Sunday 27 January 2013

एहसास

मैंने उसे उतना नहीं छुआ
जितना धूप/हवा /पानी ने
मैं,तो कुछ क्षण
दूब का तिनका लिए
सन्नाटे में
मौन होकर
देखता भर था
उसके होंठों पर
खिलते/महकते हुए शब्दों को।
कभी --कभी
मैं,उसकी धमनियों से
उमड़ती हुई गंध को
नासिका में भर लेता था
यह सोचकर कि
रात भर
मुझे अब करवट नहीं बदलनी पड़ेगी
वह मुझसे अधिक
पानी के साथ
हवा के साथ
धूप के साथ
खुश रहती हैं।
बिना राग -मटोर के
अपनी उज्ज्वलता
सौंप देती हैं
कभी पानी को तो कभी हवा को
पानी बांधता हैं
घेरता हैं
चूमता हैं
उसकी त्वचा में चमकती हुई रोशनी को
पानी कुछ ज्यादा उत्तेजित होकर
अपने होने को
उसके शरीर पर
बहुत ही खुबसूरती से टाँकता हैं
आज पानी
मुझसे ज्यादा खुश हैं
क्योकि वह छिपा रखा हैं
अपने बहुत भीतर
उसके होने के साक्ष्य को .....।।

नीतीश मिश्र

Saturday 26 January 2013

वापसी

क्या मैं लौटकर आऊँगा
तो पहचान लिया जाऊंगा
जब एक फूल की तरह हँसते हुए
रंगों की भाषा बोलूँगा
या तुम्हारें साथ हर
क्षण चलूँगा .....
क्या मैं पहचान लिया जाऊंगा?
जब मैं,अगरबत्तियों की महक की तरह
तुम्हारे बदन को
स्पर्श करते हुए गुजरूँगा
या कौवे की तरह
मुंडेरे पर बैठकर
अपनी दस्तक देता रहूँगा।
मैं,आऊंगा
हवा के झोंके की तरह
और बंद पड़ी थिड्कियो को खोलूँगा
और बारिश की
बूंद की तरह आऊंगा
और भिगों दूंगा
अरगनी पर
पसारे गए कपड़ों को
और मैं आऊंगा
चाय की पत्तियों की तरह
तुम्हारे जिस्म के पोर -पोर
मैं फ़ैल जाऊंगा
हाँ!मैं आऊंगा
और एक सिंदूरी आभा की तरह
सदा के लिए
तुम्हारे मांथे पर
ठहर जाऊंगा ......।।
नीतीश मिश्र 

लौटना

मैं,जब कभी लौटकर
थका/हारा आऊंगा
तुम्हारे चौखट पर
तो क्या तुम मुझे पहचान लोगी?
उस क्षण .....
जब मेरे पास
तुम्हारे सिवा कोई दूसरा
सपना नहीं होगा।
मेरे पास जब कोई शब्द नहीं होगा
और ना ही कोई शक्तिपुंज
जिससे मैं,तुम्हें अपनी बाँहों में भींच सकूँ
और मेरे पास अपनी कोई
परछाई भी नहीं होगी
क्या ऐसे में तुम मुझे स्वीकार कर लोगी
जब मेरे पर्स में
कुछ रेचकारियां बची रहेंगी
जिससे मैं नहीं खरीद सकता
तुम्हारे लिए कोई सपना
क्या तब भी तुम मुझे
उतना ही प्यार करोगी
यदि हाँ!
तो बची रहेगी
हममे अपने युग की संस्कृति ......।।

नीतीश मिश्र

दरवाजा

हमें अपने घर का दरवाजा
तो खुला रखना चाहिए
कम से कम
एक नन्हीं चिड़ियाँ आकर
कुछ देर तक
शब्दों में ध्वनि तो भर सके
और दूर के गाँव की
दूब सी पतली सी
किसी प्रेमिका की कहानी को
आँगन में सजा तो सकें।
हमें अपने घर का दरवाजा तो
खुला रखना चाहिए
जिससे एक बच्चा आकर
अपनी माँ का पता तो पूछ सकें
हमें अपने घर का दरवाजा तो
खुला रखना चाहिए
जिससे बेरोक -आ सकें
कुछ फूल/पत्तियां
कुछ धूल/आंधियाँ
कुछ मिट्टियाँ आकर
जोड़ सकें
भाईचारे की दीवार .....।।

नीतीश मिश्र 

मंदिर जाते हुए

जब -जब मंदिर की
घंटियाँ बजाता रहा
लगा कि
हर बार हाथ में
एक नयी चूड़ियाँ पहनता रहा
जब -जब गीता/मानस वांचता रहा
मेरे पायजामे का नाड़ा मोटा होता रहा,
जब -कभी धुप -नैवेध्य चढ़ाकर
प्रतिमा के सामने झुकता रहा
मेरी आँखों में आभा की जगह
नपुंसकता का लेंस चढ़ता रहा,
जब -कभी मंदिर की परिक्रमा करता रहा
अन्दर ही अन्दर
व्यक्ति से व्यक्तिगत होता रहा।
और जब -कभी
पत्थर पर दूध का दान करता रहा
ऐसा लगता रहा कि
मैं किसी बछड़े के
पुरुषार्थ की हत्या करता रहा,
जब -कभी मंदिर से लौटकर
घर जाता रहा
अपने विवेक को जुते की तरह फेककर
किसी शहर की हत्या करता रहा
जब -जब मंदिर जाता रहा
नैतिकता के हथियार से
एक आदमी की हत्या करता रहा ....।।

