उसे मालूम है
भले से वह खिड़कियों के बीच से
देख रही रंगों को
उसे मिलना है एक बार कम से कम एक बार
धूले हुए आकाश से
रंगी हुई हवा से
आस्था से युक्त मंदिरों की मूर्तियों से
इसलिए वह बना रही है अपने लिए एक जगह
और साफ कर रही है आसमान को
हवा को
फूलों को
दरिया को
वह उड़ना चाहती है
और फर्क महशूस करना चाहती है
खुली हवाओं और कमरों के बीच बंद हवाओं के बीच
वह फर्क महशूस करना चाहती है
घर के पानी और नदी के पानी के बीच
वह देखना चाहती है
अयोध्या और गुजरात की मिट्टियों को
वह देखना चाहती है अलीगढ़ और बनारस की रात में भला क्या फ र्क होता है।
वह देखना चाहती है
क्या सचमुच में रात को दिल्ली का रंग डाइनों की तरह हो जाती है
वह देखना चाहती है
खादी के भीतर आत्मा रहती है या किसी का शरीर
इसलिए वह जगह बना रही है
जिससे वह उड़ सके
और बता सके
कि सागर के किनारे जो धरती खाली है वह भी सागर के विरूद्ध जेहाद करना चाहती है।।
नीतीश मिश्र
No comments:
Post a Comment