Thursday 25 June 2015

कहीं मेरा गांव खत्म तो नहीं हो रहा हैं

कहीं मेरा गांव खत्म तो नहीं हो रहा हैं
जैसे ही यह विचार मन के सतह से उठता हैं
मैं अँधेरे में उठकर दीवारो को टटोलने लगता हूँ
और अपने अंदर महसूस करता हूँ
गांव वह गांव खत्म हो रहा है
और को ……
जिसने मुझे सींचकर शहर में एक बरगद की तरह खड़ा किया हैं
आज मैं अपने गांव के बचे होने की संभावना तलाश रहा हूँ
वह भी उस शहर में जहाँ का आसमान
केसरिया रंग का हैं ……
मैं आधी रात को उठता हूँ
और कमरे से बाहर देखता हूँ
सुनी सी सड़के
ठहरी हुई हवाएँ
और नालियो में गन्दगी का एक संगीत की तरह बजना सुनता हूँ
और लौट जाता हूँ
अगली सुबह की गाड़ी से अपने गांव पहुंचता हूँ
देखता हूँ गांव बीमार हैं
गांव में नहीं हैं
बच्चो की कोई टोली
गांव में कुछ अगर बचा हुआ हैं
वह हैं खंडहरों का साम्राज्य
गांव में अब नहीं सुनाई देता
पेड़ो पर से टपकते हुए पके आम की आवाज
या किसी खोते से किसी सुग्गा की आवाज …
अब नहीं सुनाई देती हैं
बांसों के झुरमुटों से किसी औरत की आवाज
अब गांव में नहीं बचा हुआ कहीं ऐसा एकांत
जहाँ प्रेम खड़ा हो सके …
अब गांव में अगर कुछ दिखाई देता हैं तो वह हैं
टूटी हुई हवाएं
और बीमार सी धूप
और कुछ बदबूदार कहानियाँ
गांव इसी तरह ख़त्म हो जाएंगे
और एक दिन हम भी ॥

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