए जरूर सोचेगा

की मौत से कभी नहीं डरना चाहिए |

जब मैं रात में किसी सफ़र पर होता हूँ

जब मैं रात में किसी सफ़र पर होता हूँ

अकेले इतना अकेले की मुझे अपनी सांसों

की आहट से भी डर... बहुत डर लगता हैं

उस वक्त तुम बहुत याद आते हो |

और जब मैं युद्ध मैदान में बिना हथियार के

खड़ा होता हूँ .....उस वक्त भी तुम बहुत याद आते हो

और मैं बिना हथियार के लड़ते हुए भी

पराजित होता हुआ भी खुद को लज्जित महसूश नहीं करता हूँ

जानती हो क्यों ?

क्योकि इस कुलबुलाती हुई चेतना में तुम्ही एक नयी उर्जा भरती हो

काश !एक बार तुम बुझे अपनी बांहों में लेकर कहो की

एक बार फिरसे हिमालय से एक गंगा और उतार लाओं

तो मैं एक बार फिरसे एक और भागीरथ प्रयास करूँ

तुम मुझसे एक बार कहो की मैं इस दुनियां से लड़कर

लोगो को एक सुख भरी नींद दो

लोगो की थाली से दूर कर दो दुःख -दर्द

तुम एक बार अपनी बाँहों में लेकर कहो तो सही

तब देखो हर सुबह आसमान से सूरज नहीं निकलेगा

बल्कि लोगो की आवाज निकलेगी

की भाई मैं भी तुम्हारे साथ हूँ

इस कुलबुलाती हुई चेतना को आज कोई अर्थ दे दो

ताकि मैं युद्ध मैं लड़ता हुआ मरुँ भी तो

मैं यह अधिकार के साथ कह सकूँ की वह भी मेरे

साथ युद्ध में लड़ी थी |

मैं जाना चाहता हूँ

मैं जाना चाहता हूँ

उस आदमी के पास

जो पूरी ईमानदारी से जोड़ रहा हो,

बच्चों के टूटे हुए खिलौनों को

या गड़ रहा हो पेन्सिल या कोए किताब

या इजाद कर रहा हो कोए नया खिलौना

जो बच्चों के लिए एक सबक बन सके

या तराश रहा हो कोई ऐसी पाठशाला

जहाँ कोई जाति का रंग न हो,

मैं जाना चाहता हूँ

उस आदमी के पास

जो बनता हैं लोगो की टूटी हुई चप्पलें

मैं जाना चाहता हूँ उस मजदुर के पास

जो अपने सर पर आसमान लिए

पुरे शहर में घुमाता रहता हैं

मैं जाना चाहता हूँ उस आदमी के पास

जो बनता हैं लोगो के लिए आईने

ताकि लोग अपना चेहरा देखकर

कम से कम औरों को भी तो एक

आदमी माने ......|

जब आँगन में उतेरेगा आकाश

एक दिन
जब आँगन में उतेरेगा आकाश
और तुम चुनौगी
हांड़ी भर चावल का दाना,
और थोड़ा सा दिया भर तेल
और थोड़ी सी आग
एक दिन जब आकाश उतेरेगा आँगन में
तुम उसमे से कुछ हिस्सा निकालकर
जुट जावोगी बनाने में
कड़ाई/थाली
आकाश के कुछ हिस्सों से बनावोगी
बच्चो की खातिर कवितायेँ
थोड़ा सा पतंग के लिए कागज
और थोड़ा सा सिंदूर लेकर रंगोगी
अपना यथार्थ
जब आकाश उठेगा आँगन में
बच्चे बहुत खुश हो जायेंगे
क्योकि मैं आज तक नहीं खरीद सका
बाज़ार
से उनके लिए चंदा मामा
से उनके

जख्म खाए

मैंने जीवन के

दौड़ में जितने भी

जख्म खाए

उसमे भागीदार सिर्फ

माँ का कलेजा रहा

और जीतनी भी छोटी -छोटी

खुशियाँ भी पायी

तब माँ की आँखों ने

ही गरीबी में भी दीवाली मनायी ।

ठण्ड के खिलाफ़

ठण्ड के खिलाफ़ लड़ने के लिए

मेरे पास कोई गर्म कोट नहीं हैं

सिकुड़ते हुए बदन को

दोहरा करने का एक विकल्प शेष हैं ।

इसके बावजूद भी मैं .....

