Friday 7 August 2015

रात भर दीवारे जागती है

एक रात मैं देखता हूं
खुदा सोते हुए ख्वाब देख रहा है
और अंधेरा हिंसा करता जा रहा है
दीवारे सिमटती जा रही है
कमरे का आइना सदियों से मौन होकर
छत के रंग को घूरे जा रहा है
ऐसा लगता है जैसे अंधेरा अब किसी की हत्या करने वाला है
लेकिन कमरे में मेरे अलावा दीवारे है/ जूते है/ झाड़ू है/ किताबे है/ कुछ गंदे कपड़े
सभी खामोश है
सभी की आंखों में कभी अतीत का सम्मोहन
कभी नीला सा भय
कभी आंखों में एक मद्धिम सी रोशनी के बीच
विज्ञान के भरोसे खोजती है जिंदगी में सुराख
और अंधेरा फैलाता रहता है अपना सीना इस कदर की
दीवारे चादरों में सिमटने लगती है
आइना टूटने लगता है
जिंदगी अपने ख्वाब जूते में रखने लगती है
और घना होता है अंधेरा
कमरे में रखी कुछ पाषाण मूर्तियां बोलने लगती है
यह अपने समय की हिंसा है
किताबे बोलती है यह अपने समय की राजनीति है
जूतो बोलता है
यह अपने समय का हत्यारा है
आईना बोलता है
यह देश का सौदागर है
दिवारे बोलती है
यह अपने समय का उस्ताद है
क्या ये सब अपने- अपने समय के हथियार से ही मारे जाएंगे?
यह एक दिन की बात नहीं है
जबसे वह सत्तासीन हुए है
तभी से कमरे में अंधेरा बढ़ता जा रहा है
दीवारे जाग रही है
जूते आखिरी सांस ले रहे है
कहीं अगर थोड़ी सी उम्मीद बची है तो वह रेगिस्तान में छिपी हुई है।

नीतीश मिश्र

2 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर व अर्थवान संरचना के साथ कविता अंधेरे से लड़ने की मानवीय तकनीक की ओर इशारा करती है |

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  2. बहुत ही सुन्दर व अर्थवान संरचना के साथ कविता अंधेरे से लड़ने की मानवीय तकनीक की ओर इशारा करती है |

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