Tuesday 11 February 2014

एक लड़की कि चिट्ठी --तीन

एक लड़की कि चिट्ठी --तीन
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कितने शर्म की  बात हैं कामरेड
तुम मेरे देश और समाज में रहकर भी
कभी मेरे नहीं हो पाएं
और मैं तुम्हारी तबसे हूँ
जब तुम मेरी गली से
लाल सलाम कहकर गुजरते थे
तुम्हारे मुंह से लाल सलाम सुनकर
मैं ,बाहर -और भीतर से एक पल के लिए लाल हो जाती थी
मेरा लहू मेरे पसीने से बाहर आकर
मेरे बदन के कहीं कोने में लिखता -रहता था
हर पल तुम्हारा नाम
तुम्हारे स्पर्श की छाया में
मैं जब भी आती थी
मेरे भीतर की लालिमा गुलमोहर की तरह चमकने लगती थी
और तुम्हारे स्पर्श के एक -एक शब्द को
मैं रात भर बैठकर अपने आईने में लिखती रहती थी ।

मैं जब कभी तुम्हारे छाया में आती थी
तुम मूर्तिकार की तरह मुझे खजुराहो से भी ज्यादा सुन्दर बनाते थे
उस वक्त यही लगता था की
मैं एक बांसुरी हूँ
और तुम उसमे सुर हो
यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला की
तुम मेरी बांसुरी में अपनी कला का सुर नहीं
बल्कि अपने संघर्षो की छाया खोजते रहते थे ।

कामरेड मैं आज भी वहीँ खड़ी हूँ
जहाँ तुम मुझे छूकर लाल सलाम कहा करते थे
उस जगह मैं रोज खोजती -रहती हूँ अपनी टूटी हुई यादें
क्या कामरेड मैं कभी तुम्हारे सपनो में भी आती हूँ कि  नहीं !

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