पतझड़ की तरह समपर्ण नहीं किया हूँ

क्योकि ठण्ड से लड़ने के लिए

मेरे पास एक ठोस विचार जो हैं ।

वे मुझे जाति से अलग कर दिए

वे मुझे जाति से अलग कर दिए

वे मुझे मेरे धर्म से भी अलग कर दिए

इसके बावजूद भी मैं चुप रहा ।

फिर वे मुझे मेरे खेत से भी अलग कर दिए

अब मैं चुप नहीं रह सकता

और मैंने भी उठा लिया हैं उनके विरुद्ध

अपनी आवाज का एक हथियार ।।

एक पागल की कथा

" एक पागल की कथा "
मुझे कुछ दिन से लोगों ने
पागल घोषित कर दिया
क्योकि मैं लीक पर चलने के
सरे व्याकरण को चुल्हें में झोंक दिया,
घर वालों के /जाति -धर्म वालों के
सबके अपने -अपने कायदे होते हैं
जैसे -बाजार के अपने कायदे होते हैं
बाजार में टिके रहने के लिए
बनिया बनना पड़ता हैं
ठीक वैसे ही घर में अपनी
जगह बनाने के लिए घर घुसना बनना पड़ता हैं ।
घर के लिए आप एक .....
ताखा /आलमारी बने रहिये
और बिना चेहरे के काजल की कोठरी में जमे रहिये
तब मिल जाती हैं लायक बेटें की उपाधि
ठीक वैसे ही ----
जैसे आजकल नपुंसकता भी
सभ्य होने की स्थायी गारण्टी हैं ।।
मेरा गुनाह सिर्फ इतना हैं
मेरा पाँव कुछ ज्यादा बड़ा हैं
और बाबूजी का जूता अब ठीक से नहीं बैठता
और बाबूजी के दिमाग का कोई सूत्र
मेरे घिताने से ऊपर नहीं चढ़ता
मैं घर वालों की निगाह में एक घुन हूँ
क्योकि मैं सरकार का कोई कुत्ता नहीं बन पाया
पर मुझे इस बात का रत्ती भर भी पछतावा नहीं हैं
मेरे लिए किसी सरकारी दफ्तर का आवारा
कुत्ता बनने से बेहतर हैं कि मैं हल्कू का झबरा कुत्ता बनकर
खेतों में दिन रात दौड़ता रहूँ ।
जब बाबूजी की हथौड़ी /छेनी नहीं सुधार पायी
तब वे घोषित कर दिये कि मैं पागल हूँ
मुझे नहीं चाहिए अपने भाईयों जैसा चरित्र
मैं खुश हूँ अपने पागलपन पर
क्योकि पागल होने पर मर जाती हैं अन्दर की कायरता
और बहार /भीतर का व्यक्तित्व बरगद की तरह
विशाल हो जाता हैं
अब यही मेरा आधार हैं जिस पर खड़ा होकर
मुझे लोकतंत्र की बघिया उघेडनी हैं
क्या इतना करने का साहस हैं आप में
मैं खुश हूँ अपने पागलपन पर
क्योकि अब मुझे घृणा नहीं होती हैं
कोड़ियों /अपाहिजों से .........
मैंने सरलता से तोड़ दिया रामचरितमानस के बंधन को
मैं पागल होकर अब खुश हूँ
क्योकि अब मैं किसी भी थाली में खा सकता हूँ
मेरे पास अब कोई शर्म नाम की कोई दिया नहीं हैं
मैं अब चिल्लाकर कह सकता हूँ की
हाँ !मैं उस लड़की से प्यार करता हूँ
शायद !अपना प्यार पाने के लिए और दूसरे के दर्द को
अपना मानने के लिए पागलपन से बेहतर
और कोई रास्ता शेष नहीं हैं
यही हैं मेरे जीवन का सत्य
मुझे ख़ुशी इस बात की हैं कि सत्य खोजने की राह में
मुझे कोई देवता नहीं मिला
बल्कि मुझे एक विचारधारा मिली कि चुप रहना
बहुत ही खतरनाक बीमारी हैं ।
मैं आज पागल होकर खुश हूँ
क्योकि अब मेरे पास जाति नाम की कोई सुविधा नहीं हैं
और मौसम भी अब मेरे विरुद्ध नहीं हैं
पहले --पहल जब सभ्य था
अपनी प्रेमिका की गली में एक बार चक्कर लगता था
और जबसे पागल हुआ हूँ
उसकी गली में ही डेरा डाल दिया हूँ .।।।

