Tuesday 29 September 2015

मैं लिख रहा था प्रेमपत्र

जब पास में
हड्डिया और त्वचा थी
लेकिन पांव के पास ज़मीन नहीं थी
और मेरी नींद बरसात में भींग गई थी
उस क्षण
मैं लिख रहा था प्रेमपत्र !
जबकि तुम गहरी नींद में सो रही थी
और कुछ लोग पानी / आग को रंग रहे थे
मैं अपनी सांसो में तुम्हारे शहर का आकाश भर रहा था
और देश भूख में जाग रहा था
धरती / हवा / धूप सुरंग बना रही थी
मेरे चारो और घोड़े दौड़ रहे थे
मेरे होंठो पर एक प्रार्थना थी
जो तुम्हारी नींद की खोह में गायब हो चुकी थी
दुनियां पहाड़ों की तरह खत्म होती जा रही थी
औरते जंगलो की और भाग रही थी
और मैं
प्रेमपत्र लिख रहा था
जबकि मेरे सर पर बैठा चाँद काँप रहा था
और तुम्हारे देवता के सामने
मैं यह गुस्ताखी किये जा रहा था ॥
मैं प्रेमपत्र में खोज रहा था
कभी अपना भारत तो कभी तुम्हारा देश ।

Thursday 24 September 2015

मैं भूल जाता हूँ महाकाल को

महाकाल के प्रताप के बीच हूँ
या नर्मदा की गहराई के पास
या शहर के सबसे सुर्ख पागल की हंसी के पास रहूँ
या भीड़ के अँधेरे में
मुझे याद आती हैं तुम्हारी हंसी
मुझे याद आता हैं तुम्हारा गुस्सा
मुझे याद आती हैं
तुम्हारी उर्दू वाली जुबान
मैं महाकाल के तांडव के चाहे कितना ही पास रहु
मुझे याद आता हैं
अपने गांव का कुआँ
जहाँ पड़ी हुई हैं
सदियों से कई चीखे
मैं कितना भी विराट हो जाऊं ?
मुझे याद आती हैं
तुम्हारी लघुता
मुझे याद आती हैं
तुम्हारे शहर की  धूप
मुझे याद आती
तुम्हारे गांव की हवा
मैं महाकाल के कितना ही करीब हो जाऊं
मैं देखता हूँ
अपने भीतर एक नहीं
चार आँख
मैं देखता हूँ भीतर
चार हाथ चार पांव
मैं भूल जाता हूँ
महाकाल को
 जाता हूँ नर्मदा को ॥

भूलना

कई बार
भूलना जरुरी होता
हम भूल जाते हैं
मोहल्ले के हत्यारे को
भूल जाते हैं
कस्बे के उन सभी चेहरों को
जिनकी दुर्घटना में मौत हुई थी
हम भूल जाते हैं
उस लड़की को
जो कुछ रोज पहले मुहल्लें से चली गई
हम भूल गए हैं
उन मकानों को जिन्हें बिल्डर ने
हम सभी के सामने कब्जा किया था
हम भूल गए हैं
अपनी बस्ती के स्कूलों को
हम भूल गए हैं
उन सभी मास्टरों को
जिनसे हमने समय का व्याकरण सीखे थे
हम भूल गए हैं
अपने कस्बे के सबसे पुराने पेड़ को / सबसे पुरानी दुकान को
हम भूल गए हैं
अपने मुहल्ले के सभी बच्चों को
एक दिन हम भूल जायेंगे
संविधान को
एक दिन हम भूल जायेंगे
रामायण / महाभारत की कहानियों को
हम भूल जायेंगे
जब तक दिल्ली हंसती रहेगी
हम अपने समय में सब भूल जायेंगे
हम भूल जायेंगे
अपनी हत्या के दिन !!
नीतीश मिश्र

