Sunday 10 May 2015

मैं सपनों के साथ जागता हूं

जब पूरी दुनिया सपनों के साथ सोती है
तब मैं अपने सपनों के साथ जागता हूं
कुछ इस तरह से जैसे मेरे अंदर सोये हुए शब्द जाग गए हो
शाम को जब भी आसमान में सूरज डूबता है
आकाश का रंग अंहकार से भर जाता है
जब भी कोई चिड़िया आकाश के खिलाफ उड़ान भरती है
कुछ देर के लिए आकाश सिमट जाता है
ऐसे में रंगती है
ढेबरी कुछ देर के लिए ही सही अंधूरे आकाश को
फक़त कुछ इस तरह
जैसे नमक रंगता है अंदर ही अंदर दाल को
शाम को जब रंगों का कारोबार सिमट जाता है जिंदगी के बज्म से
सब लोग दौड़ पड़ते है
अपने- अपने हिस्से के अंधेरे की ओर
ऐसे में कहीं दूर से एक आवाज आती है
और आवाज खो जाती है किसी बियाबान में
चारों ओर एक घुप्प अंधेरा सा
ऊपर से एक मुलायम ख्वाब
दुबुक जाता है कहीं ठंड की मार से
धीरे- धीरे सपने जब आंख खोलते है
ऐसे लगता है
जैसे सपनों ने छेड़ दिया हो अंधेरे के खिलाफ जंग
धीरे- धीरे मैं पहाड़ियों से नीचे उतरता हूं
और पहुंच जाता हूं सुनने के लिए कराहती हुई नदी की आवाज को
बहुत देर तक नदी के पास बैठा रहता हूं
और सुनता हूं नदी की पीड़ा
ऐसे में कहीं दूर से एक पत्ते की आवाज आती है
नहीं रहने वाली है
ये मुश्किले!
और मैं चल देता हूं सड़क के पास
जिसे अभी जागना है।।
नीतीश मिश्र

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