Monday 10 March 2014

मैं अपनी माँ का सिकंदर नहीं हूँ

यदि कभी.. .
मैं  बाबूजी के साए को
छूकर घर से निकलता
मैं दुबारा घर पर सिकंदर की तरह वापस आता
लेकिन ! मेरी यह खुशनसीबी हैं
मैं घर छोड़ने से पहले
अपनी माँ के साए को छूकर निकलता हूँ
माँ यह सोचकर खुश होती हैं
उसका बेटा लाख कायर हो
पर सिकंदर कि तरह घर पर कभी वापस नहीं आएगा ।

हाँ ! मैं सिकंदर नहीं हूँ.. . .
जो घर छोड़ने से पहले यह वादा करूँ कि
एक दिन सारी दुनियां मेरी मुट्ठी में होगी
और जो दुनियां और जो हवा और जो बारिश
 मुझे वर्षों से अपनी मुट्ठी में रखकर पालती आई
उसे ही सिकंदर बनकर छोड़ दूँ
क्या मेरे सिकंदर बन जाने से
यह दुनियां मुझे अपना लेती ?
हाँ ! मैं सिकंदर नहीं हूँ
जो मरने से पहले
अपनी स्मृतियों का कायदे से कफ़न भी न पहन सकूँ ।

इसलिए मैं घर से निकलने से पहले
अपनों को पुनः पाने के लिए
यही कहते हुए निकलता हूँ
कि हाँ ! मैं सिकंदर नहीं हूँ
मेरे मुंह से यह वाक्य सुनकर
माँ की हड्डियां फिरसे एक बार जीवित हो जाती हैं
और वह उम्र के आगे की एक दहलीज पर खड़ी होकर
आँखों से ऐसे हंसती हैं
जैसे उसकी आँखे कभी रोयी न हो ।
मैं दुनियां के किसी भी कोने से चाँद को देखता हूँ
माँ को चाँद के बीचोबीच ही सूत काटते हुए पाता हूँ
और जब कभी कोई रंग मुझे अपनी और घेरता हैं
माँ की साड़ियों के रंग याद आने लगते हैं
और जब भी मैं कोई खेत में फसल देखता हूँ
तो याद आता हैं
मेरे खेत में एक कछुए का दिन भर आराम से सोना
मैं सोचता हूँ
काश ! सिकंदर के पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ होती तो
तो उसकी माँ भी हंसती हुई मौत के पार  जाती । ।
नीतीश मिश्र

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