नीतीश मिश्र

Friday 25 January 2013

आदमी का होना

मैं जाना चाहता हूँ
उस आदमी के पास
जो ईमानदारी से जोड़ रहा हो
बच्चों के टूटे हुए खिलौनों को
या गढ़ रहा हो पेन्सिल/किताब
या ईजाद कर रहा हो
कोई नया खिलौना।
जो बच्चों के लिए एक सबक बन सकें
या तराश रहा हो कोई ऐसी पाठशाला
जहाँ कोई जाति का रंग न हो
मैं,जाना चाहता हूँ उस आदमी के पास
जो बनाता हैं लोगों की टूटी हुई चप्पलें
मैं जाना चाहता हूँ मजदूर के पास
जो अपने शहर पर आसमान लिए
शहर -भर घूमता रहता हैं
और बनाता हैं लोगों के लिए आईना
जिससे लोग
एक आदमी को तो कम से कम पहचान सके।।

नीतीश मिश्र  

आँगन में आकाश

एक दिन
जब आँगन में
उतरेगा आकाश
और तुम चुनोगी
हांड़ी भर चावल का दाना
और थोड़ा सा दिया भर तेल
और थोड़ी सी आग।
एक दिन जब आकाश उतरेगा आँगन में
तुम उसमे से कुछ हिस्सा निकालकर
जुट जाओगी बनाने में
कड़ाई/थाली
और
बच्चों की खातिर कुछ कवितायें
थोड़ा सा पतंग के लिए कागज
और थोड़ा सा सिंदूर लेकर रंगोगी
अपना यथार्थ
जब आकाश उतरेगा आँगन में
बच्चें बहुत खुश हो जायेंगे
क्योकि मैं आज तक नहीं खरीद सका
बाज़ार से उनके लिए चन्दा मामा ......।।

नीतीश मिश्र


मेरा खुदा ...

मेरी आँखों में ही मेरा हरम हैं
और मेरी मुस्कान में ही मेरी नमाज़ हैं
मेरी परछायी में ही मेरा महबूब
और मेरे दिल में हिंदुस्तान की तस्वीर हैं,
जो हवाएं मुझे छुकर गुजरती हैं
उसमे मेरे खुदा का रूह हैं।
और जो मेरे पास अदब का लिबास हैं
उसी में मेरे अब्बा की तालीम हैं
और जो मेरा बिस्तर हैं
वही मेरा काबा हैं .....
मेरी उम्मीदों की रोशनी
हाथ की लकीरों में नहीं हैं
बल्कि मेरी बांहों में हैं
पाँव में बांध के रखा हुआ हूँ मंजिलों को
इसलिए फ़रिश्ते भी मुझे इन्सान ही नजर आते हैं।
जब कभी माँ की नजरे मुझे छूती हैं
उसी दिन मेरी ईद होती हैं
रोज़ा का हर पहर यही एहसास दिलाता हैं
लोग अभी भी भूखे हैं
ताजमहल का चेहरा मेरे घर के चूल्हे जैसा हैं
और मेरा इमाम दुनिया को कोई दुआ न देकर
इंसानियत का रास्ता बनाने में लीन हैं
उसे कुरान की आयते याद नहीं हैं
पर उसे इतना जरूर मालूम हैं कि
शहर का कौन सा बच्चा
अभी स्कूल नहीं गया हैं
मेरा खुदा आज घायल होकर चिल्ला रहा हैं
या डरा हुआ ट्रेन में अपनी सीट से
आखिरी बार दुनिया को देख रहा हैं
क्योकि उसे मालूम हो गया हैं कि
उसके जीने की संभावना अब दूसरों के हाथों में हैं।।

नीतीश मिश्र

एक स्वप्न

एक रात:
मैंने सपना देखा कि
चाँद मुझसे
कुछ कह रहा हैं ...
"ये जो सितारे देख रहे हो
ये सही मायने में मेरी
आँखों के आँसू हैं
और जो मुझमे दाग दिखता हैं
वह कोई धब्बा नहीं हैं
बल्कि मैंने भी एक बार
सीना फाड़कर उसे दिखाया था कि
तुम्हारा वजूद मैं कहाँ तक सुरक्षित रखा हुआ हूँ।
पर ये दुनिया तो सिर्फ हनुमान को स्वीकारती हैं
यह जख्म तभी का हैं भाई
जब वह आखिरी बार मुझसे मिलने आयी थी
चाँद फिर कहता हैं
धरती पर,मैं अपनी चाँदनी नहीं बिखेरता
बल्कि अपने तन पर
लिपटी हुई शाल को गिरा देता हूँ
यह सोचकर कि
शायद!उसके पाँव के निशान ही कहीं दीख जाएँ
पर अफ़सोस ....
कुछ दिन के लिए मैं
बादलों में छुप जाता हूँ
यह सोचकर कि
आज मेरी उपस्थिति आसमान में न देखकर
शायद !घबरा जाये
और मेरी तबियत के बारे में जानने के लिए
शायद एक नजर ऊपर कर ले
लेकिन न जाने वह अब किधर से हैं कि
हवा का कोई झोंका भी उधर से नहीं आता
मैं हैरान हूँ कि
इस दुनिया में भला
उसने ऐसा कौन सा जहाँ बना डाला
जहाँ से उसकी कोई आवाज भी नहीं आती
और मैं ना जाने क्यों उसे
अजान के हर लब्ज में खोजता हूँ
इबादत के हजारों रंग में
पहचानने की एक कोशिश करता हूँ
इस उम्मीद के साथ कि
जो दिल में बुखार उबल रहा हैं
वह कुछ देर के लिए ही सही
पर राख हो जाये
और एक बार मैं भी कह सकूँ कि
सपनों के ऊपर पाँव रखकर
हाथ से सूरज को पकड़ा हूँ
इसी तम्मना के साथ पूरी
रात जागता रहता हूँ"
इतने में
स्वप्न टूट जाता हैं
जैसे यही लगता हैं कि
वह भी मेरी आँखों में बैठकर
सपना देख रही थी

