Wednesday 22 April 2015

वह बना रही है अपने लिए जगह


उसे मालूम है
भले से वह खिड़कियों के बीच से
देख रही रंगों को
उसे मिलना है एक बार कम से कम एक बार
धूले हुए आकाश से
रंगी हुई हवा से
आस्था से युक्त मंदिरों की मूर्तियों से
इसलिए वह बना रही है अपने लिए एक जगह
और साफ कर रही है आसमान को
हवा को
फूलों को
दरिया को
वह उड़ना चाहती है
और फर्क महशूस करना चाहती है
खुली हवाओं और कमरों के बीच बंद हवाओं के बीच
वह फर्क महशूस करना चाहती है
घर के पानी और नदी के पानी के बीच
वह देखना चाहती है
अयोध्या और गुजरात की मिट्टियों को
वह देखना चाहती है अलीगढ़ और बनारस की रात में भला क्या फ र्क होता है।
वह देखना चाहती है
क्या सचमुच में रात को दिल्ली का रंग डाइनों की तरह हो जाती है
वह देखना चाहती है
खादी के भीतर आत्मा रहती है या किसी का शरीर
इसलिए वह जगह बना रही है
जिससे वह उड़ सके
और बता सके
कि सागर के किनारे जो धरती खाली है वह भी सागर के विरूद्ध जेहाद करना चाहती है।।
नीतीश मिश्र

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