नीतीश मिश्र

पागल की भी अपनी दुनिया होती हैं

पागल की भी अपनी दुनिया होती हैं
और एक विचारधारा भी होती हैं,
सड़क हो या पगडंडी पर .....
हमेशा बांये चलने की आदत होती हैं।
पागल अपनी कुशलता के बारे में कभी नहीं सोचता
उसके पास अपने लिए सोचने का समय नहीं होता,
और रात भर जागते हुए रोशनी से
लड़ने की तरकीब खोजता रहता हैं
वह कभी -कभी रोता भी हैं,यह सोचकर कि
इस दुनियां में इतने समझोतावादी लोग क्यों हैं ?
वह:दुनियां से कुछ नहीं मांगता .....
मांगने की आदत तो कमजोरों में होती हैं
पागल तो सिर्फ, लोगों को देता भर हैं
कभी किसी के चहरे पर हँसी,
कभी किसी को कोई नयी सूचना ।[नीतीश मिश्र ]

एक लौ हैं,तुम्हारे नाम की

एक लौ हैं,तुम्हारे नाम की
एक रंग हैं -मेरे पास
जो तुमसे बहुत कुछ मिलता जुलता हैं,
और एक शब्द हैं ....
जिसमे तुम्हारी खनक हैं ।
एक आग हैं तुम्हारी यादों की
जो एक बारिश की तरह
मेरे बदन पर बरसती रहती हैं ।नीतीश मिश्र

मैं कहाँ लिखूं प्यार

मैं कहाँ लिखूं प्यार .....
जहाँ भी लिखता हूँ
कभी धर्म की धमकी,कभी जाति की धमकी
देकर मिटा देतों हो प्यार को ......
जैसे --तुम्हे घर जलाने में शर्म नहीं आती
वैसे -ही तुम प्यार को भी जला देतें हो,
उसके बावजूद भी मैं प्यार लिखता हूँ
कभी धूप के ऊपर/कभी हवा के ऊपर
और मैं लिखूंगा गंगा की लहरों के ऊपर प्यार
आओं मिटाओ प्यार को ......[.नीतीश मिश्र]

कल फिर सूरज डूबेगा,

कल फिर सूरज डूबेगा,
कल फिर नदी सुख जाएगी
कल फिर पेड़ के पत्ते, पीले
होकर छोड़ देंगे अपना घर,
कल जब नदी कुछ कहेगी ...
सुनकर दास्ताँ उसकी
लहू में आग लग जाएगी |
कैसे?दिन में ही
हजारों हाथ/लाखों दिमाग
उसके बदन के हिस्से से
अपने लिए कोई हीरा गढ़ते हैं,
जहाँ नदी सुरक्षित नहीं हैं
और चिड़ियाँ भी नहीं,
यहाँ,तक कि पत्थर भी नहीं
वहां,कैसे कोई आदमी/औरत
जिन्दा रह सकता हैं |
कल फिर एक बच्चा स्कूल से
गायब हो जायेगा,
कल फिर एक लड़की घर से गायब
हो जाएगी,
और अन्धेरें में चीखती रहेगी
बस आवाजें -आवाजें ....
आज और कल के बीच में
हम,मेमने कि तरह झूलते रह जायेंगे
और वे लिखते रहेंगे
कभी हमारे देह पर तो
कभी हमारे जीवन पर
अपने होने का एक नया महाभारत|.[नीतीश मिश्र ]

रात को अपने सीने में बांध लिया हूँ ......

देखो तुम ,
मैंने कैसे रात को
अपने सीने में बांध
लिया हूँ ......
मैं कोई सफ़ेद शब्द
नहीं हूँ
जो हवा के झोंखे
के मार के आगे
मैं अपना रंग बदल दूँ
मैं आग से निकला हुआ हूँ
मैं खून से रंगा हुआ हूँ
इसीलिए जलकर कभी
राख नहीं हुआ |
तुम्हारा हाथ अगर ...
मेरे हाथ से मिल जाये तो
कल हम हवा को भी
अपनी दिशा में मोड़ सकते हैं | नीतीश मिश्र ]