नीतीश मिश्र 

भूलना ...

जीवन मेरा
कितना भी उदास
क्यों ना हो ....
पर यादों की बारिश में
तेरे साथ भींगना
मुझे बहुत ही
अच्छा लगता हैं
तुझे याद --याद करते
मेरे पास तुझे भूलने के लिए
कोई समय ही नहीं शेष रहता हैं।

तुझे भूलने के लिए भी
तुम्हें ही याद करता हूँ
मैं नहीं जानता हूँ कि
यह मेरी कोई कमजोरी हैं
अगर यह मेरी कमजोरी हैं
तब भी मैं इसका स्वागत ही करूँगा
क्योकि तेरी याद के सहारे ही
मैं जानता हूँ कि
जंगल में कितना अँधेरा होता हैं
या सागर कितना खुश हैं
या एक बांसुरी में कितना स्वर हैं
या एक दीये में कितनी ताक़त हैं
या एक कोरे कागज पर अभी
क्या लिखा जा सकता हैं
या मेरे अकेलेपन का अर्थ
क्या हो सकता हैं
मुझे मंजिल नहीं मिलेगी
लेकिन तेरी यादों का
एक फलसफा तो जरूर मिलेगा ।


नीतीश मिश्र


Thursday 24 January 2013

मैं कहाँ नहीं हूँ

तुम मुझे छूकर तो देखों कि
मैं कहाँ नहीं हूँ .....
तुम्हारे रात के देखे हुए सपनों में हूँ
जहाँ तुम पुरी तरह आजाद रहती हो,
सुबह --सुबह खुलती हुई
तुम्हारे आँखों के दरार में हूँ
जहाँ तुम मुझे
थककर कैद कर लेती हो
और अपने जीवन का ज्वलंत इतिहास समझकर
पुरी रात सांसों की आंच में गुनती रहती हो ।

मैं तुम्हारे मेज पर रखी हुई
टेबल घड़ी के सही वक्त में हूँ
जिसके सहारे तुम हर रोज जीने की
एक नयी कोशिश करती हो
तुम मुझे छूकर तो देखो की
मैं कहाँ नहीं हूँ .....
मैं,तुम्हारे रोज के दैनिक कार्यों में हूँ
जब तुम अपने पड़ोसियों के अच्छे
सामानों को देखकर ललचती हो
तब उस लालच में /ख़ामोशी में
मैं तुम्हारे साथ रहता हूँ ....।
सुबह --सुबह जब तुम एकांत में
गैस पर चाय का पानी चढ़ाती हो
पानी के गुनगुनाते बुलबुलों में
छुपी रहती हैं मेरी शरारतों की ढेर सारी शक्लें
तुम चाय में चीनी
कभी चम्मच से नांपकर नहीं डालती हो
फिर भी चाय तुम्हारे हाथ की
कभी फीकी नहीं होती
जानती हो क्यों ?
क्योकि तुम्हारे अनुमान में
मेरी परछाई समाई रहती हैं ।

तुम जैसे -खुद को जतन से
संभालकर कर रखती हो
उसी आत्मविश्वास से घर/कमरे को
तुम्हारी इस कला में
कहीं न कहीं मेरे अनुभव की
उपस्थिति रहती हैं ....
तुम,जब बाज़ार में खड़ी होकर
अपने पसंद/नापसंद
प्रतिमाएं रचने लगती हो
तब भी मैं तुम्हारे चुनाव की
कला में रहता हूँ


जब तुम शाम को शर्म से मौन होकर
सुने से आकाश में कुछ देर के लिए
बादलो में छुपना चाहती हो
तुम्हारी इस मुक्ति में भी
कहीं न कहीं मैं तुम्हारे साथ रहता हूँ
मैं,आकाश के उस नीले दरिया में भी हूँ
जहाँ तुम्हारी नज़रे एक पल के लिए भींग जाती हैं
मैं तुम्हारे बिस्तर के रंग -बिरंगे फूलों में भी हूँ ।