Sunday 20 September 2015

सपनों को कुरेदता हूँ

रेगिस्तान में
कुरेदता हूँ
सपनों को
देखता
लाल मिर्च की तरह
मेरे सपने
कहीं भीतर सूखे हुए हैं
अब लगता हैं
यह मेरे
सपने नहीं हैं
मेरे देह की सिकुड़ी हुई हड्डिया है।
और शब्द मेरी मुठ्ठी से
रेतों के मानिंद अपने अंदर से उम्मीद खोकर
मुहाने पर मुझे निहत्था छोड़ने के लिए तैयार हैं।।

पूरा कब्रिस्तान घर हैं।

मुझे लिखना हैं
प्रेमपत्र !
कब्रिस्तान में सोई हुई आत्माओं के लिए
मुझे लिखनी हैं
एक कहानी
कब्रिस्तान में सोये हुए एक बच्चे के लिए
मुझे लिखनी हैं
एक आत्मकथा
उस पागल की
जिसकी आँखों में रोशनी नहीं हैं।।

धरती का केंद्र हिल रहा हैं

आज हम मौत भी बेचकर
जीना चाहते हैं
अपने सपनों को डमरू बनाकर
अपने होने को बचाये हुए हैं
हम कहीं नहीं हैं
यदि हम कभी खुद को दीवारो में
नारो में तमाशों में देखकर खुद को खोने का मान लेते हैं
और यही से हम भटक गए हैं
हम भटके हुए लोग हैं
इसलिए खुद भटकते हैं
और सोचकर खुश होते हैं
धरती का केंद्र हिल रहा हैं।।

हम भटके हुए लोग हैं

आज हम मौत भी बेचकर
जीना चाहते हैं
अपने सपनों को डमरू बनाकर
अपने होने को बचाये हुए हैं
हम कहीं नहीं हैं
यदि हम कभी खुद को दीवारो में
नारो में तमाशों में देखकर खुद को खोने का मान लेते हैं
और यही से हम भटक गए हैं
हम भटके हुए लोग हैं
इसलिए खुद भटकते हैं
और सोचकर खुश होते हैं
धरती का केंद्र हिल रहा हैं।।

हम छिपायेगें मौत की खबर को

हम छिपाकर रखेंगे अपनी मौत की खबर को
हम छिपायेगें अपनी ईमानदारी
और बचे रहेंगे कुछ देर तक
किसी की याद बनकर
कोई देखेगा कुछ दिन तक रास्ता
हमे अपनी मौत की खबर को दबा कर रखनी होगी
जिससे बचा रहेगा चाय वाले का कुछ देर तक विश्वाश
जिससे जीवित रहेगी मेरी कमीज
जो दर्जी के यहाँ महीनो से पड़ी हुई हैं।
हमे अपनी मौत की खबर को छुपानी होगी
जिससे बची रहे
कुछ देर के लिए
उम्मीदें!

कविता मेंसब गायब हैं

कविता कैसे लिखूं
जब पास में नून नहीं
तेल नहीं
प्याज नहीं
यहाँ तक की दाल भी नहीं
कविता में जब यह सब गायब हैं
समझिये कविता घर में नहीं हैं
कविता फिर बैठी हैं
कहीं सोफे पर
हमे कविता में लाना होगा
फिर वहीं नून /तेल / तरकारी
फिर कविता हसेंगी
कविता बोलेगी
और एक हथियार की तरह
हमारे पास रहेगी ।
यदि कविता में
हम नून नहीं ला रहे हैं
तब हम खुद ही दलाल हैं
और अपनी कविता के हत्यारे भी।

हम कविता के हत्यारे बन जायेंगे
हम पर आरोप लगेगा
हमने पाठकों को भटकाया हैं।

पूरब मेंहथियारों का कारखाना हैं

मैं अक्सर देखता हूँ
एक कुत्ते को
पूरब दिशा की और मुंह करके भोंकते हुए
मैं अक्सर देखता
पूरब से
एक बच्चे को उदास लौटते हुए
मैं देखता हूँ
जो औरत पूरब गई हैं
वह अभी तक लौटकर नहीं आई हैं।
मैं अक्सर देखता हूँ
पूरब गया आदमी
सभी दिशाओं को गाली देता हैं
पूरब में सूर्य नहीं
हथियारों का कारखाना खुल गया हैं।।

