Saturday 1 June 2013

ऋतुपूर्णो घोष

ऋतुपूर्णो घोष जीवन और जगत के प्रति उतने ही सजग और संकल्पधर्मी थे, जितने वे अपने कलात्मक फिल्मों के प्रति । उनकी फ़िल्में बाज़ार से समझौता किये बगैर ही एकबानगी के साथ निरंतर बाज़ार से मुठभेड़ करती   हुई   अपनी अकथ संवेदना को ताजगी से युक्त एक विशेष स्थान देती हुई ,अंतर्मन के दस्तावेज को एक व्यापक रंग से दीप्त करती हैं । एक प्रयोगधर्मी कलाकार अपने जीने के लिए और अपने साथ युग की पीड़ा से सरोकार रखते हुए मंत्रमुग्ध होकर एक सपाट व्याकरण रचता हैं । और यह अपने आप में एक ऐसा व्याकरण होता हैं जो संवेदना के स्तर पर एक फ़लसफ़ा का रूमानियत ठांचा खड़ा करता हैं,जो कभी दरकता नहीं हैं ।
समकालीन भारतीय सिनेमा के किसी भी परिदृश्य में उनको समेटकर नहीं रखा जा सकता हैं । वे बांगला फिल्मों में एक स्थायी स्तंभ थे ,लेकिन जागतिक फिल्मों की धारा में भी उनकी प्रतिभा उतनी ही जोरदार तरीके से हस्तक्षेप करती हैं जीतनी की बांग्ला फिल्मों में । एक तरफ समान्तर सिनेमा उन्होंने सत्यजीत राय की परंपरा को बिल्कुल मौलिकता के साथ अपनी कला में जीवित रखते हुए ताउम्र चलते रहे । बांग्ला फिल्मों से अलग हटकर हिंदी /उड़िया अंग्रेजी में भी एक नये विचार के साथ इन फिल्मों में लगातार एक नया प्रयोग करते रहे । मैंने सिर्फ उनकी एक ही फिल्म वो भी कलकत्ता में सन २ ० ० ६ में चोखेर बाली देखी थी, तभी से मैं उनकी प्रतिभा का कायल हो गया था । वे जैसा अपनी कला में नयेपन का प्रयोग करते थे ठीक उसी तरह वे अपने निजी जीवन में भी एक प्रयोग करते थे ।
उनकी हर तरह की फिल्मों में बंगाल की विरासत एवं कलात्मक संस्कृति का अतभुत पुट देखने को मिल जाता हैं । उनकी  बौद्धिकता और संवेदना ही उनकी शिल्प की बुनियाद थी । उनकी फिल्मों में ज्यादर संवाद रंग और मौन की भाषा के माध्यम से ही होता हैं ......


नीतीश मिश्र 

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