Wednesday 20 March 2013

रात की तक़दीर

रात की तक़दीर
कभी आँखों में
कभी बिस्तर पर
रह -रह कर ....
खाली हो जाती हैं
जैसे धीरे -धीरे
मेरा पैमाना
खाली होकर
मुझसे अलग हो जाता हैं।

मैं रोज कुछ न कुछ
खुद को खुद से ही
रिक्त पाता हूँ
क्या भरूँ ....?
जो भी जरूरते
पहाड़ से लड़कर भरता हूँ
यदि बाहर भरता हूँ
तो भीतर से बहुत
खाली हो जाता हूँ।

कभी लगता हैं
चलूँ इसका उपाय
किसी पंडित से पुछूं
पंडित बाहर -भीतर दोनों
और से खाली होकर
मुस्कुराता हैं
यह सोचकर की
बड़े दिन के बाद
कोई मोटा मुर्गा मिला हैं
चाहे उसे हलाल खाओं
या भुन के खाओं
आत्मा तो कम से कम
एक बार हरी होगी ....
पंडित के पास सुविधा हैं
शास्त्र का
जो उसे पाप से बचा लेता हैं।
लेकिन मैं तो ठहरा
कुदाल के बल पर
दिशाओं को खोदने वाला
मैं अपने पेट को
भला!कैसे धोखा दे सकता हूँ
तो मौत को ही स्वीकार कर लूँ
पर मौत भी जाति को पहचानती
हैं भाई,
जहाँ उसका सेवा सत्कार होता हैं
वहाँ सिरहाने बैठकर
व्यवस्था की चाकरी
करने लगती हैं।
मैं अगर धीरे --धीरे मरुँ
तो मेरी कायरता इसे मत कहना
तुम समझ लेना की
मैं व्यवस्था से लड़ने की तैयारी
धीरे -धीरे शुरू किया था
और मृत्यु शायद उसी तरह
मुझे धीरे -धीरे निगल रही हैं।।[नीतीश मिश्र ]

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