Thursday 6 June 2013

प्रहलाद दास टिमनियाँ

कई  सालों  बाद फुरसत के क्षण में निर्गुण भजन सुनने का अवसर मिला । प्रख्यात निर्गुण गायक प्रहलाद दास टिमनिया की आवाज से कबीर को सुनकर फिरसे देहराग से मुक्त होने की एक सघन सी अनुभूति हुई । कबीर को सुनना या कबीर को पढ़ना दोनों का एक ही अर्थ लगता हैं । कई बार लगता हैं की इस कठिन समय में जब आपके पास अपना कुछ भी नहीं होता हैं जिस पर एक क्षण के लिए विश्वाश किया जा सके ऐसे में कबीर ही एक होते है जो आपको अपना बनाने के लिए एक बार पास बुलाते हैं ....लेकिन हम आज बाज़ार के बीच इस कदर घीर चुके हैं की सब कुछ सही ही लगता हैं । हम सोचते हैं की हम भोग भी करे और समाज के लिए कुछ करते भी रहे । यह आदमी का अपना निजी विचार नहीं हैं बल्कि वह इसे बाज़ार से सिख कर अपने लिए एक मन्त्र बनाया हैं और इसी विचार पर आज मनुष्य अपने को ज्ञानी समझता हैं । लेकिन मेरे लिए कबीर उतने ही प्यारे हैं जितना मुझे मेरा इश्क प्यारा लगता हैं । यदि सही में कहूँ तो मैंने कबीर को अपने जीवन में गुंथकर ही इश्क के मैदान में कूदा और ऐसा कूदा कि अब वहां से निकलने के सारे दरवाजे भूल चूका हूँ । आज के इस भीषण समय में मुझे कबीर ही अपने परिवार के एक सदस्य की तरह ही लगते हैं । मैं बहुत पहले अपने गाँव पहाड़ीपुर में एक सूरदास के मुहँ से कबीर को सुना था लेकिन उस समय जीवन की बहुत अच्छी समझ नहीं थी लेकिन उस समय भी यही अनुभूति हुई थी की अन्दर कुछ हैं जिसकी बात हम कभी नहीं सुनते हैं और वह अन्दर कोई और नहीं बल्कि अपनी ही विराट प्रतिमा होती हैं जो कभी बाहर तो कभी भीतर जाने का एक प्रयास करती हैं । आज टिमनिया जी के पास बैठकर कबीर को सुन रहा था और ऐसे में यही लग रहा था की मैं कबीर के साथ काशी में बैठकर अपने प्यार के लिए एक धागा बुन रहा हूँ ........घंटो बैठकर अपने आंसुओ से खुद को सीचते हुए अपने जीवन के लिए एक बेहतर रास्ता बनाने के बारे में सोचने लगा । यदि मेरा समाज मानस के साथ --साथ कबीर का भी अपने घरों में नियमित पाठ करे तो शायद आज हमारे समय में कुछ परिवर्तन होना शुरूं हो जाये ............

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