Monday 30 May 2016

श्मशान

शाम को 
मेरे कमरे में 
तमाम चेहरे और पांव आकर ठहर जाते है 
यहाँ से मैं देखता हूँ 
कांपते हुए जंगल को 
रोती हुई नदी को
पहाड़ के जख्म को
मैं यहां से देखता हूँ
कुरुक्षेत्र को
कभी कभी लगता है
मेरा कमरा श्मशान सरीखा हो जाता है।।
नीतीश मिश्र

लिफाफे में कुछ नहीं था

जिंदगी के लिफाफे में कुछ नहीं था 
सिवाय सवाल के 
और मैं एक संदेह की तरह 
बिजली के तार में उलझा हुआ था 
मेरे शहर में रोज दर्जनों ट्रेनें उम्मीद लेकर आती थी 
और हर रोज दर्जनों ट्रेनें मेरे शहर से लोगों का भय लेकर एक अंतहीन सफर में लेकर जा रही थी
इस बीच जब भी लिफाफा खोलता था
हाथ में एक सन्नाटे के सिवाय कुछ नहीं
जिंदगी के आयतन बढ़ते गए
पर सवाल का क्षेत्रफल वही था
जितना बन्द लिफाफे का।।

मेले में प्रेमपत्र खो गया

बहुत पहले
किसी मेले में
एक प्रेमपत्र खो गया था
तभी से हर मेले में
वह पत्र खोज रहा हूँ 
वह हाथ खोज रहा हूँ
वह आँख खोज रहा हूँ
वह होंठ खोज रहा हूँ
वह चेहरा खोज रहा हूँ
लेकिन आज तक किसी मेले में
कोई भी ऐसा साक्ष्य नहीं मिला
कि मैं दावा कर सकूँ की
मेरा पत्र किसी को मिला होगा ।।
नीतीश मिश्र

मेरे शहर की सड़के

जब भी तुम्हारें शहर से
कोई ट्रेन आती है
मुझे लगता है एक खुशबू आ रही है
और मैं बादलों की तरह
अपने शहर की मिट्टी में उमड़ने लगता हूँ 
जब ट्रेन आती है
स्टेशन पर असंख्य उदास चेहरे
असंख्य उदास पांव
ढ़ेरो बेरोजगार हाथ
मेरे शहर की सड़कों पर अपना अर्थ खोजने लगते है
मैं उदास होकर अपने ही भीतर अस्त हो जाता हूँ
एक नई सुबह चौराहे पर
सभी सड़के उदास दिखाई देती है
सड़को से उनकी उदासी पूछता
तब सड़क धीरे से कहती है
चौराहे पर रखा हुआ लेटर बॉक्स
वर्षो से उदास है
जब तक मेरे शहर का लेटर बॉक्स उदास रहेगा
मेरे शहर की सड़के कभी किसी को
मंजिल तक नहीं लेकर जाएगी।।
नीतीश मिश्र

औरते रंग का केंद्र बनना चाहती है

सुबह सुबह 
एक औरत को पतंग की तरह
आसमान में उड़ते हुए देखता हूँ 
एक औरत को दोपहर में 
धूप में अपनी त्वचा को रंगते हुए देखता हूँ 
शाम को एक औरत को दरवाजे में तब्दील होते हुए देखता हूँ
रात में तीनों औरतों को
पसीनें में डूबते हुए देखता हूँ
औरते पसीने की परिधि से बाहर आकर
अपने रंग का केंद्र बनना चाहती है।।

बूढी औरतों ने नकार दिया है

बूढी औरतों के पास 
आसमान का कोई टुकड़ा भी नहीं है 
अपनी आँखों में वे अब चाँद भी नहीं देख पाती 
बूढी हो रही औरतों के पांव के नीचे की जमीन 
भी बूढी हो चुकी है 
बूढी औरतों ने नकार दिया है
तुम्हारे लोकतंत्र को और तुम्हारी विचारधारा को
बूढी औरतों के लिए अगर कुछ सच है
तो उनका हाथ और उनका चूल्हा
अब लाल किले से कभी मत कहना की
हम आज़ाद है ।

पहाड़ जाग रहा है

जब तुम चूल्हे की हत्या करके 
अपने निर्दोष होने का प्रमाण दोंगे 
तब तक शहर से भाग चुकी होंगी लड़किया 
सूर्योदय में तुम खोजोगे 
और धूप / हवा को गाली दोंगे 
तब तक सभी लड़किया पहाड़ पर जा चूँकि होंगी 
आज तक लड़कियो की प्रतिक्षा में 
पहाड़ जाग रहा है।।

मैं आऊंगा

मैं आऊंगा धरती पर 
रेत की दूब बनकर 
और इंतजार करता रहूँगा 
तुम्हारें पवित्र स्पर्श का।
मैं आऊंगा 
तुम्हारें पास 
आईना बनकर 
और तुम मुझे 
स्थिर होने की अनिवार्य सजा सुना देना।।

हम दोनों के बीच

मैंने तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया 
सिवाय चौराहे पर तुम्हारा नाम लिखा 
अपने आईने में तुम्हारी तस्वीर उतारी 
नदी के कान में कुछ कहा था 
जो आज भी गूंजती है 
एक तट पर मैं अपने लाल रंग के साथ
दूसरे तट पर तुम हरे रंग को लेकर
और बीच में हम दोनों के उज्ज्वल नदी गुजर रही।।

