Saturday 22 June 2013

ईश्वर असमर्थ होता हैं

तबाही के बाद ...
मंदिर का शेष होना
यह गवाही देता हैं कि
ईश्वर असमर्थ होता हैं
आदमियों की रक्षा कर पाने में ......
अब जो लोग बच गए
क्या वे मानेगें की
ईश्वर भी आदमखोर होता हैं ......
लेकिन नहीं ऐसा नहीं होगा
पंडित फिर रामायण लिखेगा
और कहेगा कि क़यामत में कुछ बचता हैं तो सिर्फ ईश्वर
और लोगों को दिखायेगा साक्ष्य मंदिर के बचे रहने का .....
और लोग फिर जायेंगें केदारनाथ ....
जबकि मैं बार --बार कहता हूँ
वहां कोई ईश्वर नहीं हैं
एक स्त्री -पुरुष का प्रेम हैं ....
जो हंसीं वादियों में एकांत में बैठकर
वर्षों से कर रहे हैं प्यार .......
अगर मेरी बात पर यकीं ना हो देख लीजिये तबाही के बाद का मंजर
कोई स्त्री पड़ी हुई मिल जाएगी अपने प्रेमी के बांहों में
और कोई बच्चा मिल जायेगा अपनी माँ की बांहों में .......

नीतीश मिश्र

Thursday 20 June 2013

बाढ़

बाढ़ आई ....
और सब कुछ
ख़त्म हो गया .....
ख़त्म हो गयी
आदमी के अन्दर की साम्प्रदायिकता ..
नहीं रहा कोई दलित अब ...
नहीं रही कोई स्त्री
जिसके साथ कोई बलात्कार कर सके .....
ख़त्म हो गयी
आदमी की राजनीति ......
बस कुछ शेष रह गया हैं
आदमी के अन्दर तो
एक प्यार
जो एक दीये की तरह टिमटिमा रहा हैं
लोगों की आँखों में
कभी लोगों की साँसों में ......

नीतीश मिश्र

Wednesday 19 June 2013

मैं, नहीं जानता था

तुम मुझे इतना मानती हो
कि कसमे भी ...
तुम्हारे विश्वाश के आगे
कुछ फीकी सी लगती हैं ....

मैं, नहीं जानता था कि
तुम मुझे इतना प्यार करती हो
जितना होंठ तुम्हारी हँसी को चाहता हैं .....

आज जब गंगा की कसम खाकर कहने लगी ...
मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ ....
तब मुझे पता चला की गंगा इंतनी पवित्र क्यों हैं .....

नीतीश मिश्र

Tuesday 18 June 2013

सूरज की आंच में

एक मजदूर के पास इंतना भी समय नहीं होता हैं
कि वह अपनी प्रेमिका से प्यार कर सके ...
शाम को डूबते सूरज की आंच में
जब अपने लिए रोटी सेकता हैं .....
रोटी को आईना समझकर
निहारता हैं ....
अपना चेहरा ....
और उसे याद आता हैं
कि वह दिन जिस दिन प्रेमिका ने गाल पर चूमा था ....
इसी याद के साथ थोड़ी देर
हँसते हुए चाँद को देखकर रोता हैं .....
उसका चेहरा अब वह चेहरा नहीं रह गया
जिस चेहरे को उसने जी भरकर चूमा था ....
फिर गंभीर होकर
रोटी को ही चूमता हैं
इस उम्मीद में की वह भी कहीं
रोटी ही तो बना रही होगी ....
और मैं भी एक रोटी के लिए ही तो प्रदेश में मर रहा हूँ ....
तबसे हर मजदूर के लिए
रोटी ही एक प्रेमिका जैसी लगती हैं ........

Wednesday 12 June 2013

मैं, सपना नहीं बन पाया

मैं, सपना नहीं बन पाया
तुम्हारे मन का
मैं,नहीं बन पाया
तुम्हारे आंगन का कोई खाली जगह
मैं, नहीं बन पाया
तुम्हारे समय के लिए कोई भी शब्द ।
हाँ मैं बन गया हूँ .....
अपने वक्त का हथियार
हाँ ! मैं बन गया हूँ
इतिहास को झूठा करने के लिए एक शब्द

Thursday 6 June 2013

आँखे ..

मैंने अपनी संस्कृति को
संभालकर नहीं रख पाया आज तक .....
मैंने अपने ईश्वर को भी नहीं संभालकर कर रख पाया ...
यहां तक कि बाबूजी की बहुत सारी यादें भी
सपनों की तरह भूलता गया ......
लेकिन हाँ ....
मैं संभालकर कर रखा हुआ हूँ ....
अपनी आँखे ....
जो आने वाले इतिहास को कह सकती
बिना किसी खौफ के की इतिहास झूठा हैं ...
क्योकि मेरी आँखे देखी हैं ...
अयोध्या में हो रहे दंगें को
और गुजरात में जाहिद को मरते हुए ...
मेरी आँखे देखी हैं
की लाल किला पर एक उल्लू बैठकर कहता हैं ...
दुनिया बहुत सुन्दर ......

माफ़ करना भाइयों !
मैं नहीं बचा कर रख सका तुम्हारे सपनों को ..
हाँ !लेकिन माँ का हँसता हुआ चेहरा जरूर अपने पास बचा कर रखा हूँ ...
क्योकि मेरी माँ खुदा और मेरी प्रेमिका दोनों से सुन्दर लगती हैं ....