जब तुम धन के अभाव में
कुछ देर के लिए परेशान होती हो
तब मैं संतोष की आभा लिए
तुम्हारे बहुत पास आ जाता हूँ
मैं तुम्हारी आलमारी में रखी हुई
किताब के ऊपर
धूल की तरह जमा भी हूँ
मैं,तुम्हारी अँगुलियों के नाखुन में भी हूँ
मैं,बारिश के बूंद में भी हूँ
जिसे तुम अंजुरियों में भरकर एक संस्कार देती हो,
जब तुम ठण्ड से डरकर
अपने बदन को दोहरा करने लगती हो
तब मैं ऊष्मा बनकर
तुम्हारी त्वचा के बीच सिमट जाता हूँ
जब तुम अन्याय से लड़ती हो
तब मैं साहश बनकर
तुम्हारे बहुत पास आ जाता हूँ ....
मैं तुम्हारे साथ हर जगह/हर मोड़ पर रहता हूँ
यह अलग बात हैं की
मैं कोई देवता नहीं हूँ
जो तुम्हें समस्याओं से मुक्त कर दूँ
मैं एक कला भर हूँ
इसलिए मैं एक कला की तरह ही
हर क्षण तुम्हारे साथ रहता हूँ
तुम मुझे छूकर तो देखों कि
मैं कहाँ नहीं हूँ .............।।।


नीतीश मिश्र


Monday 21 January 2013

उपस्थिति .........

जीवन को मैंने 
सीप में से निकालकर 
सुबह --सुबह  धूप में ...
 एक खुशबू की तरह बिखेर दिया,
या फूलों/पत्तों में गूँथ दिया 
या गौरेया की आवाज में 
बांध दिया ....
जीवन की यही निधि लिए 
मैं,अपने गुबार होते हुए दिल को 
एक वृक्ष बना दिया 
या कुदाल/हँसिया की 
एक धार बना दिया 
जो जीवन की हर लहर पर 
अपनी दस्तक देता रहेगा ..........।।


Saturday 19 January 2013

रेगिस्तान:में एक लड़की

रेतों के मंजर में बैठी एक लड़की,
कुछ लिख रही थी ......
अपनी अनमनी अँगुलियों से,
अपने जीने के लिए किसी
अनिवार्य सूत्र को होठों में छिपाये
अपने छोटे से तसव्वुर पर
फूलों की तरह महक रही थी।

शायद!उसे बहुत कुछ मालूम नहीं हैं
कि मिट जाएगी उसके अंतर्मन की गीतिका
जिसे वह गाये जा रही हैं
यह सोचकर कि रेत उसके सपनों को
अपने सीने में छिपा लेगा,

मैं उसे कैसे बताऊँ कि
रेतों के सीनों में दिल नहीं होते हैं
वह टूटे हुए हर युग के टुकड़े भर होते हैं
वह चल सकते नहीं/बोल सकते नहीं
इसलिए शून्य होकर
बिना किसी प्रतिशोध के
मनुष्यों के प्रश्नों को देखते भर हैं।

वह रेतों के आईनों में
बार -बार खुद को निहारती हैं
इस विश्वास के साथ कि
वह इस भूधर पर
सबसे खुबसूरत कोई तरन्नुम हैं
अपने देह को कभी त्रिभुजाकार/धनुषाकार में
बार -बार मोड़ती हैं,
वह निर्विघ्न होकर रंगती हैं
जीवन की वृत्तिकाओं को
शायद!वह इस सन्नाटे में
तोड़ना चाहती हैं
खजुराहों की दीवारों पर सजी
मनुष्यों की इबादत को
उसे यह मालूम हैं कि
खजुराहों मनुष्यों की एक सीमा हैं
किसी स्त्री की सीमा नहीं .......
उसके बाल कुछ ऐसे खुले हैं
जैसे वह रेतों की गुहाओं में
वर्षों से समाधिस्थ होकर
आज युग के आँगन में लौटी हो,
उसे ऐसे में देखकर
मैं भूल जाता हूँ
अपने रोजमर्रा के काम को
और अपनी छोटी सी प्रार्थना को
उसमे कोई जादू का रंग हैं
नहीं तो मैं,लौट जाता दरगाहे शरीफ़
और शब्दों से बुनता कुछ देर तक खुद को
मैं,नहीं जा सका किसी इबादत के महफ़िलों में
क्योकि मुझे
खूबसूरती की संगत में ही मुझे
अपनी मुक्ति का रास्ता दिखाई देता हैं।

मैं खिलते हुए/गाते हुए /हंसते हुए
उसके मुख को थामना चाहता था
उसकी करुणा को
अपने उमड़ते सूरज पर
कुछ देर तक लिपना चाहता था
इतने में वह रेतों के टीले से उठकर
अपने वैभव और काया की उजास को संभालती हुई
लूनी नदी-के तट पर रख देती हैं
अपने वर्षों की तपी कामना को,
शायद!उसे पहले से मालूम हैं कि
आकाश उसे छू सकता नहीं
रंग उससे बोल सकते नहीं
किसी का स्पर्श उसके मर्म पर
हाथ रख सकता नहीं
शायद इसी के चलते वह सौंप देती हैं
खुद को लूनी नदी की धारा में .......

