जब -जब मंदिर की
घंटियाँ बजाता रहा
लगा कि
हर बार हाथ में
एक नयी चूड़ियाँ पहनता रहा
जब -जब गीता/मानस वांचता रहा
मेरे पायजामे का नाड़ा मोटा होता रहा,
जब -कभी धुप -नैवेध्य चढ़ाकर
प्रतिमा के सामने झुकता रहा
मेरी आँखों में आभा की जगह
नपुंसकता का लेंस चढ़ता रहा,
जब -कभी मंदिर की परिक्रमा करता रहा
अन्दर ही अन्दर
व्यक्ति से व्यक्तिगत होता रहा।
और जब -कभी
पत्थर पर दूध का दान करता रहा
ऐसा लगता रहा कि
मैं किसी बछड़े के
पुरुषार्थ की हत्या करता रहा,
जब -कभी मंदिर से लौटकर
घर जाता रहा
अपने विवेक को जुते की तरह फेककर
किसी शहर की हत्या करता रहा
जब -जब मंदिर जाता रहा
नैतिकता के हथियार से
एक आदमी की हत्या करता रहा ....।।
नीतीश मिश्र
घंटियाँ बजाता रहा
लगा कि
हर बार हाथ में
एक नयी चूड़ियाँ पहनता रहा
जब -जब गीता/मानस वांचता रहा
मेरे पायजामे का नाड़ा मोटा होता रहा,
जब -कभी धुप -नैवेध्य चढ़ाकर
प्रतिमा के सामने झुकता रहा
मेरी आँखों में आभा की जगह
नपुंसकता का लेंस चढ़ता रहा,
जब -कभी मंदिर की परिक्रमा करता रहा
अन्दर ही अन्दर
व्यक्ति से व्यक्तिगत होता रहा।
और जब -कभी
पत्थर पर दूध का दान करता रहा
ऐसा लगता रहा कि
मैं किसी बछड़े के
पुरुषार्थ की हत्या करता रहा,
जब -कभी मंदिर से लौटकर
घर जाता रहा
अपने विवेक को जुते की तरह फेककर
किसी शहर की हत्या करता रहा
जब -जब मंदिर जाता रहा
नैतिकता के हथियार से
एक आदमी की हत्या करता रहा ....।।
नीतीश मिश्र
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