Thursday 24 September 2015

मैं भूल जाता हूँ महाकाल को

महाकाल के प्रताप के बीच हूँ
या नर्मदा की गहराई के पास
या शहर के सबसे सुर्ख पागल की हंसी के पास रहूँ
या भीड़ के अँधेरे में
मुझे याद आती हैं तुम्हारी हंसी
मुझे याद आता हैं तुम्हारा गुस्सा
मुझे याद आती हैं
तुम्हारी उर्दू वाली जुबान
मैं महाकाल के तांडव के चाहे कितना ही पास रहु
मुझे याद आता हैं
अपने गांव का कुआँ
जहाँ पड़ी हुई हैं
सदियों से कई चीखे
मैं कितना भी विराट हो जाऊं ?
मुझे याद आती हैं
तुम्हारी लघुता
मुझे याद आती हैं
तुम्हारे शहर की  धूप
मुझे याद आती
तुम्हारे गांव की हवा
मैं महाकाल के कितना ही करीब हो जाऊं
मैं देखता हूँ
अपने भीतर एक नहीं
चार आँख
मैं देखता हूँ भीतर
चार हाथ चार पांव
मैं भूल जाता हूँ
महाकाल को
 जाता हूँ नर्मदा को ॥

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