Wednesday 12 February 2014

एक लड़की की चिट्ठी

कामरेड तुम्हें याद  हैं
जब मैं पहली बार
अपने बदन के अंधकार को उतारकर
तुम्हारे होंठ के दीये के नीचे आई थी
उस वक्त मेरे घर की दीवार बारिश से कांप रही थी
और घर के बाहर गेंहुअन पहरा दे रहा था
और आँगन में घूमता हुआ करैत खामोश था
शायद ! वह पीछे से मुझे डसना चाहता था
फिर भी मैं मेंढ़कों की टर्राहट और झींगुरो की ताल का सहारा लेकर
आगे बढ़ रही थी
मैं भूल गई थी
बांसवाड़ में रहने वाली चुरइ न  को
जिससे पूरा गांव डरता था
फिर भी मैं लाल सलाम का महामंत्र जाप करते हुए आई थी तुम्हारे घर
और तुम खा रहे भात  -चोखा
कामरेड तब
तुम मुझे बारिश की चादर ओढ़ाकर लिख रहे थे
अपने सिंद्धांतों का इंद्रधनुष
और मैं मूक थी तुम्हारे साये में दूब की  तरह ॥

नीतीश मिश्र

No comments:

Post a Comment