सब कुछ पीछे छूटता जा रहा हैं
यहाँ तक की आसमान में खिलता हुआ चाँद
जिसे मैं तुम्हारे कहने पर रोटी समझकर घूरता था
आज भी जब कहीं से पतली सी धूप दीवार पर गिरती हैं
तब तुम्हारा चेहरा दीवार में चाँद की तरह चमकने लगता हैं
पर मैं इस बार रोटी समझने का भ्रम छोड़ देता हूँ
और अपनी हिचकियो को सँभालते हुए
अँधेरे के वृत्त में फकत रंगता हूँ
तुम्हारे हाथ को
जहाँ मेरा खून कभी रिसता रहता था
और तुम इसे ख्वाब समझकर हँसती थी
जब कभी खिड़की से अँधेरी रात को देखता हूँ
एक भयानक आवाज सुनाई देती हैं
और मैं लौट आता हूँ बिस्तर पर
जहाँ से केवल मुझे भूख दिखाई देती हैं
इतने में मेरी नजर
कमरे में बिखरे हुए अख़बार पर पड़ती हैं
जिस पर मोटे अक्षरों से लिखा हुआ हैं
दुनिया बदल रही हैं और ख्वाब पुराने हो रहे हैं
इतने में मेरी सांसे जोर जोर से चलने लगाती हैं
मुझे लगता हैं मेरा शहर इलाहाबाद कहीं बगदाद तो नहीं हो रहा हैं
मैं बिस्तर से उठकर
चाय की पतीली खोजता हूँ
और दियासलाई की डिबिया से एक तिल्ली निकालता हूँ
एक पिली चिंगारी के बीच तुम्हारा चेहरा चूल्हे के बीच अड़हुल के फूल की मानिंद खिल उठता हैं
चाय खौलने लगती हैं
और मैं लौट जाता हूँ
इलाहाबाद की गलियों में
और बटोरता हूँ स्मृतियों के संगम से तुम्हारी टूटी हुई यादें
इतने में कानो में सुनाई देती हैं तुम्हारी हँसी
मैं हँसी की आवाज में खोजता हूँ अपना इतिहास ॥
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