मैं उसे कैसे बताऊँ की
मुझमे भी गंगा की एक शाश्वत धारा बहती हैं,
मैं,उससे लिपट सकता नहीं
सिर्फ उसे देखता भर हूँ
यह सोचकर कि जैसे सज -धज कर
सन्ध्या सौंप देती हैं
अपने रूप को अंधकार में
ठीक वैसे ही यह भी सौंप देगी
मुझमे अपनी साधना को।

इसी संभावना के साथ
मैं लौट आता हूँ
और वह कुछ देर के बाद मिलती हैं
हाथ में लालटेन लिए
और धीरे से कहती हैं कि मुझे थाम लो
क्योकि अब तुम्हीं मेरे शब्द हो/अनुभूति भी हो
क्योकि तुम एक सागर हो
और मैं तुम्हारी एक लहर हूँ
तब मुझे ऐसा लगने लगा कि
वर्षों से रेतों के सोये हुए ख्वाब
अब जाग गये हैं ..............।।

नीतीश मिश्र






Thursday 17 January 2013

स्त्री

जब कभी इतिहास को
पलटता हूँ .....
पुरुषों का ही युद्ध
और विजयगाथा
और पुरुषों का ही
धर्म पाता हूँ .....
स्त्री को इतिहास में
जब देखता हूँ .....
एक पतंग की तरह
दीवारों के बीच
उलझी हुई ....
और कभी स्त्री को
कब्र में रोते हुए
देखता हूँ ..........।

स्त्री
इच्छाओं की
वासनाओं की
दीवार में टंगी हैं
एक आईने की तरह
जहाँ पुरुष
अपना अंहकार देखता हैं,

स्त्री चुप हैं
जैसे -पहाड़ चुप हैं
मैं कैसे भूल जाऊ
कि स्त्री ने अपने आवरण
में रखकर,
बिना करवट बदले
हँसते हुए
मेरी आत्मा की त्वचा को
नव महीने तक
बुनती रही
बिना यह सोचे कि वह जो त्वचा
बुन रही हैं
वह किसी स्त्री की होगी या पुरुष की,
उस क्षण भी वह
अपने लिए कोई स्वप्न नहीं बुनती थी
और अपने देह के लिए
कुछ खाती भी नहीं थी।
वह जीती थी
एक उत्तरदायित्व के लिए
अपने कर्म से कभी नहीं भागी
और अपनी तक़दीर को भूलकर
रात भर मेरे लिए
एक तक़दीर बुनती रही
शायद!इसीलिए
मुझे एहसास होता हैं
मेरे अन्दर
मेरी माँ की आवाज हैं ................


नीतीश मिश्र ....18.012013


Wednesday 16 January 2013

ना हिन्दू ना मुसलमान .

जबसे मैं बायें
और दायें मार्ग का
मर्म समझने लगा हूँ
दुनियाँ की निगाहे
मेरे प्रति बहुत ही
चौकन्नी हो गयी हैं
क्योकि दुनियाँ को
पहले ही खतरे का
एहसास हो गया हैं कि
उनका एक वोट ......
कहीं कम ना हो जाये ।

न तो मैं बायें चलता हूँ
और न ही दायें चलता हूँ
क्योकि दोनों और ही चलने पर
व्यवस्था की चाकी में
आदमी ही पीसता रहता हैं
और सदियों से ही
पीसता हुआ चला आ रहा हैं ...........

यहाँ बाज़ार में पीसे हुए
गेंहूँ के आटे का दाम तो तय हैं
पर पीसे हुए आदमी का
चवन्नी भी मोल नहीं हैं .....
और जबसे उदारीकरण नाम की
नयी देवी आयी हैं
तबसे तो ...
पहचान ही नहीं पाता हूँ कि
दायें रास्ते की मंजिल कहाँ हैं
और बायें रास्ते का लक्ष्य क्या हैं?
सबकी अपनी -अपनी दुकान हैं
और सबके अपने व्याकरण हैं
सब बाजार में बैठे
अपने उत्पाद को बेहतर
और बेहतर बनाने की फिराक़ में
देश को रंडी बना बैठे हैं ।

जब मैं,धरती पर पाँव रखा था
बहुत ही खुश था
क्योकि मेरी आँखों में एक दुनियाँ थी
और बाबूजी के हाथों में
मेहनत का हूनर था
मैं अपने शर्ट की जेब में
खुशियाँ बटोरकर
हवा पर दौड़ता हुआ खुश था
पर मुझे क्या पता था कि
खुशियाँ जीवन में कपूर की तरह होती हैं।
जबसे मेरी देह में
जवानी का झरना फूटना शुरू हुआ
मेरे जिस्म के हर हिस्से से
नीम की खुशबू झरने लगी

ऐसे कठिन समय में
नैतिक शिक्षा का कंडोम भी
किसी काम में नहीं आया
जवानी के किस्से
पुस की रात का परवाह कीये बगैर
बढ़ती गयी ........
ऐसे में मैंने किया प्यार
और एक असफल प्यार से
खुद को निर्दोष साबित करने के लिए
कवि बन गया
वह भी ऐसा कवि जो अपनी रचना से
न तो देश को बना सकता हैं
और न ही खुद को,

माँ -बाबूजी खांस -खांस कर गरियाते
कि "कविता करने से
जीवन का चोला नहीं चलता"
लेकिन मैंने उनकी एक न सुनी
और रात -दिन चोले की सीमा
नापंते -नापंते
मैं पूरी धरती नांप लिया
पर इंसानों के चोले का
सही नांप आज तक नहीं ले पाया।

मैं समझ गया कि
धरती पर सबसे बड़ा
चूतिया मैं ही हूँ ......
क्योकि अगर कायदे से
मैं,ब्राहमण भी बन गया होता तो
अपनी कई पीढ़ियों का कल्याण कर
दिया होता .....
लोक -परलोक भी ठीक कर लिया होता
लेकिन अफ़सोस!की मैं ब्राहमण भी नहीं बन पाया
क्योकि आदमी बनने का हूनर
बाबूजी ने ही लगा दिया था
तबसे आज तक व्यवस्था की चाकी में
पीस रहा हूँ,वह भी बीना मोल के ......