औरत जब भी लड़ती हुई दिखती हैं,

औरत जब भी लड़ती हुई
दिखती हैं,
मुझे यही लगता हैं की
अभी राख में कहीं कोई
चिंगारी बची हुई हैं,
औरत जब भी, अपनी मायूसी
तोड़ती हैं
तो यही लगता हैं की
धरती अब करवट लेने वाली हैं |
औरत जब आगे बढकर बोलती हैं
शब्द भी नंगा होकर
अपने नए अर्थ की खोज में लग जाते हैं,
औरत जब जागती हैं
वर्षों से सोयी नदी बुल्बुलाने लगती हैं
औरत आग हैं,पानी हैं /हवा हैं
जब भी बुझाने जाओगे
एक दिन अपने वजूद के
लिए रोओगे .......[नीतीश मिश्र ]

क्या कल तुम अओगी?

क्या कल तुम अओगी?
जब मैं सूरज से लड़ता हुआ,
अपनी सांसों की आयतों में
अपनी अनगिनत मृत्यु का
साक्षी भर रहूँगा |
या जब, मैं अपनी हथेलियों में
सूरज को रखकर,
सीने में,दिन को थाम के
खड़ा रहूँगा ........
क्या तुम ऐसे में आकर
मेरी देह से टपक रहे लहूँ
को रंगकर
मेरी मौत को एक ....
उत्सव बना सकती हो,
यदि ऐसा कर सकती हो
तब जरूर आओं.....[नीतीश मिश्र ]

सर्द:रातों में

सर्द:रातों में
जब हड्डियों में
शहनाईयां बजती हैं,
यादे भी झुलसने लगती हैं।
कापंती हुई यादों का
कब तक भरोसा करूँ
जब खुद आइने की तरह
स्थिर हो गया हूँ .....
पहले दिल गर्म होकर
कुछ देर उफनकर
अपना राग दोहराने लगता था,
पर जबसे काँपना शुरू किया
अब यही लगता हैं की
मैं चंद लम्हों का
बरसात हूँ ।[नीतीश मिश्र ]

दर्द:

अपने दर्द:को
अब खुद से छिपाकर
जीना ही .....
मेरे लिए यही एक
विकल्प हैं .....
आसमान में रखे
हुए सितारे टूट चुके हैं|
वह अब ऐसे रंग में
रंग गयी हैं
जिसे मेरी आँखे
अब पकड़ पाती नहीं,
मेरे पास इतना समय
शेष नहीं हैं
मैं अब खुद से पर्दा
करना शुरू करू|
अब अपने कलेजे को
यादों के लिफाफे में,
बंद कर के
पागलों की तरह
निर्विकार ...
निशेष होकर
गंध की तरह
शब्दों का आसरा लिए
हवाओं में अपनी
राग सुनता हूँ ....|[नीतीश मिश्र ]

रात की तक़दीर

रात की तक़दीर
कभी आँखों में
कभी बिस्तर पर
रह -रह कर ....
खाली हो जाती हैं
जैसे धीरे -धीरे
मेरा पैमाना
खाली होकर
मुझसे अलग हो जाता हैं।

मैं रोज कुछ न कुछ
खुद को खुद से ही
रिक्त पाता हूँ
क्या भरूँ ....?
जो भी जरूरते
पहाड़ से लड़कर भरता हूँ
यदि बाहर भरता हूँ
तो भीतर से बहुत
खाली हो जाता हूँ।

कभी लगता हैं
चलूँ इसका उपाय
किसी पंडित से पुछूं
पंडित बाहर -भीतर दोनों
और से खाली होकर
मुस्कुराता हैं
यह सोचकर की
बड़े दिन के बाद
कोई मोटा मुर्गा मिला हैं
चाहे उसे हलाल खाओं
या भुन के खाओं
आत्मा तो कम से कम
एक बार हरी होगी ....
पंडित के पास सुविधा हैं
शास्त्र का
जो उसे पाप से बचा लेता हैं।
लेकिन मैं तो ठहरा
कुदाल के बल पर
दिशाओं को खोदने वाला
मैं अपने पेट को
भला!कैसे धोखा दे सकता हूँ
तो मौत को ही स्वीकार कर लूँ
पर मौत भी जाति को पहचानती
हैं भाई,
जहाँ उसका सेवा सत्कार होता हैं
वहाँ सिरहाने बैठकर
व्यवस्था की चाकरी
करने लगती हैं।
मैं अगर धीरे --धीरे मरुँ
तो मेरी कायरता इसे मत कहना
तुम समझ लेना की
मैं व्यवस्था से लड़ने की तैयारी
धीरे -धीरे शुरू किया था
और मृत्यु शायद उसी तरह
मुझे धीरे -धीरे निगल रही हैं।।[नीतीश मिश्र ]

