Sunday 27 January 2013

एहसास

मैंने उसे उतना नहीं छुआ
जितना धूप/हवा /पानी ने
मैं,तो कुछ क्षण
दूब का तिनका लिए
सन्नाटे में
मौन होकर
देखता भर था
उसके होंठों पर
खिलते/महकते हुए शब्दों को।
कभी --कभी
मैं,उसकी धमनियों से
उमड़ती हुई गंध को
नासिका में भर लेता था
यह सोचकर कि
रात भर
मुझे अब करवट नहीं बदलनी पड़ेगी
वह मुझसे अधिक
पानी के साथ
हवा के साथ
धूप के साथ
खुश रहती हैं।
बिना राग -मटोर के
अपनी उज्ज्वलता
सौंप देती हैं
कभी पानी को तो कभी हवा को
पानी बांधता हैं
घेरता हैं
चूमता हैं
उसकी त्वचा में चमकती हुई रोशनी को
पानी कुछ ज्यादा उत्तेजित होकर
अपने होने को
उसके शरीर पर
बहुत ही खुबसूरती से टाँकता हैं
आज पानी
मुझसे ज्यादा खुश हैं
क्योकि वह छिपा रखा हैं
अपने बहुत भीतर
उसके होने के साक्ष्य को .....।।

नीतीश मिश्र

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