Thursday 17 January 2013

स्त्री

जब कभी इतिहास को
पलटता हूँ .....
पुरुषों का ही युद्ध
और विजयगाथा
और पुरुषों का ही
धर्म पाता हूँ .....
स्त्री को इतिहास में
जब देखता हूँ .....
एक पतंग की तरह
दीवारों के बीच
उलझी हुई ....
और कभी स्त्री को
कब्र में रोते हुए
देखता हूँ ..........।

स्त्री
इच्छाओं की
वासनाओं की
दीवार में टंगी हैं
एक आईने की तरह
जहाँ पुरुष
अपना अंहकार देखता हैं,

स्त्री चुप हैं
जैसे -पहाड़ चुप हैं
मैं कैसे भूल जाऊ
कि स्त्री ने अपने आवरण
में रखकर,
बिना करवट बदले
हँसते हुए
मेरी आत्मा की त्वचा को
नव महीने तक
बुनती रही
बिना यह सोचे कि वह जो त्वचा
बुन रही हैं
वह किसी स्त्री की होगी या पुरुष की,
उस क्षण भी वह
अपने लिए कोई स्वप्न नहीं बुनती थी
और अपने देह के लिए
कुछ खाती भी नहीं थी।
वह जीती थी
एक उत्तरदायित्व के लिए
अपने कर्म से कभी नहीं भागी
और अपनी तक़दीर को भूलकर
रात भर मेरे लिए
एक तक़दीर बुनती रही
शायद!इसीलिए
मुझे एहसास होता हैं
मेरे अन्दर
मेरी माँ की आवाज हैं ................


नीतीश मिश्र ....18.012013


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