एक रात मैंने सपना देखा कि
चाँद मुझसे कहता हैं ---
ये जो सितारे देख रहे हो
ये सही मायने में मेरे आँखों के
आंसू हैं
और जो मुझमे दाग दिखता हैं
वह कोई धब्बा नहीं हैं बल्कि
मैंने भी एक बार
सीना फाड़कर उसे दिखाया था कि
तुम्हारा वजूद मैं कहाँ सुरक्षित
रखा हुवा हूँ
पर ये दुनिया तो सिर्फ हनुमान को स्वीकारती हैं
यह जख्म तभी का हैं
जब वह आखिरी बार मुझसे मिलने आयी थी
चाँद फिर कहता हैं
धरती पर मैं अपनी चांदनी नहीं बिखेरता
बल्कि अपने तन पर लिपटी हुई शाल को
गिरा देता हूँ
यह सोचकर कि ...
शायद उसके पांव के निशान ही
कहीं दिख जाये
पर अफ़सोस .......
कुछ दिन के लिए
बदलो मैं छिप जाता हूँ
यह सोचकर कि
आज मेरी उपस्थिति आसमान में न देखकर
शायद !वह घबरा जाये
और मेरी तबियत के बारे में जानने के लिए
शायद एक नज़र ऊपर कर ले
लेकिन न जाने वह अब किधर से हैं कि
हवा का कोई झोंका भी
उधर से नहीं आता हैं
मैं हैरान हूँ
कि इस दुनियां में भला !उसने ऐसा कौन सा
जहाँ बना डाला
जहाँ से उसकी कोई आवाज भी नहीं आती
और मैं न जाने क्यों
उसे अजान के हर लब्ज़ में खोजता हूँ
इबादत के हजारो रंग में
उसे पहचानने कि कोशिश करता हूँ
इस उम्मीद के साथ कि
जो दिल में बुखार उबल रहा हैं
वह कुछ देर के लिए ही सही राख हो जाये
और एक बार कम से कम मैं भी कह सकूँ
सपनो के ऊपर मैं भी पांव रखकर
हाथो से सूरज को पकड़ा हूँ
इसी तमन्ना के साथ पूरी रात जगाता हूँ
इतने में ही स्वप्न टूट जाता हैं
और चादर का एक सिरा कुछ सुना सा लगता हैं
जैसे यही लगता हैं कि
वह भी मेरे साथ आँखों में बैठकर
सपना देख रही थी .....|
चाँद मुझसे कहता हैं ---
ये जो सितारे देख रहे हो
ये सही मायने में मेरे आँखों के
आंसू हैं
और जो मुझमे दाग दिखता हैं
वह कोई धब्बा नहीं हैं बल्कि
मैंने भी एक बार
सीना फाड़कर उसे दिखाया था कि
तुम्हारा वजूद मैं कहाँ सुरक्षित
रखा हुवा हूँ
पर ये दुनिया तो सिर्फ हनुमान को स्वीकारती हैं
यह जख्म तभी का हैं
जब वह आखिरी बार मुझसे मिलने आयी थी
चाँद फिर कहता हैं
धरती पर मैं अपनी चांदनी नहीं बिखेरता
बल्कि अपने तन पर लिपटी हुई शाल को
गिरा देता हूँ
यह सोचकर कि ...
शायद उसके पांव के निशान ही
कहीं दिख जाये
पर अफ़सोस .......
कुछ दिन के लिए
बदलो मैं छिप जाता हूँ
यह सोचकर कि
आज मेरी उपस्थिति आसमान में न देखकर
शायद !वह घबरा जाये
और मेरी तबियत के बारे में जानने के लिए
शायद एक नज़र ऊपर कर ले
लेकिन न जाने वह अब किधर से हैं कि
हवा का कोई झोंका भी
उधर से नहीं आता हैं
मैं हैरान हूँ
कि इस दुनियां में भला !उसने ऐसा कौन सा
जहाँ बना डाला
जहाँ से उसकी कोई आवाज भी नहीं आती
और मैं न जाने क्यों
उसे अजान के हर लब्ज़ में खोजता हूँ
इबादत के हजारो रंग में
उसे पहचानने कि कोशिश करता हूँ
इस उम्मीद के साथ कि
जो दिल में बुखार उबल रहा हैं
वह कुछ देर के लिए ही सही राख हो जाये
और एक बार कम से कम मैं भी कह सकूँ
सपनो के ऊपर मैं भी पांव रखकर
हाथो से सूरज को पकड़ा हूँ
इसी तमन्ना के साथ पूरी रात जगाता हूँ
इतने में ही स्वप्न टूट जाता हैं
और चादर का एक सिरा कुछ सुना सा लगता हैं
जैसे यही लगता हैं कि
वह भी मेरे साथ आँखों में बैठकर
सपना देख रही थी .....|
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