Monday 14 April 2014

अँधेरे ने मुझसे छीन लिया मेरा वजूद

अँधेरे  में
बहुत देर - तक संघर्ष करने के बाद
अपनी माँ के चेहरे को  पाता हूँ
वह भी एक उदास चेहरा !
मैंने कभी माँ को उदास होते हुए ऐसे नहीं देखा था
लेकिन ! अँधेरे के पास जो माँ का चेहरा था
माँ ! अपने चेहरे में ऐसे उदास लग रही थी
जैसे - उसने वर्षों से कभी खाना न खाया हो
सिर्फ ! मेरे बारे में सोच कर अँधेरे में कहीं खो गई हो
तभी मैं सोचता हूँ
आदमी अँधेरे से इतना क्यों डरता हैं ?
अँधेरा ! आदमी से सब कुछ छीन लेता हैं
और आदमी एक दिन इतना ख़ाली हो जाता हैं
अँधेरे के सामने खुद को नंगा पाता हैं ।
अन्धेरें ने मुझसे छीन लिया मेरी सारी स्मृतियाँ
जो मेरे दिमाग की एक रोशनी थी
आज ! मैं अँधेरे के सामने बहुत देर -तक चिल्लाकर रोता हूँ
और अँधेरे से कहता हूँ दे - दे
मुझे वे सारे सपने
जिनके साथ मैं खेलते हुए बड़ा हुआ हूँ
आज हम भूल चुके हैं अपने साथ जिए हुए तमाम चेहरे
हमें अँधेरे का करना होगा उत्खनन
और तभी हम पाएंगे अपना चेहरा
और तभी हम लिखेंगे उम्मीद की एक कविता
और प्यार की एक कहानी ।

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