शाम को
मेरे कमरे में
तमाम चेहरे और पांव आकर ठहर जाते है
यहाँ से मैं देखता हूँ
कांपते हुए जंगल को
रोती हुई नदी को
पहाड़ के जख्म को
मैं यहां से देखता हूँ
कुरुक्षेत्र को
कभी कभी लगता है
मेरा कमरा श्मशान सरीखा हो जाता है।।
नीतीश मिश्र
मेरे कमरे में
तमाम चेहरे और पांव आकर ठहर जाते है
यहाँ से मैं देखता हूँ
कांपते हुए जंगल को
रोती हुई नदी को
पहाड़ के जख्म को
मैं यहां से देखता हूँ
कुरुक्षेत्र को
कभी कभी लगता है
मेरा कमरा श्मशान सरीखा हो जाता है।।
नीतीश मिश्र
No comments:
Post a Comment