Wednesday 22 April 2015

रात अब चुप -चाप आती हैं

रात अब चुप -चाप आती हैं
और सिरहाने बैठ जाती हैं
और सुनने लगती हैं मेरे जिस्म से निकलती हुई आवाज़ को
चाँद पूरी रात
अपनी रोशनी पर पहरेदारी करता हैं
और मेरी आँखो से सपने निकलकर
दूधिया रोशनी मे जुगनू की तरह आँखमिचोली करने लगते हैं
ऐसे मे सुनाई देती हैं
बकरियो की मिमियाती हुई आवाज़
जो बताती हैं
दिन भर की दास्तां की किस झाड़ी में कब किस बच्चे की पतंग फँस गई थी
तभी नीले गुंबद से आसमान को देता हैं कोई आवाज़
मानो धरती से कोई बुला रहा हैं
बादलो मे छुपे हुए चेहरो को
ऐसे में कब आँगन मे एक हल्की सी धूप उतर जाती हैं
और मैं आसमान से लेकर एक ख्वाब चल पड़ता हूँ मैदान की और ||

नीतीश मिश्र

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