Wednesday 20 March 2013

कल फिर सूरज डूबेगा,

कल फिर सूरज डूबेगा,
कल फिर नदी सुख जाएगी
कल फिर पेड़ के पत्ते, पीले
होकर छोड़ देंगे अपना घर,
कल जब नदी कुछ कहेगी ...
सुनकर दास्ताँ उसकी
लहू में आग लग जाएगी |
कैसे?दिन में ही
हजारों हाथ/लाखों दिमाग
उसके बदन के हिस्से से
अपने लिए कोई हीरा गढ़ते हैं,
जहाँ नदी सुरक्षित नहीं हैं
और चिड़ियाँ भी नहीं,
यहाँ,तक कि पत्थर भी नहीं
वहां,कैसे कोई आदमी/औरत
जिन्दा रह सकता हैं |
कल फिर एक बच्चा स्कूल से
गायब हो जायेगा,
कल फिर एक लड़की घर से गायब
हो जाएगी,
और अन्धेरें में चीखती रहेगी
बस आवाजें -आवाजें ....
आज और कल के बीच में
हम,मेमने कि तरह झूलते रह जायेंगे
और वे लिखते रहेंगे
कभी हमारे देह पर तो
कभी हमारे जीवन पर
अपने होने का एक नया महाभारत|.[नीतीश मिश्र ]

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