Wednesday, 20 March 2013

जागीर

बाबूजी के शोहबत की

जागीर कुछ कम न थी,

लेकिन माँ की दुआ के आगे

उसकी रौनक कुछ भी नहीं थी |

बाबूजी की कमाई से घर में

एक चिराग जलता था,

और माँ की मेहनत की लगन से

घर के कोने --कोने में,

चांदनी फैली रहती थी ||

बाबूजी की आँखों में

गुस्से का घना कोहरा छाया रहता था

और माँ की आँखों में

अक्सर बेला की खुसबू झरती थी

बाबूजी जब हम पर खुश होते

तो मेला दिखाने की बात करते

और एक माँ थी

जो चुटकी भर समय में ही

घर को एक मेले में तब्दील कर देती ||

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