Wednesday 14 May 2014

सोचता हूँ लिखूं एक चिठ्ठी

सोचता हूँ
लिखूं एक चिठ्ठी
उजरका आम को
और पुछू कहाँ से भरकर लाते थे
अपने अन्दर मिठास
जबकि तुम कभी मन्दिर भी नहीँ जाते थे ।
सोचता हूँ लिखू एक चिठ्ठी
अपनी पाठशाला के मास्टरों को
जो अक्सर मार -मार कर बताते थे
देवताओं से अधिक ताकत क़िताबों मे होतीं हैं ।
सोचता हूँ लिखू एक चिठ्ठी
अपने बगीचे को
जहाँ मैने पहली बार
एक लड़की का नाम लिखा था
अंगूठे से ।
सोचता हूँ लिखू उस लड़की को चिठ्ठी
जो दोपहर मे घर से भागकर आती थी
और अपनी गुड़िया और गुड्डे की शादी रचाती थीं ।
सोचता हूँ लिखूं एक चिठ्ठी
लट्टू को जिसको मै नचाता था
और आज मैं खुद एक लट्टू की तरह नाचता हूँ । ।
सोचता हूँ लिखू एक चिठ्ठी अपने
घर को जहाँ से माँ ने मुझे आसमान दिखाया था । ।

No comments:

Post a Comment