Thursday 3 December 2015

आँखों में नीद की जगह एक आवाज

आँखों में सेमर की फूल की मानिंद नींद आती हैं
एक पहर के बाद राख की तरह दीवारो पर बिखर जाती हैं
मैं कई बार नींद के पार जाना चाहता हूँ
ठीक वैसे ही जैसे अँधेरा जाता हैं जंगलो में
और जाते ही जंगल के देह पर पसर जाता हैं
अँधेरा जंगल का रोशनी हैं .....
आँखों में कभी नींद कपूर की तरह आती हैं
नींद की गंध को मैं थामना चाहता हूँ
तभी हवाओं में कोई शोर तैरता हुआ आता हैं
एक बारूदी विस्फोट की तरह आवाज में तब्दील होकर अपनी कब्र मे खो जाता हैं
मैं सूर्यास्त के बाद के आसमान में रखता हूँ एक दिया
जो कुछ देर चमकने बाद बूझ जाती हैं
ठीक वैसे ही जैसे मेरे सीने में हर शाम एक उम्मीद मर जाती हैं
और मैं रात भर अपनी उम्मीद को दफ़नाने के लिए बुनता हूँ सतरंगी चादर.....
नींद के अलग -अलग रास्ते होते होंगे
मैं उन रास्तो को वर्षो से खोज रहा हूँ
जैसे वर्षो से खोज रही माँ मेरी स्मृतियों को ....
नींद के माने मुझे आज तक समझ में नहीं आया
औरो को समझ में आया होगा
तभी तो ववे लोग एक ही चाल में धरती पर चलते रहते हैं
और एक ही भाषा बोलते हैं
मानों वे आदमी नहीं कोई पेड़ हो जो सिर्फ महकते हैं
जबकि हम जैसे लोग हर रोज एक शव की शक्ल में तब्दील हो जाते हैं
दुनिया समझती हैं
अपने आसमान के निचे ही कुचलकर मर गए हैं
लेकिन अगले क्षण हम लोग अपनी धरती पर जड़ो के साथ जिन्दा हो जाते हैं
और अपनी नांव लेकर निकल पड़ते हैं
पानी की गहराई में अपने अपने सूर्य को ढूंढने
और इस खोज में भले से हमें कोई सूरज कभी न मिला हो
लेकिन हर रोज एक नया आसमान जरूर मिलता हैं
जहाँ हम खड़ा कर सकते हैं
अपनी नींद का हरा -भरा जंगल ....
अभी हम रात पर पहरा ही देने के लिए सोचते हैं
तभी आसमान से अचानक एक तारे के गायब होने की सूचना मिलती हैं
और हम निकल पड़ते हैं
सूचनाओं की दिशा में
सूचनाये की दिशाए कई बार सहीं नहीं होती हैं
इसके बाद भी हमें चलना पड़ता हैं तब -तक जब तक कोई सही दिशा न मिल जाये
जरुरी नहीं होता हैं की जो दिशा बताई जाती हैं दुबारा वह भी सही हो
कई बार मंजिल के पास जाकर हमें सिद्ध करना पड़ता हैं
सूचना भी गलत थी और दिशा सही थ.....
कई बार रात में जब हमारी दुनिया गुजरती हैं तब पूरी दुनिया
सपने को खाकर सोयी हुई दिखाई देती हैं
तभी फ़ुटपाथ से एक आवाज आती हैं
जो सपने न पहने की सजा भोगते रहते हैं ....
रात में दुनिया के देवता सो जाते हैं
दिन भर की नौकरी से शायद ऊबकर
देवता भी कभी हमारे जैसे ही लगते हैं भटके हुए जैसे
इन्हे देखकर लगता हैं
यह भी किसी सर्कस में बंद हो गए हैं
और एक तमाशा की तरह शहर में शोर किये जा रहे हैं
या अपनी मुक्ति संग्राम का क कोई गीत गए जा रहे हैं
लेकिन अजीब हैं देवताओं की कोई भाषा यहाँ समझने को तैयार नहीं
कभी कभी देवताओं को ऐसे में देखकर लगता हैं
शायद यह भी बचपन में अपने घर से अकारण गायब हो गए हैं
और गायब व्यक्ति को गायब होने की सजा भोगनी पड़ती हैं
अब मेरी आँखों में नीद की जगह एक आवाज समाई रहती हैं ॥
नीतीश मिश्र

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