मेरी खबर में


आज एक बच्चे की गेंद गायब हो गई
एक क्षण के लिए मुझे लगा की धरती गायब हो गई 
आज उसी बच्चे के पांव से जूता गायब हो गया 
मुझे लगा की मेरे दोनों पांव गायब हो गए
आज एक बच्चे का चेहरा गायब हो गया
मुझे लगा की अब शहर की नैतिकता मर चुकी है
आज एक बच्चे का बस्ता गायब हो गया
मुझे लगा की आज किसी ने मेरा दिल चुरा लिया
आज एक बच्चे का खिलौना गायब हो गया
मुझे लगा की मेरा विस्थापन हो गया।
आज मैं खबर लिख रहा था बचपन की
शहर में इसी बीच कोई मेरा प्रेमपत्र चुरा रहा था।।

मैं नहीं हूँ

मैं अपने शरीर में नहीं हूँ 
मैं जब भी अपना चेहरा खोजता हूँ 
मुझे अपने शरीर में 
इतिहास की कलाकृतियां मिलती है
जब सचेत होकर खोजता हूँ
तब मुझे नींद मिलती है
तब मुझे कुछ सपने मिलते है
कुछ दुःख मिलता है
कुछ असफलताएँ मिलती है
कुछ संभावनाएं मिलती है
लेकिन अपने शरीर में मुझे अपना चेहरा नहीं मिलता
बहुत मेहनत करता हूँ
तब थक कर यही कहता हूँ
मैं मुस्कान में भी हूँ
मैं दुःख में भी हूँ
मैं अतीत और भविष्य में हूँ
कभी कभी अपनी हार में भी अपनी ही विजय लिखनी होती है
शायद यह पहली हार थी धरती पर एक मनुष्य की।।

मैं नहीं हूँ

मैं अपने शरीर में नहीं हूँ 
मैं जब भी अपना चेहरा खोजता हूँ
मुझे अपने शरीर में 
इतिहास की कलाकृतियां मिलती है
जब सचेत होकर खोजता हूँ
तब मुझे नींद मिलती है
तब मुझे कुछ सपने मिलते है
कुछ दुःख मिलता है
कुछ असफलताएँ मिलती है
कुछ संभावनाएं मिलती है
लेकिन अपने शरीर में मुझे अपना चेहरा नहीं मिलता
बहुत मेहनत करता हूँ
तब थक कर यही कहता हूँ
मैं मुस्कान में भी हूँ
मैं दुःख में भी हूँ
मैं अतीत और भविष्य में हूँ
कभी कभी अपनी हार में भी अपनी ही विजय लिखनी होती है
शायद यह पहली हार थी धरती पर एक मनुष्य की।।
नीतीश मिश्र

मैंने महाकाल को रोते हुए देखा है

मैंने महाकाल को रोते हुए देखा है 
मैंने क्षिप्रा को प्रेमपत्र लिखते हुए देखा है 
मैंने उज्जैन को श्मशान में तब्दील होते हुए देखा है 
मैंने कालभैरव को देवदास बनते हुए देखा है 
मैंने चिंतामणि गणेश को कमजोर होते हुए देखा है 
मैंने भूखी माता को आमरण अनशन करते हुए देखा है
मैंने चौबीस खम्बा देवी को कैद होते हुए देखा है
मैंने गढ़ कालिका को पत्थर में शरण लेते हुए देखा है।
क्योंकि उज्जैन से हर समय रोते हुए स्त्रियां ही गई है
स्त्रियों के जाने के बाद
उनके लौटने की गरणा भी यही से शुरू हुई
लेकिन अफ़सोस वह स्त्रियां कभी नही लौटी।।

एक औरत बीज बो रही है

आज फिर एक औरत 
आँखों में उदासी लिए जा रही थी 
आज फिर एक बच्चा 
उम्मीद के गर्त में गिर गया 
और तुम चाँद को देखकर हँस रही थी 
मैं आसमान में टूटे हुए ख्वाबों को दफना रहा था।

एक औरत अपनी मरी हुई आत्मा के साथ 
नदी में बीज बो रही है 
एक बच्चा पतंग की तरह अपनी आत्मा को उड़ा रहा हैं 
एक भिखारी बिना आत्मा के हवा में हस्ताक्षर कर रहा है 
एक वैश्या लोगों की आत्मा को अनवरत पढ़ रही है 
एक मैं हूँ जो तुम्हारी आत्मा को लेकर
अपनी आत्मा की हत्या कर रहा हूँ।

सिग्रेट की डीबिया

सिग्रेट की डीबिया पर 
शाम को तुम्हारा नाम लिखा था 
रात को धुएं के साथ 
तुम्हारा नाम 
आसमान में अपना वजूद खोज रहा था 
अँधेरे में 
सिग्रेट की डीबिया पर 
रात भर तुम्हारा स्केच बनाता रहा 
सुबह जब नींद खुली 
तब सभी ख्वाब राख हो चुके थे 
और तुम्हारा स्केच भी गायब हो चूका था
ठीक वैसे ही जैसे तुम बिना बताएं
नदी के रास्ते चली गई थी।

पेड़ खड़ा है

पेड़ प्रेमिका की प्रतिक्षा में खड़ा है 
पत्तियो के आसरे सदियों से लिख रहा है 
प्रेमपत्र 
एक दिन जब पेड़ गिर जाएगा 
तब तुम्हें पता चलेगा 
की एक पेड़ धरती के अंदर भी ताजमहल बनाता था।।
नीतीश मिश्र