Saturday 19 January 2013

रेगिस्तान:में एक लड़की

रेतों के मंजर में बैठी एक लड़की,
कुछ लिख रही थी ......
अपनी अनमनी अँगुलियों से,
अपने जीने के लिए किसी
अनिवार्य सूत्र को होठों में छिपाये
अपने छोटे से तसव्वुर पर
फूलों की तरह महक रही थी।

शायद!उसे बहुत कुछ मालूम नहीं हैं
कि मिट जाएगी उसके अंतर्मन की गीतिका
जिसे वह गाये जा रही हैं
यह सोचकर कि रेत उसके सपनों को
अपने सीने में छिपा लेगा,

मैं उसे कैसे बताऊँ कि
रेतों के सीनों में दिल नहीं होते हैं
वह टूटे हुए हर युग के टुकड़े भर होते हैं
वह चल सकते नहीं/बोल सकते नहीं
इसलिए शून्य होकर
बिना किसी प्रतिशोध के
मनुष्यों के प्रश्नों को देखते भर हैं।

वह रेतों के आईनों में
बार -बार खुद को निहारती हैं
इस विश्वास के साथ कि
वह इस भूधर पर
सबसे खुबसूरत कोई तरन्नुम हैं
अपने देह को कभी त्रिभुजाकार/धनुषाकार में
बार -बार मोड़ती हैं,
वह निर्विघ्न होकर रंगती हैं
जीवन की वृत्तिकाओं को
शायद!वह इस सन्नाटे में
तोड़ना चाहती हैं
खजुराहों की दीवारों पर सजी
मनुष्यों की इबादत को
उसे यह मालूम हैं कि
खजुराहों मनुष्यों की एक सीमा हैं
किसी स्त्री की सीमा नहीं .......
उसके बाल कुछ ऐसे खुले हैं
जैसे वह रेतों की गुहाओं में
वर्षों से समाधिस्थ होकर
आज युग के आँगन में लौटी हो,
उसे ऐसे में देखकर
मैं भूल जाता हूँ
अपने रोजमर्रा के काम को
और अपनी छोटी सी प्रार्थना को
उसमे कोई जादू का रंग हैं
नहीं तो मैं,लौट जाता दरगाहे शरीफ़
और शब्दों से बुनता कुछ देर तक खुद को
मैं,नहीं जा सका किसी इबादत के महफ़िलों में
क्योकि मुझे
खूबसूरती की संगत में ही मुझे
अपनी मुक्ति का रास्ता दिखाई देता हैं।

मैं खिलते हुए/गाते हुए /हंसते हुए
उसके मुख को थामना चाहता था
उसकी करुणा को
अपने उमड़ते सूरज पर
कुछ देर तक लिपना चाहता था
इतने में वह रेतों के टीले से उठकर
अपने वैभव और काया की उजास को संभालती हुई
लूनी नदी-के तट पर रख देती हैं
अपने वर्षों की तपी कामना को,
शायद!उसे पहले से मालूम हैं कि
आकाश उसे छू सकता नहीं
रंग उससे बोल सकते नहीं
किसी का स्पर्श उसके मर्म पर
हाथ रख सकता नहीं
शायद इसी के चलते वह सौंप देती हैं
खुद को लूनी नदी की धारा में .......

मैं उसे कैसे बताऊँ की
मुझमे भी गंगा की एक शाश्वत धारा बहती हैं,
मैं,उससे लिपट सकता नहीं
सिर्फ उसे देखता भर हूँ
यह सोचकर कि जैसे सज -धज कर
सन्ध्या सौंप देती हैं
अपने रूप को अंधकार में
ठीक वैसे ही यह भी सौंप देगी
मुझमे अपनी साधना को।

इसी संभावना के साथ
मैं लौट आता हूँ
और वह कुछ देर के बाद मिलती हैं
हाथ में लालटेन लिए
और धीरे से कहती हैं कि मुझे थाम लो
क्योकि अब तुम्हीं मेरे शब्द हो/अनुभूति भी हो
क्योकि तुम एक सागर हो
और मैं तुम्हारी एक लहर हूँ
तब मुझे ऐसा लगने लगा कि
वर्षों से रेतों के सोये हुए ख्वाब
अब जाग गये हैं ..............।।

नीतीश मिश्र






1 comment:

  1. एक कविता जी जिंदगी के समस्त भावों रच डालती है ...हर पंक्ति सोचने को मजबूर करती है कि आखिर जिंदगी का सच क्या है
    प्यार,वेदना,इंतज़ार या जुदाई????

    ReplyDelete