मैं हिंदुस्तान का चरित् हूँ

मैं कामरेड नहीं हूँ
मैं आमरेड भी नहीं
मैं संघी भी नहीं
मैं सपाई भी नहीं
मैं दलाल भी नहीं
हरिशन्द्र भी नहीं
रावण भी नहीं
राम भी नहीं हूँ
गांधी भी नहीं
मैं केवल नमक की तरह
हिंदुस्तान का मात्र चरित्र भर हूँ।।
नीतीश मिश्र

Friday 11 September 2015

बच्चे भूल चुके है दूध का स्वाद

जहां बच्चे भूल चुके है दूध का स्वाद
बच्चे सपनों में बना रहे है
कपड़े के लिए एक प्रस्ताव....
मां अंधेरे की शिला पर बैठकर बुन रही है
स्मृतियों का एक रंग- बिरंगा स्वेटर
जिससे उसकी आत्मा कुछ - कुछ गर्म हो सके
बच्चे पेड़ों के पास खड़ा होकर पूछते है-
क्या तुम कभी फलते थे?
हम तो जबसे देख रहे है तुम ठूंठ की तरह उदास हो।
बच्चे जब भूख से खुश होते है
तब कढ़ाई में भरते है
थोड़ी सी धूप और थोड़ी सी हवा
और इस कदर खूश होते है
जैसे उन्होंने आसमान को पा लिया हो।

वो आएगा

वो आएगा
वो कभी भी
किसी भी रास्ते आ सकता हैं
हत्यारा
तुम्हारी कविता में बिंब बनकर आ सकता हैं
तुम्हारे दिमाग में तनाव बनकर आ सकता हैं
तुम्हारी थाली में अभाव बनकर आ सकता
हत्यारा अब तुम्हारे विचार में आ सकता हैं
हत्यारा खेतों में खाद और पानी के रूप में आ सकता हैं
हत्यारा बीमारी बनकर तुम्हारे देह में आ सकता हैं
हत्यारा अख़बार में एक खबर की तरह आ सकता हैं।
हत्यारे का तुम कुछ नहीं कर सकते
क्योकि हत्यारा जानता हैं
तुम जीना भी चाहते हो और भोंकना भी ।।
तुम हत्यारे से अब नहीं लड़ सकते हो ।

कल रात सेपरेशान हूँ

कल रात से ही परेशान हूँ
जबसे खबर सुना हूँ
मेरा एक दोस्त
इलाहबाद में बीमार हैं
इतना बीमार हैं
उसे पता ही नहीं
हिंदी का लेखक क्या कर रहा हैं
उसे यह भी नहीं मालूम बाजार क्या कर रही हैं
उसे यह भी नहीं मालूम
हिन्दू क्यों इतना खुश हैं
और मुसलमान क्यों इतना नाराज हैं
उसे यह भी नहीं मालूम
स्त्रियां पूंजीवाद की गुलाम हो रही हैं
उसे यह भी नहीं मालूम
अयोध्या के देवता से शक्तिशाली
अब एक विधायक हो गया है ।
वह कुछ भी नहीं जानना चाहता हैं
बस बार बार पूछता रहा
क्या नीतीश मैं बच जाऊंगा ?
मैं फोन पर चुप चाप हो गया
और दिवार पर लिखता रहा रात भर
क्या नीतीश मैं बच जाऊंगा ??

बाप डाकिए का देखता रहता हैं रास्ता

जब आसमान में सूर्योदय होता हैं
घर में बाप के साथ झाड़ू भी जागती हैं
बाप आसमान को पकड़कर
चौखट पर बैठ जाता हैं
और डाकिए का रास्ता देखता हैं
जबसे बेटी गई हैं शहर
बाप उदास होकर खड़ा हैं
बेटी की चिठ्ठी आती हैं
बाप बेटी की परेशानियां जानकर मौन हैं
फिर भी बेटी बाप की उम्मीद हैं
इसलिए बाप खुश हैं
यह सोचकर की एक दिन बेटी की ऐसी चिठ्ठी आएगी
जिसमे लिखा रहेगा
पिताजी आज आपकी बेटी बहुत खुश हैं
यही पक्ति पढ़ने के लिए
बाप इंतजार कर रहा हैं
और बेटी शहर में दौड़ रही किसी रेलगाड़ी की तरह ।।

