Monday 14 January 2013

मिलते बिछुड़ते हुय

एक शाम
हँसती हुई
थामती हैं
बांहों से
सूखे .....
जर्जर .....
मौन से गुन्थित
सुने से पहाड़ को,
और रंगती हैं
अपनी फकत महक से
पहाड़ के सीने को।

पहाड़ थामना चाहता हैं
कुछ देर तक
शाम के बोलते/महकते हुए स्पर्श को ...........
रात छुपती रहती हैं
मेरी नज़रों की रोशनाई में
इतने में
रात विखर जाती हैं
जैसे -विखर जाती हैं
मेरी कोई कविता।
फिर भी कुछ न कुछ चिपकी रहती हैं
कुछ मेरें रोयें की तरह
कुछ हड्डियों की तरह जुड़ी रहती हैं
मुझसे मेरी जिंदगी ..............

धूप आहिस्ते --आहिस्ते
मेरे अंजुमन में बैठती हैं
कुछ मेरें दोस्त की तरह
गौरैया आ जाती हैं,
कुछ तिनकों को लिए
अपने आशियाने में
धूप के साथ/हवा के साथ
मशगूल हो जाती हैं बताने में
अपने जीये हुए जिंदगानी के बारे में।

मैं नहीं पकड़ पाता नज़रों की नजीर से
उसके एक -एक बूंद जैसे मीठे दर्द को
इतने में मेरी तकदीर विखर जाती हैं
रेतों की झीनी सी खुशबुओं में,
मैं तारों की तरह खुद को
आसमान में कुछ देर के लिए टांग देता हूँ
जिससे मैं देख सकूँ
शकून से अपने सोते हुए घर को
और सुन सकूँ अपनी प्रेयसी की सांसों की धार को,
एक बार कम से कम उसके माथें पर
अपने शब्दों को लिख सकूँ

उसकी यादे ही .............
अब मेरे तन पर लिबास की तरह झिलमिलाती हैं
ह्रदय जुगनूओं की तरह टिमटिमाता हैं
टिम ....टिम .....
मैं रोज खोदता हूँ अपनी कब्र,
पर नहीं दफनापता खुद को
गोकि वह भी जुड़ी हुई हैं
और कभी --कभी मेरा प्रतिरूप भी
सपने से उतर कर
जीवन के धरातल पर
आकर खड़ा हो जाता हैं
शायद!वह सुलझा दे
मेरे अनकहे -अनदेखे सच को,

सो टाल देता हूँ कुछ क्षण के लिए
अपनी मृत्यु की खबर को
जो हवा की तरह हिलती --डुलती हैं
मेरे चेहरे पर।

मैं कभी -कभी उसके
बहुत पास जाना चाहता हूँ
जैसे जाती हैं नावें लहरों को छुने
हरेक सुबह मैं
उसके सामने सजदा करता हूँ
उसका दिल मुझे पानी की तरह चमकता हुआ
एक आइना लगता हैं .................
मैं अपना चेहरा देखकर खुश हो जाता हूँ
डूबते हुए सूरज की तरह

उसके चेहरे पर काला तील चमकता हैं
कुछ तारों की तरह ........
जैसे यही लगता हैं कि
मैंने वर्षों से चूम के बनाया हो।।

वह पहाड़ी नदी की तरह
हिलती --डुलती हुई
जतन से सुबह -शाम
संभालती हैं
शराब  की तरह महकती हुई
अपने तन की खुशबुओं को .....

मैं उससे जब भी मिला
एक गज़ल की तरह
मुझे घंटों गुनगुनाती हैं
और शर्म से फूलों की तरह
खड़ी हो जाती हैं
मेरी सांसों की आयतों में
मैं उसके मूक समपर्ण को
अपने जीवन की एक ताबीज़ समझकर
बांध लेता हूँ कलाईयों में .............
फिर उसकी पीठ पर लिखता हूँ
अँगुलियों से अपने डर को।

वह मेरे हिम्मत की दाज देती हैं
क्योकि उसके शहर में ......
मैं उसे ...उसकी तरह चाहने लगता हूँ
वह कुछ देर तक बैठी रहती हैं
मेरी शाख पर
फिर मौसम की तरह
मेरी नज़रों के सामने ही
बादलों के झुरमुटों में गुम हो जाती हैं
इतने में ही वह कोई खुदा सरीखे हो जाती हैं
सो, मैं बड़े प्यार से पुकारता हूँ
क्योकि वह मेरे जीवन की पतवार हो गयी हैं .....।।।


.......नीतीश मिश्र ........15.01.2013








2 comments:

  1. बादलों की ओड़ में प्यार की लुका-छिपी, एक इंतज़ार और एक तड़प ..बहुत खूब

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  2. वाह अदभुद रचना ,प्रकृति और प्रेयसी के मध्य अदभुद तारतम्यता ,बहुत ही सुंदर रचना मेरे कबिन्द्र ।

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