Wednesday 20 March 2013

मैं जब भी .... माँ को देखता

मैं जब भी ....
माँ को देखता
ईस्वर की आस्था लिए
अपने को बुनती -रहती थी,
और ईस्वर के बारे में
ऐसे बोलती थी
जैसे --ईस्वर से
अभी -अभी मिलकर आयी हो,
सुबह -सुबह ही
चली जाती थी
मंदिर में मिलने
उसके किसी भी कार्यक्रम में
मेरा हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं था
वह अनुभव से हर पल सजी रहती थी
ज्ञान पर ऐसे इतराती थी
जैसे -उसके पास कोई खजाना हो
और एक सलाह मुझे देती
"तुम सोमवार व्रत रहा करों ,
उसकी यह राय जंजीर जैसे लगती
लेकिन इससे एक फायदा हुआ
मुझे सोमवार दिन कभी नहीं भुला
क्योकि सोमवार को मेरा कमरा/कपड़ा
दोनों साफ मिलता
माँ शायद!उपवास करके अन्न बचाती थी
बाद में उसकी तरकीब समझ में आयी
जब शहर में ,मैं
अपनी भूख की
बहुत ही खूबसूरती से
रोज एक नए तरीके से
हत्या करता था।

जबकि आज माँ
अस्पताल में
उपवास करती हुई
महीनो से जगी हुई हैं
जैसे --मैं लड़ने के इंतजार में
वर्षों से जगा हुआ हूँ
अब यही लग रहा हैं
यह महीना सोमवार से भरा -पड़ा हैं
माँ की लड़ने की आदत बहुत पुरानी थी
कभी -भूख से ,कभी स्त्री होने की पीड़ा से
आज वह यमराज से लड़ रही हैं
वह भी बेहतर तरीके से
पर सोमवार के दिन से
मैं डर जाता हूँ
क्योकि इस दिन
माँ भूखी रहती हैं।।।। 

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