देह में पहले जैसा दम नहीं रहा
लेकिन दिमाग करैले की तरह
आज भी हरा हैं।
एक दिन:काशी से कबीर का बुलावा आ गया
और मैं चल दिया कबीर से मिलने
कबीर पैदल ही पूरा काशी का चक्कर लगाकर
लंका में एक चाय की दुकान में बैठ गए
और मेरा हाथ पकड़ कर कहने लगे कि
दिमाग मत ख़राब करों
इस देस का कुछ नहीं होने वाला
"मैंने क्या इस देस को बचाने के लिए
किसी से कम काम किया था
लेकिन क्या हुआ ?
फिर कबीर जोर -जोर से हँसने लगे
और कहने लगे ......
क्या करोगे जो आदमी बनकर पैदा होता हैं
वह आदमी की तरह रह नहीं पाता हैं
तुम परेशान इसलिए हो क्योकि
तुम मेरी तरह एक आदमी हो,
कबीर कहने लगे लगावों आग
क्या पता एक आदमी तुम्हें और मील जायें
इतना कहकर कबीर मगहर चले गये
तबसे मैं दुनियां में एक आग लगाकर कहता हूँ
ना हिन्दू ना मुसलमान ..............

नीतीश मिश्र     17.01.2013



Tuesday 15 January 2013

देवदारु की कहानी

संयोगवश या 
संघर्ष करते हुए 
देवदारू का पेड़ 
पहाड़ से या अपनी 
बिरादरी से अलग होकर 
मैदान में ......
एक अछूत की तरह 
खड़ा भर था,

बिरादरी से या जाति से 
अलग होना 
मनुष्यों के लिए 
किसी कोढ़ से कम नहीं था।
जब भी कोई कारवां गुजरता 
देवदारु के लिए 
किसी गाली से कम नहीं था 
गाँव में यह खबर 
कुत्ते की आवाज की तरह फ़ैल गयी 
एक अपशगुन पेड़ 
गाँव में जवान हो रहा हैं ..........

जवानी में स्नेह अगर 
चाँद को भी नहीं मिलता 
तब उसमे भी शायद इतनी 
चाँदनी नहीं होती 
लेकिन देवदारु का संघर्ष 
किसी भी हीरे से कम नहीं था,
देवदारु:समूह से उपेक्षित होकर 
इस कदर मौन हो गया कि 
अपने सौन्दर्य को ही भूल गया,
प्रत्येक साधना की,
हर संघर्ष की 
अपनी एक सीमा होती हैं 
क्योकि धरती भी कहीं न कहीं 
सीमित ही होती हैं .............


गाँव:में ही एक लड़की थी 
जो वर्षों से कुछ खोजते हुए 
अपने आप से उब चुकी थी 
या थक चुकी थी 
और इस कदर थक चुकी थी कि 
लड़की होने के अपराध को भी भूल चुकी थी,

एक रात :जब सब जाग रहे थे 
और सभी सो भी रहे थे 
लड़की को समय मिल गया कि 
वह देवदारु को देख सकें 
ज्योहीं उसकी नजर की किरण 
पेड़ पर गिरती हैं 
देवदारु जाग जाता हैं 
और बहने लगता हैं 
लड़की के अन्दर स्वरों के 
कई सारे दीये जलने लगते हैं,

लड़की:को लगता हैं कि 
यही उसकी खोयी हुई 
अभिव्यक्ति हैं 
या कोई पायी हुई पानी की धार हैं 
देवदारु:भी भोर तक 
यही सोच रहा था 
क्या जब आँखों में कोई चेहरा 
अपना होता हैं?
तभी जीवन की मुक्ति 
यात्रा शुरू होती हैं .............

सुबह की पहली किरण 
ज्योही धरती के जिस्म से टकराती हैं,
मैदान की उर्वर मिटटी में 
प्रेम का बीज आँख खोलता हैं,
जब प्रेम के लिए कोई जागता हैं 
तब सबसे पहले वह 
अपने हिस्से का समय चुराता हैं 
दोनों जब समय दान करके रिक्त हो जाते हैं 

देवदारु:लड़की से एक दिन 
महादान माँगता हैं 
और लड़की शीत सी 
उसकी जड़ों में ठहर जाती हैं 
लड़की सुबह -सुबह एक दीया जलाकर 
पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं 
देवदारु लड़की को अपनी 
छाया से रंगकर 
उसके स्वर में एक राग भरता हैं 
और ऐसे ही वे मुक्ति का 
इंद्रधनुष खीचतें हैं ................