नीतीश मिश्र

प्रहलाद दास टिमनियाँ

कई  सालों  बाद फुरसत के क्षण में निर्गुण भजन सुनने का अवसर मिला । प्रख्यात निर्गुण गायक प्रहलाद दास टिमनिया की आवाज से कबीर को सुनकर फिरसे देहराग से मुक्त होने की एक सघन सी अनुभूति हुई । कबीर को सुनना या कबीर को पढ़ना दोनों का एक ही अर्थ लगता हैं । कई बार लगता हैं की इस कठिन समय में जब आपके पास अपना कुछ भी नहीं होता हैं जिस पर एक क्षण के लिए विश्वाश किया जा सके ऐसे में कबीर ही एक होते है जो आपको अपना बनाने के लिए एक बार पास बुलाते हैं ....लेकिन हम आज बाज़ार के बीच इस कदर घीर चुके हैं की सब कुछ सही ही लगता हैं । हम सोचते हैं की हम भोग भी करे और समाज के लिए कुछ करते भी रहे । यह आदमी का अपना निजी विचार नहीं हैं बल्कि वह इसे बाज़ार से सिख कर अपने लिए एक मन्त्र बनाया हैं और इसी विचार पर आज मनुष्य अपने को ज्ञानी समझता हैं । लेकिन मेरे लिए कबीर उतने ही प्यारे हैं जितना मुझे मेरा इश्क प्यारा लगता हैं । यदि सही में कहूँ तो मैंने कबीर को अपने जीवन में गुंथकर ही इश्क के मैदान में कूदा और ऐसा कूदा कि अब वहां से निकलने के सारे दरवाजे भूल चूका हूँ । आज के इस भीषण समय में मुझे कबीर ही अपने परिवार के एक सदस्य की तरह ही लगते हैं । मैं बहुत पहले अपने गाँव पहाड़ीपुर में एक सूरदास के मुहँ से कबीर को सुना था लेकिन उस समय जीवन की बहुत अच्छी समझ नहीं थी लेकिन उस समय भी यही अनुभूति हुई थी की अन्दर कुछ हैं जिसकी बात हम कभी नहीं सुनते हैं और वह अन्दर कोई और नहीं बल्कि अपनी ही विराट प्रतिमा होती हैं जो कभी बाहर तो कभी भीतर जाने का एक प्रयास करती हैं । आज टिमनिया जी के पास बैठकर कबीर को सुन रहा था और ऐसे में यही लग रहा था की मैं कबीर के साथ काशी में बैठकर अपने प्यार के लिए एक धागा बुन रहा हूँ ........घंटो बैठकर अपने आंसुओ से खुद को सीचते हुए अपने जीवन के लिए एक बेहतर रास्ता बनाने के बारे में सोचने लगा । यदि मेरा समाज मानस के साथ --साथ कबीर का भी अपने घरों में नियमित पाठ करे तो शायद आज हमारे समय में कुछ परिवर्तन होना शुरूं हो जाये ............

Saturday 1 June 2013

ऋतुपूर्णो घोष

ऋतुपूर्णो घोष जीवन और जगत के प्रति उतने ही सजग और संकल्पधर्मी थे, जितने वे अपने कलात्मक फिल्मों के प्रति । उनकी फ़िल्में बाज़ार से समझौता किये बगैर ही एकबानगी के साथ निरंतर बाज़ार से मुठभेड़ करती   हुई   अपनी अकथ संवेदना को ताजगी से युक्त एक विशेष स्थान देती हुई ,अंतर्मन के दस्तावेज को एक व्यापक रंग से दीप्त करती हैं । एक प्रयोगधर्मी कलाकार अपने जीने के लिए और अपने साथ युग की पीड़ा से सरोकार रखते हुए मंत्रमुग्ध होकर एक सपाट व्याकरण रचता हैं । और यह अपने आप में एक ऐसा व्याकरण होता हैं जो संवेदना के स्तर पर एक फ़लसफ़ा का रूमानियत ठांचा खड़ा करता हैं,जो कभी दरकता नहीं हैं ।
समकालीन भारतीय सिनेमा के किसी भी परिदृश्य में उनको समेटकर नहीं रखा जा सकता हैं । वे बांगला फिल्मों में एक स्थायी स्तंभ थे ,लेकिन जागतिक फिल्मों की धारा में भी उनकी प्रतिभा उतनी ही जोरदार तरीके से हस्तक्षेप करती हैं जीतनी की बांग्ला फिल्मों में । एक तरफ समान्तर सिनेमा उन्होंने सत्यजीत राय की परंपरा को बिल्कुल मौलिकता के साथ अपनी कला में जीवित रखते हुए ताउम्र चलते रहे । बांग्ला फिल्मों से अलग हटकर हिंदी /उड़िया अंग्रेजी में भी एक नये विचार के साथ इन फिल्मों में लगातार एक नया प्रयोग करते रहे । मैंने सिर्फ उनकी एक ही फिल्म वो भी कलकत्ता में सन २ ० ० ६ में चोखेर बाली देखी थी, तभी से मैं उनकी प्रतिभा का कायल हो गया था । वे जैसा अपनी कला में नयेपन का प्रयोग करते थे ठीक उसी तरह वे अपने निजी जीवन में भी एक प्रयोग करते थे ।
उनकी हर तरह की फिल्मों में बंगाल की विरासत एवं कलात्मक संस्कृति का अतभुत पुट देखने को मिल जाता हैं । उनकी  बौद्धिकता और संवेदना ही उनकी शिल्प की बुनियाद थी । उनकी फिल्मों में ज्यादर संवाद रंग और मौन की भाषा के माध्यम से ही होता हैं ......


नीतीश मिश्र