Friday 3 June 2016

सब कुछ पीछे छूटता जा रहा हैं

सब कुछ पीछे छूटता जा रहा हैं
यहाँ तक की आसमान में खिलता हुआ चाँद 
जिसे मैं तुम्हारे कहने पर रोटी समझकर घूरता था 
आज भी जब कहीं से पतली सी धूप दीवार पर गिरती हैं 
तब तुम्हारा चेहरा दीवार में चाँद की तरह चमकने लगता हैं 
पर मैं इस  बार रोटी समझने का भ्रम छोड़ देता हूँ 
और अपनी हिचकियो को सँभालते हुए 
अँधेरे के वृत्त में फकत रंगता हूँ 
तुम्हारे हाथ को 
जहाँ मेरा खून कभी रिसता  रहता था 
और तुम इसे ख्वाब समझकर हँसती  थी 
जब कभी खिड़की से अँधेरी रात को देखता हूँ 
एक भयानक आवाज सुनाई देती हैं 
और मैं लौट आता हूँ बिस्तर पर 
जहाँ से केवल मुझे भूख दिखाई देती हैं 
इतने में मेरी नजर 
कमरे में बिखरे हुए अख़बार पर पड़ती हैं 
जिस पर मोटे अक्षरों से लिखा हुआ हैं 
दुनिया बदल रही हैं और ख्वाब पुराने हो रहे हैं 
इतने में मेरी सांसे जोर जोर से चलने लगाती हैं 
मुझे लगता हैं मेरा शहर इलाहाबाद कहीं बगदाद तो नहीं हो रहा हैं 
मैं बिस्तर से उठकर 
चाय की पतीली खोजता हूँ 
और दियासलाई की डिबिया से एक तिल्ली निकालता हूँ 
एक पिली चिंगारी के बीच तुम्हारा चेहरा चूल्हे के बीच अड़हुल के फूल की मानिंद खिल उठता हैं 
चाय खौलने लगती  हैं 
और मैं लौट जाता हूँ 
इलाहाबाद  की गलियों में 
और बटोरता हूँ स्मृतियों के संगम से तुम्हारी  टूटी हुई यादें 
इतने में कानो में सुनाई देती हैं तुम्हारी हँसी 
मैं हँसी  की आवाज में खोजता हूँ अपना इतिहास ॥ 

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