पागल:

पागल:
अपनी आदतों
से ...
गंभीर
ज़िमेदार तरीके से
प्यार करता हैं।
प्यार करना उसने कहाँ से सीखा?
किससे सीखा ?
मैं आज तक नहीं जान पाया
गाली देना सीखा
पूरी जिंदगी
गाली!सिर्फ़ गाली देता
बिना किसी परवाह के ।

मैं जब भी .... माँ को देखता

मैं जब भी ....
माँ को देखता
ईस्वर की आस्था लिए
अपने को बुनती -रहती थी,
और ईस्वर के बारे में
ऐसे बोलती थी
जैसे --ईस्वर से
अभी -अभी मिलकर आयी हो,
सुबह -सुबह ही
चली जाती थी
मंदिर में मिलने
उसके किसी भी कार्यक्रम में
मेरा हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं था
वह अनुभव से हर पल सजी रहती थी
ज्ञान पर ऐसे इतराती थी
जैसे -उसके पास कोई खजाना हो
और एक सलाह मुझे देती
"तुम सोमवार व्रत रहा करों ,
उसकी यह राय जंजीर जैसे लगती
लेकिन इससे एक फायदा हुआ
मुझे सोमवार दिन कभी नहीं भुला
क्योकि सोमवार को मेरा कमरा/कपड़ा
दोनों साफ मिलता
माँ शायद!उपवास करके अन्न बचाती थी
बाद में उसकी तरकीब समझ में आयी
जब शहर में ,मैं
अपनी भूख की
बहुत ही खूबसूरती से
रोज एक नए तरीके से
हत्या करता था।

जबकि आज माँ
अस्पताल में
उपवास करती हुई
महीनो से जगी हुई हैं
जैसे --मैं लड़ने के इंतजार में
वर्षों से जगा हुआ हूँ
अब यही लग रहा हैं
यह महीना सोमवार से भरा -पड़ा हैं
माँ की लड़ने की आदत बहुत पुरानी थी
कभी -भूख से ,कभी स्त्री होने की पीड़ा से
आज वह यमराज से लड़ रही हैं
वह भी बेहतर तरीके से
पर सोमवार के दिन से
मैं डर जाता हूँ
क्योकि इस दिन
माँ भूखी रहती हैं।।।। 

साथी मजबूत कर लो कंधें

साथी मजबूत कर लो कंधें
अब हमें नहीं जीना हैं
गुलाम इच्छाओं के नीचे,
हमारे पूर्वज अगर फेंक देतें
राजशाही,नौकरशाही ....
आज हम आजाद होकर
सीना तानकर कहते
हम आजाद परिंदे हैं
लेकिन!हम कायरों की तरह
भैंस हो कर
सिर्फ और सिर्फ जुगाली करते रहे

लेकिन अब हमें उठना ही होगा
नहीं अवतार होगा किसी का
अवतार बस तब होता हैं
जब गरीबों के मुहं से
मंदिर को रोटी छिनना होता हैं
अब हमें आँखों में पानी की जगह
लहू भरकर घर से निकलना होगा
किसी उदास सन्यासी की तरह
भगवान को नहीं खोजना हैं
हमें यदि कुछ खोजना हैं!
सिर्फ! वे सपने, जो कहीं राख होकर
किसी श्मशान में कराह!रहे होगें।

अब हमें निकलना ही होगा
सूरज भी हमारा तिलक करने के
लिए तैयार हैं,
गौरैया भी हमें शुभकामनायें देकर
कह रही हैं कि एक बार मेरें पेट के
लिए भी लड़ना
क्योकि मैं बहुत दिनों से भूखी हूँ,