यादों से बच्चें गायब हो रहे हैं

अब तक धरती से बच्चे गायब होते थे
या दंगे में मर जाते थे
या मार दिया जाता था
या कभी कभी बच्चे भाग भी जाया करते थे
लेकिन अब बच्चे
स्मृतियों से जाने लगे हैं
अब नहीं सुनाई देती पड़ोस के एक बच्चें की आवाज
अब नहीं सुनाई देती
बच्चों की बहादुरी भरी कहानियां
बच्चे यादो के बंदरगाह से जाने लगे हैं
और जो बच्चे गायब हो गए हैं नौकरी की तलाश में
वह अब बच्चे नहीं रहे।।
मेरी यादों से बच्चे गायब हो रहे हैं
बच्चे मंदिरो में अब नहीं आते
बच्चे भूल गए हैं
पंक्षियों के नाम
बच्चे मेरी यादो से पलायन कर रहे हैं।।

यह बच्चा अब कहाँ जायेगा

गांव में अगर कुछ बचा हैं
तो
एक बच्चा
एक मंदिर
और एक मस्जिद
और सूखे पोखरे
कब्रिस्तान
अब यह बच्चा शहर जायेगा या यहीं रहेगा
अगर यही रहेगा
तो पहले मंदिर जायेगा या मस्जिद या कब्रिस्तान।
यह बच्चा अब कहाँ जायेगा।।
जब भी शहर में
कोई मस्जिद या मंदिर बनता हैं
मुझे लगता हैं
दुनिया ने
एक नए हथियार का अविष्कार कर लिया हैं
जब भी शहर में
कोई नया पंडित
या नया मुल्ला तैयार होता हैं
लगता हैं
मेरे ही आँगन में एक नई विभाजन रेखा खींच दी गई हैं।।

तुम तो सिर्फ व्याख्यान में थे

अब तुम लड़ाई नहीं लड़ पाओगें
लड़ाई के लिए रचोगे
सिर्फ स्वांग
और आख्यान
और करोगे अपने पुराने जंग पड़ गए इतिहास का प्रचार
जबकि तुम जानते हो
जब तुम पहली बार इस दिशा में आये थे
तभी भी तुम यही तख्तियां लेकर
हवा में मुक्का मारते थे
और भूख ओढ़कर
एक क्रांतिकारी की हैसियत से
आंदोलनों में भाग लेते
आज भी तुम्हारे साथी
वही गाना दोहराते
तुम लड़ाई में थे ही कब
तुम सिर्फ अपनी आवाज और अपनी पत्रिका में थे ।
और आज भी
तुम्हारे बाद
कई साथी उन्हें मिल गए
जो तख्तियां लेकर खड़े हैं
उन्हें मालूम नही हैं
पूरब दिशा का पता ।
तुम लड़ाई में आये ही कब
तुम तो सिर्फ व्याख्यान में थे ।।

हम दूर-दूर तक लड़ाई में नहीं हैं

हम दूर-दूर तक लड़ाई में नहीं हैं
हमारे ही साथी
हथियारों के बेंट बनकर
उनके हाथों का शोभा बने हुए हैं
उसके बावजूद भी हम चिल्ला रहे हैं कि हमारी लड़ाई जारी हैं
"हमारी लड़ाई जारी हैं"
अब यह एक दृष्टि नहीं
बल्कि यह भ्रम से रंगा हुआ एक कथन भर हैं
हमारे बुजुर्ग भी
अब लाल कुर्ता पहनना शुरू कर दिए हैं
हमारे विचारक भी अब सुरक्षित
जीवन की खोज में अन्वेषण कर रहे हैं
हम मरे हुए सपने हैं
और उनकी ताबूत में बंद हैं
वो हमे जिन्दा करने के लिए
युद्ध मैदान के किनारे से एक आवाज लगाते हैं हमारी लड़ाई जारी हैं ।।

तुम कहां हो भाई!