एक दिन लड़की देवदारु की जड़ों में 
समाधिस्थ होकर कहने लगी 
मैं:रोज --रोज नहीं आऊँगी मिलने 
अब"तुम मुझे एक वृत्त में रखों"
ज्योही जीवन में प्रश्न उपस्थित होता हैं 
अस्तित्व को हमेशा अर्थ मिलता हैं 
क्योकि प्रश्न सजीव होते हैं ............

देवदारु:एक बार आकाश को देखता हैं 
और एक बार हिमशिखर को 
लड़की को जड़ों से उठाकर 
प्राणों के समीप खींचता हैं 
और शम्भू से कहता हैं कि 
केवल तुम ही नहीं अर्धनारीश्वर नहीं हों 
इतने में गाँव में 
धूप की तरह 
यह खबर फ़ैल गयी कि 
देवदारु का पेड़ गिर गया 
और लड़की दब कर मर गयी 
गाँव पुरा खुश हुआ 
और कहने लगे लोग 
चलो!बला तो टली 

पर लड़की और देवदारु बहुत खुश हैं 
क्योकि अपनी प्यार की आत्मकथा को 
बस वे ही जानते हैं ....................


नीतीश मिश्र ..............16.01.2013




Monday 14 January 2013

मिलते बिछुड़ते हुय

एक शाम
हँसती हुई
थामती हैं
बांहों से
सूखे .....
जर्जर .....
मौन से गुन्थित
सुने से पहाड़ को,
और रंगती हैं
अपनी फकत महक से
पहाड़ के सीने को।

पहाड़ थामना चाहता हैं
कुछ देर तक
शाम के बोलते/महकते हुए स्पर्श को ...........
रात छुपती रहती हैं
मेरी नज़रों की रोशनाई में
इतने में
रात विखर जाती हैं
जैसे -विखर जाती हैं
मेरी कोई कविता।
फिर भी कुछ न कुछ चिपकी रहती हैं
कुछ मेरें रोयें की तरह
कुछ हड्डियों की तरह जुड़ी रहती हैं
मुझसे मेरी जिंदगी ..............

धूप आहिस्ते --आहिस्ते
मेरे अंजुमन में बैठती हैं
कुछ मेरें दोस्त की तरह
गौरैया आ जाती हैं,
कुछ तिनकों को लिए
अपने आशियाने में
धूप के साथ/हवा के साथ
मशगूल हो जाती हैं बताने में
अपने जीये हुए जिंदगानी के बारे में।

मैं नहीं पकड़ पाता नज़रों की नजीर से
उसके एक -एक बूंद जैसे मीठे दर्द को
इतने में मेरी तकदीर विखर जाती हैं
रेतों की झीनी सी खुशबुओं में,
मैं तारों की तरह खुद को
आसमान में कुछ देर के लिए टांग देता हूँ
जिससे मैं देख सकूँ
शकून से अपने सोते हुए घर को
और सुन सकूँ अपनी प्रेयसी की सांसों की धार को,
एक बार कम से कम उसके माथें पर
अपने शब्दों को लिख सकूँ

उसकी यादे ही .............
अब मेरे तन पर लिबास की तरह झिलमिलाती हैं
ह्रदय जुगनूओं की तरह टिमटिमाता हैं
टिम ....टिम .....
मैं रोज खोदता हूँ अपनी कब्र,
पर नहीं दफनापता खुद को
गोकि वह भी जुड़ी हुई हैं
और कभी --कभी मेरा प्रतिरूप भी
सपने से उतर कर
जीवन के धरातल पर
आकर खड़ा हो जाता हैं
शायद!वह सुलझा दे
मेरे अनकहे -अनदेखे सच को,

सो टाल देता हूँ कुछ क्षण के लिए
अपनी मृत्यु की खबर को
जो हवा की तरह हिलती --डुलती हैं
मेरे चेहरे पर।

मैं कभी -कभी उसके
बहुत पास जाना चाहता हूँ
जैसे जाती हैं नावें लहरों को छुने
हरेक सुबह मैं
उसके सामने सजदा करता हूँ
उसका दिल मुझे पानी की तरह चमकता हुआ
एक आइना लगता हैं .................
मैं अपना चेहरा देखकर खुश हो जाता हूँ
डूबते हुए सूरज की तरह

उसके चेहरे पर काला तील चमकता हैं
कुछ तारों की तरह ........
जैसे यही लगता हैं कि
मैंने वर्षों से चूम के बनाया हो।।

वह पहाड़ी नदी की तरह
हिलती --डुलती हुई
जतन से सुबह -शाम
संभालती हैं
शराब  की तरह महकती हुई
अपने तन की खुशबुओं को .....

