Tuesday 19 March 2013

माँ

जब भी कभी माँ को
सुई में धागा डालते हुए देखता हूँ
उसकी आँखों में
विवेक का एक दिया जलते हुए पाता हूँ
अँगुलियों में उसके स्पंदन कुछ ऐसे होता हैं
जैसे विना साधने के लिए मचल रही हैं
मेरी फटी हुई शर्ट/टूटे हुए बटन को
वह ऐसे गौर से देखती हैं
जैसे मेरी रूह अभी घायल हो गयी हो,
उसे ऐसे सवांरती हैं
जैसे मैं अपनी कविता को सजाता हूँ
और कुछ क्षण के बाद ऐसे मुस्कराती हैं
कि अब मेरी शर्ट दुबारा नहीं फटेगी
और मुझे भी यही लगता हैं कि मेरी शर्ट
अब बिल्कुल सुरक्षित रहेगी
ठीक वैसे ही जैसे मेरे ओठों पर मेरी
मुस्कान सुरक्षित रहती हैं सदा के लिए ...

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