Saturday 19 April 2014

तुम्हारे नाम का भी एक शहर होना चाहिए

काश ! की इस कायनात में
एक शहर तुम्हारे नाम का भी होता
और मैं पहाड़ियों से उतरता हुआ
मस्जिद से आती नमाज़ की आवाज में
खोजता तुम्हारे आड़े / तिरछे नाम को
और हवा में मुठ्ठी भांजते हुए
सड़क किनारे खेल रहे बच्चो को देखकर
मैं भी हँसते हुए कहता की
यह शहर मेरा हैं ।
लेकिन ! शहर के नाम रखने वाले उस्ताद नहीं रखे किसी भी शहर या गाँव का नाम
तुम्हारे नाम पर
तुम्हारा स्पर्श ! मुझे पत्थरों के बीच होता हैं
तुम्हें शायद पता था
नहीं रखा जायेगा मेरे & तेरे नाम का कोई भी शहर
इसलिए तुम एक पत्थर हो गए और मैं एक रंग ।
और पत्थर भी ऐसा की जहाँ
कायनात सज़दे में कुछ देर के लिए झुक जाता
काश मैं ढूंढ लेता तुम्हारे नाम का कोई मोहल्ला
और बनाता अपना रेन बसेरा
लेकिन अफ़सोस ! तेरे नाम का मिलता हैं मुझे
एक जनरल स्टोर
और एक चाय की दुकान
मैं यह नाम देखकर ही रुक जाता हूँ
और तुम्हारे वजूद को अपनी नमाज़ में भरकर फिर लौट जाता हूँ
पहाड़ियों पर 
अगर मैं शंहशाह बनता हूँ कभी
तो पहले बनाऊंगा तुम्हारे नाम का एक शहर । ।


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