गाय भी मुस्कुरा रही हैं
क्योकि हमारे जाने के बाद, वह
खुटा को लात मार देंगी।
हम लड़ेंगें उस पेड़ के लिए
जो अपना फल कभी नहीं खा पाया
हम लड़ेंगें हर मजदूर के लिए
जो पेट में पानी भरकर
कुए की तरह किसी दरवाजे पर
अपने सपनों को बेचकर मरते हुए
रोज जिन्दा होने का एक नाटक करता था
हम लड़ेंगे उस औरत के लिए
जिसे वासना से पराजित कर के
एक देवी का रूप दे दिया।
हम लड़ेंगें उस बचपन के लिए
जो अभाव के आगे दम तोड़ दीया
हम लड़ेगें अपनी जवानी के लिए
जहाँ हम सपनों के साथ जी नहीं पाए,
हम लड़ेंगे उस खेत के लिए
जो मौसम से रोज मारखाने के बाद भी
उसी के इंतजार में अब तक आँख खोल
के बैठा हैं
हम लड़ेंगें अपनी नींद के लिए भी
लड़ेंगें साथी मरते दम तक लड़ेंगे
हथियार से भी लड़ेंगें,शब्दों से भी
अपनी सांसों की हर एक बूंद से लड़ेंगें
लड़ कर मरेंगे
यु ही जवानी को अब
बदनाम नहीं करेंगे
साथी!अगर मैं मर गया तो
मुझे मेरी माँ के पास दफना देना ।।

नीतीश मिश्र

काम पर निकलने से पहले

आज काम पर निकलने से पहले
मैंने तय किया, आज धूप की तरह
खुश होकर महकुंगा,
आज किसी भी शर्त पर
उदासी को अपने पास नहीं आने दूंगा ..
सड़क पर चलते ही
पहली मुलाकात बच्चों की
टोली से होती हैं
जो अपने बचपन को बहुत पीछे छोड़कर
हाथों में काम का हुनर लिए
अपने चहरे पर लाचारी को पहनकर
अपनी मासूम जिंदगी को चौराहे पर बेच रहें हैं,
कुछ औरते महिला होने के भय से मुक्त होकर
पानी और धूप से बराबर लड़ने के लिए तैयार हैं
मेरे देश की दो तिहाई आबादी भूख के साथ
समझौता कर के आदमी होने के भ्रम से मुक्त होकर
दम तोड़ने के लिए अभिशप्त हैं ...........
भला!ऐसे लोगों के साथ रहकर
मैं कैसे खुश हो सकता हूँ .........
अगर मैं खुश होने का कोई कारण तलाश करूं
तब मैं देश का सबसे बड़ा हत्यारा साबित हो जाऊंगा ......

नीतीश मिश्र

Tuesday 19 March 2013

सफर

मैंने,कहा की 
सफर में तुम भी 
साथ रहों ......
वे कदमों कि 
वफ़ादारी तोड़कर 
मेरी आँखों में 
यादों के नाँव चलाने 
के लिए जिद्द कर बैठे हैं ...............

....................... नीतीश मिश्र .......

बिस्तर

मैंने,तुम्हारे बाद .....
अगर किसी को प्यार किया भी,
या तुम्हारें बाद अगर किसी के साथ 
सबसे अधिक वक्त गुजारा हैं तो ......
वह हैं मेरा बिस्तर।
ऐसा नहीं हैं कि ......
मेरा बिस्तर बहुत मुलायम हैं 
या मैं बहुत आलसी हूँ .......
जब भी बिस्तर पर होता हूँ तो 
लगता हैं कि मैं किसी हिमशिखर पर बैठा हूँ 
या समंदर के किनारे खड़ा हूँ
एक बात बिल्कुल साफ हैं
मैंने जितनी बातें पाठशाला में सीखी
उससे भी ज्यादा बातें मैंने
अपने बिस्तर पर ही सीखी हैं
जीतनी शांति लोगों को यश पाने के बाद मिलती हैं
उससे कहीं ज्यादा
मुझे अपने बिस्तर पर मिलती है।।।।

...........नीतीश मिश्र ..............

