Saturday 8 August 2015

मैं अंधेरे में बनाता हूं अपना अक्स

 शाम आती है
आहिस्ते- आहिस्ते एक उदासी देकर चली जाती है
मैं अंधेरे का एक टुकड़ा लेकर बनाने लगता हूं
एक पंतग.... 
जो अंधेरे में उड़ सके
और मैं सुनता रहूं भीतर ही भीतर एक बच्चे की हंसी
जो दिन भर खुली हवा में
किताबों से दूर रहा
दौड़ता रहा अपनी हथेलियां उठाए
कभी इस गली में कभी उस गली में
और भूल गया खेलना...
मैं अंधेरे का एक टुकड़ा लेकर बनाता हूं
एक लट्टू
जिसे एक बच्चा धरती पर कहीं भी नचा सके
और उम्मीद भर सके अपने हाथों में
कि उसमें अभी भी वह हुनर है
जिसके दम पर वह आगे दुनिया को नचा सकता है
मैं अंधेरे के एक टुकड़े से बनाता हूं
एक चित्र
जिसे एक बच्चा अपनी मां समझ सके
और लड़ सके
अंधेरे से!
 मैं अंधेरे का एक टुकड़ा लेकर
बनाता हूं एक इमारत
जहां एक बच्चा आए और सो सके
और एक ख्वाब बुन सके
मैं रात भर लड़ता हूं अंधेरे से
जिससे एक बच्चा अपने अंदर
महसूस कर सके उसे कुरूक्षेत्र में जाना है
मैं अंधेरे में बनाता हूं अपना अक्स
जिससे मैं रह सकू अपनी दीवारों के साथ।।
नीतीश मिश्र


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