मैं उससे जब भी मिला
एक गज़ल की तरह
मुझे घंटों गुनगुनाती हैं
और शर्म से फूलों की तरह
खड़ी हो जाती हैं
मेरी सांसों की आयतों में
मैं उसके मूक समपर्ण को
अपने जीवन की एक ताबीज़ समझकर
बांध लेता हूँ कलाईयों में .............
फिर उसकी पीठ पर लिखता हूँ
अँगुलियों से अपने डर को।

वह मेरे हिम्मत की दाज देती हैं
क्योकि उसके शहर में ......
मैं उसे ...उसकी तरह चाहने लगता हूँ
वह कुछ देर तक बैठी रहती हैं
मेरी शाख पर
फिर मौसम की तरह
मेरी नज़रों के सामने ही
बादलों के झुरमुटों में गुम हो जाती हैं
इतने में ही वह कोई खुदा सरीखे हो जाती हैं
सो, मैं बड़े प्यार से पुकारता हूँ
क्योकि वह मेरे जीवन की पतवार हो गयी हैं .....।।।


.......नीतीश मिश्र ........15.01.2013








Saturday 12 January 2013

मैंने खुदा को देखा हैं

मैंने खुदा को देखा हैं,
कभी रोटी बेलते हुए 
कभी रोटी सेकते हुए 
कभी हल -बैल के साथ दौड़ते हुए,

मैंने खुदा को देखा हैं 
सर पर थोड़ा सा धूप लिए 
और माटी में अपनी खोयी हुई 
तक़दीर को खोजते हुए।

मैंने खुदा को देखा हैं 
कभी प्यासें ओठं लिए 
आँखों से पानी खोजते हुए 

मैंने कल ही खुदा को देखा हैं 
थोड़ा सा थके हुए 
कुछ कमर से झुके हुए 
अपने बच्चों के लिए 
तालीम से रंगा हुआ एक रास्ता बनाते हुए 

मैंने खुदा को देखा हैं 
मस्जिद से दूर 
पत्थर की शिलाओं पर 
 कुरान की आयतों को तराशते हुए 

हाँ!मैंने कल ही खुदा को देखा हैं 
साहूकार से कर्ज़ लेकर 
अपनी लड़की के लिए दहेज़ जुटाते हुए 
हाँ मैंने खुदा को देखा हैं 


नीतीश मिश्र .......12.01 201

Thursday 10 January 2013

कबीर का होना

सैतालीस के बाद .....
पाकिस्तान का बनना
और कबीर,नजीर का
जीना मरने से भी
बुरा हो गया .......

रोटी-दाल की चक्की
हवा की तरह कभी मौसम की तरह
सरकती रही .........

पर किसी को कभी यह जानने की
कोई जरूरत नहीं हुई कि
कबीर भी कभी हँसता हैं की नहीं
कबीर पर लोगों की आँखें तभी गिरती थी
जब किसी को अपना फटा हुआ कपड़ा
सिलाना होता था

बाकि समय के लिए
कबीर लोगों के लिए
एक मुसलमान हो जाता था
आजादी के बाद मुसलमान होना
अपने आप में किसी रोग से कम नहीं था
फिर भी कबीर खुश था
क्योकि यहाँ वह पैदा हुआ था
पर जबसे बाबरी मस्जिद गिर गयी
कबीर का पुरा कुनबा गिर गया
अब कबीर लोगों की निगाह में आदमी नहीं
एक गाली बनकर रह गया था
कबीर की पहचान अपनी ही माटी में
संदेह की तरह या कांटे की तरह हो गया था .........

नीतीश मिश्र .....11.1.2013.........


na hindu na muslman

तुम हिन्दू हो 
और मैं,मुसलमान 
और हमारा प्यार 
इन सबसे न्यारा .......
पर दुनिया की दस्तूर ही 
कुछ ऐसी हैं .......
जो प्यार के सभी समीकरण के 
खिलाफ होती हैं ......

पर मैं दुनियां से 
पूछना चाहता हूँ
कि जब तुम
सड़क या घर में रहती हो
तब क्यों तुम्हें लोग
एक औरत की निगाह से देखते हैं ?
क्यों आँखों में
लालच के लावे फूटने लगते हैं
अरे !जब मैंने प्यार कीया था
तब तुम एक औरत थी और मैं एक आदमी था
फिर जब साथ आने की बात हुई
तब तुम हिन्दू हो गयी
और मैं मुसलमान
ये किसकी दुनियां हैं
किसी कस्साई की
या किसी पंडित की
ये दुनियां बस प्यार की

......नीतीश मिश्र .......

mrityu ki aahat

चारों और मेरें 
एक घुटन हैं 
हवाएं भी 
रह -रह कर 
मेरे विरुद्ध 
एक साजिश 
बुन रही हैं .....
और मैं 
बार -बार अन्धेरें में 
अपने कदमों की 
आहट से 
अपने मौत का 
निमंत्रण सुन रहा हूँ 
क्या साथी तुम 
मेरी मौत पर 
गमगीन होगे 
जब मैं अपनी 
मृत्यु से लड़ता हुआ 
अपने जीवन को 
अपने होनेपन को 
एक रंग दूंगा 
एक अर्थ दूंगा 

......नीतीश मिश्र 

Wednesday 9 January 2013

राम ने स्याम से कहा की दुनिया बाह्यत हैं 

09th January

तुम्हारी अनुपस्थिति में 
मैं फ्यूज बल्ब की तरह 
अपने होने की 
बस रश्म अदायगी भर कर रहा हूँ ....
निहत्था हूँ .....
एक अर्धसत्य की तरह 
कभी दीवालों में 
कभी लोगों के खाली दिमाग में 
एक शूल की तरह चुभता हूँ .......
खुदा से भी कोई 
फरियाद नहीं हैं मेरी
बस मैं उसका शुक्रगुजार हूँ तो
बस इसबात के लिए कि
तुम भुलाए भी नहीं भूली
कभी इस दिल से ............

...........नीतीश मिश्र .............