मुस्कान

मैं राम नाम के 
महामंत्र का जाप 
नहीं करता .......
मैं,मौन भी नहीं हो पाता 
हाँ!लेकिन मैं 
तुम्हारे नाम का 
अजपा जाप जरूर करता हूँ 
क्योकि मेरी मुक्ति का रास्ता 
तुम्हारी मुस्कान से,होकर जाता हैं।

.............नीतीश मिश्र 

झगड़ा

कब्रिस्तान में
दीवानी/फौजदारी
नहीं होती हैं
क्योकि वहाँ
चूल्हें नहीं जलते
और आत्माए
कपड़े भी
नहीं पहनती ।

शहर /घर अब
ख़त्म हो रहे हैं
क्योकि
वहाँ चूल्हे /कपड़े का ही अस्तित्व हैं
कब्रिस्तान में
बहुत शांति हैं
क्योकि वहाँ कोई
भ्रष्टाचार नहीं हैं ........।

नीतीश मिश्र


मैं जाना चाहता हूँ

मैं जाना चाहता हूँ

उस आदमी के पास

जो पूरी ईमानदारी से जोड़ रहा हो,

बच्चों के टूटे हुए खिलौनों को

या गड़ रहा हो पेन्सिल या कोए किताब

या इजाद कर रहा हो कोए नया खिलौना

जो बच्चों के लिए एक सबक बन सके

या तराश रहा हो कोई ऐसी पाठशाला

जहाँ कोए जाति का रंग न हो,

मैं जाना चाहता हूँ

उस आदमी के पास

जो बनता हैं लोगो की टूटी हुई चप्पलें

मैं जाना चाहता हूँ उस मजदुर के पास

जो अपने सर पर आसमान लिए

पुरे शहर में घुमाता रहता हैं

मैं जाना चाहता हूँ उस आदमी के पास

जो बनता हैं लोगो के लिए आईने

ताकि लोग अपना चेहरा देखकर

कम से कम औरों को भी तो एक

आदमी माने ......|

एक रात मैंने सपना देखा

एक रात मैंने सपना देखा कि

चाँद मुझसे कहता हैं ---

ये जो सितारे देख रहे हो

ये सही मायने में मेरे आँखों के

आंसू हैं

और जो मुझमे दाग दिखता हैं

वह कोई धब्बा नहीं हैं बल्कि

मैंने भी एक बार

सीना फाड़कर उसे दिखाया था कि

तुम्हारा वजूद मैं कहाँ सुरक्षित

रखा हुवा हूँ

पर ये दुनिया तो सिर्फ हनुमान को स्वीकारती हैं

यह जख्म तभी का हैं

जब वह आखिरी बार मुझसे मिलने आयी थी

चाँद फिर कहता हैं

धरती पर मैं अपनी चांदनी नहीं बिखेरता

बल्कि अपने तन पर लिपटी हुई शाल को

गिरा देता हूँ

यह सोचकर कि ...

शायद उसके पांव के निशान ही

कहीं दिख जाये

पर अफ़सोस .......

कुछ दिन के लिए

बदलो मैं छिप जाता हूँ

यह सोचकर कि

आज मेरी उपस्थिति आसमान में न देखकर

शायद !वह घबरा जाये

और मेरी तबियत के बारे में जानने के लिए

शायद एक नज़र ऊपर कर ले

लेकिन न जाने वह अब किधर से हैं कि

हवा का कोई झोंका भी

उधर से नहीं आता हैं

मैं हैरान हूँ

कि इस दुनियां में भला !उसने ऐसा कौन सा

जहाँ बना डाला

जहाँ से उसकी कोई आवाज भी नहीं आती

और मैं न जाने क्यों

उसे अजान के हर लब्ज़ में खोजता हूँ

इबादत के हजारो रंग में

उसे पहचानने कि कोशिश करता हूँ

इस उम्मीद के साथ कि

जो दिल में बुखार उबल रहा हैं

वह कुछ देर के लिए ही सही राख हो जाये

और एक बार कम से कम मैं भी कह सकूँ

सपनो के ऊपर मैं भी पांव रखकर

हाथो से सूरज को पकड़ा हूँ

इसी तमन्ना के साथ पूरी रात जगाता हूँ

इतने में ही स्वप्न टूट जाता हैं

और चादर का एक सिरा कुछ सुना सा लगता हैं

जैसे यही लगता हैं कि

वह भी मेरे साथ आँखों में बैठकर

सपना देख रही थी .....|

माँ

जब भी कभी माँ को
सुई में धागा डालते हुए देखता हूँ
उसकी आँखों में
विवेक का एक दिया जलते हुए पाता हूँ
अँगुलियों में उसके स्पंदन कुछ ऐसे होता हैं
जैसे विना साधने के लिए मचल रही हैं
मेरी फटी हुई शर्ट/टूटे हुए बटन को
वह ऐसे गौर से देखती हैं
जैसे मेरी रूह अभी घायल हो गयी हो,
उसे ऐसे सवांरती हैं
जैसे मैं अपनी कविता को सजाता हूँ
और कुछ क्षण के बाद ऐसे मुस्कराती हैं
कि अब मेरी शर्ट दुबारा नहीं फटेगी
और मुझे भी यही लगता हैं कि मेरी शर्ट
अब बिल्कुल सुरक्षित रहेगी
ठीक वैसे ही जैसे मेरे ओठों पर मेरी
मुस्कान सुरक्षित रहती हैं सदा के लिए ...