तुम कहां हो भाई!
अब वो लोग हिंदी में सपना देखना शुरू कर दिए
जबकि तुम हिंदी- हिंदी करते- करते मर गए
तुम तो हिंदी में उसी दिन मर गए थे
जब महानगर में प्रेमपत्र लिख रहे थे
तुम कहां हो भाई
जब हिंदी वो लोग बोलेंगे
जो हिंदी में रो नहीं सकते
जो हिंदी में गाली नहीं दे सकते
जो हिंदी में प्यार नहीं कर सकते
तुम कहां हो भाई
समाजवाद के पीछे तो नहीं भाग रहे हो,
तुम्हारे समाजवाद से भी हिंदी गायब हो चुकी है
तुम्हारे धर्म से भी हिंदी गायब हो चुकी है
तुम्हारे देवता भी नहीं सुन रहे है हिंदी में प्रार्थना
तुम बस जाने जाओंगे
वह भी तब जब तुम मर जाओंगे
या मार दिए जाओंगे
तब दिखाई देंगे
हिंदी के गिद्ध आसमान में उड़ते हुए
और लोकतंत्र के नाम पर मनाएंगे
तुम्हारे मौत का उत्सव
और फिर चले जाएंगे लोकतंत्र को बचाने
कहां हो भाई
दिल्ली के मोर्च पर
या अयोध्या के बियाबान में भटक रहे हो।।
नीतीश मिश्र

हम दुःखी थे

हम दुःखी थे
तभी यह धरती हमे विरासत में मिली
और आज भी हम दुःखी हैं
जब हमसे हमारी विरासत छीनी जा रही हैं
आज हमारे पास विरासत के नाम पर
चन्द पन्नों का इतिहास हैं
और चन्द कुछ ऐसे चेहरे हैं
जिन्हें हम अपनी परछाई बनाने में लगे हुए हैं
हम हारे हुए लोग हैं
और हारे हुए का कोई चेहरा नहीं होता ।।
नीतीश मिश्र
हम पहली बार पन्द्रह अगस्त को हारे थे
दूसरी बार इमरजेंसी के समय
तीसरी बार अयोध्या में
और चौथी बार
चौदह मई 2014 को
और पांचवी बार
दस सितंबर को
हम अब लिखेगें
सिर्फ अपने हारने की तिथि।।
नीतीश मिश्र

हम ठहरे हुए लोग हैं

हम ठहरे हुए लोग हैं
हम कभी लड़ाई में थे ही नहीं
हम लोग तो विचारों का पर्दा लेकर चलने वालों में से हैं
हम जिए कम बोलते रहे ज्यादा
उधर हत्यारा
खरगोश के साथ दौड़ रहा था
उसकी आवाज से सागर भी कांपता था
हमे यह सब मालूम था
फिर भी हम
धूप के खिलाफ खड़े नहीं हुए
हम लोग ठहरे हुए लोग हैं
इसलिए हम बस
मौत का मातम मनाना जानते हैं।
हम लोग ठहरे हुए हैं।।
नीतीश मिश्र

Monday 7 September 2015

बच्चे जब भूख से खुश होते है

जहां बच्चे भूल चुके है दूध का स्वाद
बच्चे सपनों में बना रहे है
कपड़े के लिए एक प्रस्ताव....
मां अंधेरे की शिला पर बैठकर बुन रही है
स्मृतियों का एक रंग- बिरंगा स्वेटर
जिससे उसकी आत्मा कुछ - कुछ गर्म हो सके
बच्चे पेड़ों के पास खड़ा होकर पूछते है-
क्या तुम कभी फलते थे?
हम तो जबसे देख रहे है तुम ठूंठ की तरह उदास हो।
बच्चे जब भूख से खुश होते है
तब कढ़ाई में भरते है
थोड़ी सी धूप और थोड़ी सी हवा
और इस कदर खूश होते है
जैसे उन्होंने आसमान को पा लिया हो।

नीतीश मिश्र