मेरी हर साँस कहती हैं
कि कहीं कुछ गलत हुआ हैं
क्योकि अब नहीं सुनाई देती हैं
गलियों में बच्चों की आवाज
और न ही
पुकारती हुई बच्चों की
माँ की कोई आवाज ।
कहीं कुछ हुआ हैं
क्योकि आसमान में
परिंदे अब सहमे --सहमे से
नज़र आते हैं
कहीं कुछ हुआ हैं
क्योकि अब कोई नहीं
लिखता प्रेमपत्र
कहीं कुछ ऐसा हुआ हैं
हर राहगीर को बताना पड़ता हैं
अपना नाम और अपनी जाति
फिर भी उसे अपना ठिकाना नहीं मिलता हैं ।
कहीं कुछ ऐसा हुआ हैं
धरती पर अब नहीं दिखाई देती हैं
लड़कियों के पाँव के निशान
कहीं कुछ ऐसा हो गया हैं कि
अब हर पल सुनाई देता हैं
कभी किसी जंगल के रोने की आवाज तो
कभी किसी नदी के चिल्लाने की आवाज
कभी पहाड़ के पागलपन की आवाज
कहीं कुछ हुआ हैं
कोई नहीं लिख रहा हैं कविता कि
लोग जाग जाये
कहीं कुछ हुआ हैं
कि लोग सो रहे हैं
और कब्रिस्तान जाग रहा हैं ।।
नीतीश मिश्र
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