Monday 18 March 2013

कब्रिस्तान बचा हुआ हैं

कब्रिस्तान में कोई रोजगार नहीं हैं
फिर भी बचा हुआ हैं ....
जबकि दंगे फसाद में
शहर अक्सर घायल हो जाते हैं
और शहर अपना वजूद बचाने के लिए
रोज एक नया रूप बदलता हैं
क्योकि शहर को अपनी सभ्यता पर
अब कोई भरोसा नहीं रह गया हैं ।

कब्रिस्तान बचा हुआ हैं
जैसे --बची हुई हैं
आँखों में अनगिनत बूंदे
बदलते विस्फोटों के वक्त में
कब्रिस्तान का बचना
कहीं न कहीं अपने
प्रेम के बचने का भी विश्वास
बचा हुआ हैं ।

कब्रिस्तान में व्यक्ति
अपने साथ
अपना धर्म लेकर नहीं जाता हैं
बल्कि अपना प्यार लेकर जाता हैं
चाहे प्यार एकतरफा ही क्यों न रहा हो ।

राममंदिर को
बाबर ने गिरा दिया
और बाबरी मस्जिद को
संघियों ने
लेकिन!इतिहास के बनते -बिगड़ते वक्त में भी
कोई कब्रिस्तान घायल नहीं हुआ
जबकि कब्रिस्तान में
कोई फरिस्ता नहीं रहता हैं
कब्रिस्तान बचा रहेगा
आखिरी मनुष्य तक
क्योकि वहाँ लोग
ले गए हैं अपने साथ
अपने --अपने हिस्से का प्यार ।।

नीतीश मिश्र 

Saturday 16 March 2013

घर

वो खुश हैं आज 
क्योकि मैं मौन होकर 
बना रहा हूँ 
रेत  में 
प्यार का घर 
जहाँ जलती रहे 
मेरे धमनियों से रोशनी 
और वह पढ़ती रहे 
मेरी सांसो की आयतों को 
और मैं 
देर तक लिखता रहूँ
उसके लिए कोई कविता ........

नीतीश मिश्र

बातें

अपने प्यार की कुछ बातें
रह जाती हैं हवाओं के जिस्म में
और कुछ दीये की रोशनी में
प्यार में अनकही बातों का स्पंदन
नदी के तट पर हमें अक्सर बुलाती हैं
हमें प्यार की कुछ बाते याद आती हैं
जिन्हें हमने अभी तक कहा नहीं हैं
वो बाते चाय पीते वक्त
हम अपनी आँखों से
हरे --भरे आकाश में लिखते -रहते हैं
हम अपने प्यार में
ऐसे ही कुछ भीगते हुए
लिखते हैं एक ऐसी कविता
जो कल्पना न होकर
एक आवाज लगती हैं ।

नीतीश मिश्र


सपना

मैं एक मिनट के लिए भी सपनों को 

देखना बंद नहीं कर सकता 

क्योकि एक सपना मेरे लिए 

मेरे हाथ --पांव से भी बड़ा हैं |

हाथ -पांव तो टूटकर अलग हो जाते हैं 

लेकिन सपने कभी नहीं टूटते

वे एक जगह अपनी श्रंखला बनाकर

आपके रंग में उतरने के लिए तैयार रहते हैं ,

आँखों की रोशनी से

हम एक मिल चल सकते हैं

लेकिन एक सपने की रोशनी से

कई पीढियां अपना इतिहास बना सकती हैं ||

सपनों से मेरा रिश्ता ठीक वैसे ही

जैसे --एक बच्चे का रिश्ता अपनी माँ से होता हैं

कोई सपना निजी नहीं होता हैं

जो निजी होता हैं वह आदमी की एक जरूरत होती हैं

मैं सपने हमेशा देखता हूँ

क्योकि एक सपना मेरे लिए ----

विवेक हैं,

रहीम हैं,

धनिया हैं,